स्वामी जी जब सितंबर 1893 में, विश्व धर्म सम्मेलन में अपना भाषण सुनाने गए तो उनका भाषण अंत में रखा गया। उन्हें वहां सहयोग देने के लिए कोई भी नहीं था। लेकिन उस कठिन समय का भी बखूबी सदुपयोग किया। बड़े प्रभावशाली तरीके से अपनी बात कही और दर्शकों का दिल जीत लिया। उस दिन एक परतंत्र देश के प्रतिनिधि ने हमेशा के लिए अजेय भारत की छाप विदेशियों के दिल पर छोड़ दी थी।
कहते हैं कि परिस्थितियों में बदलाव आते देर नहीं लगती। अगर आपमें साहस है तो उसके बल पर आप चट्टानों को चूर-चूर कर सकते हैं और नदियों का रुख मोड़ सकते हैं। आने वाले दिनों में उनके नाम का ऐसा डंका बजा कि बस पूछो ही मत। हालांकि इस बार भी उनका भाषण सभा के अंत में ही रखा गया परंतु इस बार हालात अलग थे। इस बार उन्हें अंतिम वक्ता इसलिए चुना गया था कि लोग सभा के बीच से उठ कर न जाएँ और अपने प्रिय स्वामी विवेकानंद जी का भाषण सुनने के लोभ में, शांति से अपने स्थानों पर बैठे रहें। अब स्वामी जी का भाषण सभा की शांति और संपूर्णता से जुड़ गया था। यह एक लक्ष्य के प्रति व्यक्ति की निष्ठा व मेहनत का ही सुफल था।

जब स्वामी जी शिकागो के धर्म-सम्मेलन में गए तो उनकी आयु तीस वर्ष की थी। उन्होंने इन तीस वर्षों में कभी भी सांसारिक व्यक्ति बनने की नहीं सोची। यदि चाहते तो अपनी शिक्षा के बल पर अच्छी नौकरी व पद पा लेते। एक सुंदर सी कन्या से विवाह कर घर बसा सकते थे परंतु उन्होंने संन्यास धारण किया और स्वयं को धन कमाने की मशीन में बदलने की बजाए, अपने ज्ञान को सनातन धर्म के प्रचार में लगाने का निर्णय लिया।
जब स्वामी जी के पिता की मृत्यु हुई तो परिवार को पालने की सारी जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर आ गई। विवेकानंद जी और भी बहुत कुछ करना चाहते थे पर उन्होंने अपनी जिम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने व्यवहारिक जीवन और आध्यात्मिक जीवन का ऐसा तालमेल बिठाया कि दोनों के लिए ही समय निकाल सकें।

जब उन्होंने शिकागो जा कर सनातन धर्म के प्रचार के बारे में सोचा तो वे एक साधनहीन संन्यासी थे। वे अपने सपने को किसी भी दशा में पूरा करना चाहते थे। दरअसल बाधा कोई एक नहीं थी। सबसे पहले तो विदेश यात्रा के लिए धन नहीं था। दूसरे, उन दिनों समुद्र पार जाना पाप माना जाता था। वे अपने लक्ष्य तक जाने के लिए बेचैन थे। एक ऐसा दौर भी आया जब यात्रा के लिए धन का प्रबंध नहीं हो रहा था। तब वे अफगानिस्तान के मार्ग से पहाड़ों, नदियों व जंगलों को पार करते हुए भी शिकागो जाना चाहेंगे क्योंकि उनका एक ही लक्ष्य था कि वे विश्व धर्म सम्मेलन में सनातन धर्म की ध्वजा फहराएँ। उन्होंने एक-एक कर सभी बाधाओं को पार किया और अपने लक्ष्य तक जा कर ही दम लिया।

