स्वामी जी जानते थे कि जब भी कोई अच्छा काम शुरू किया जाए तो पहले लोग उसका मज़ाक उड़ाते हैं । फिर वे उसका विरोध करते हैं और आखिर में उस काम के लिए अपनी मंजूरी दे देते हैं ।
जब वे सितंबर 1893 में वेदांत के सिद्धांत को पूरी दुनिया में फैलाने के लिए शिकागो जाना चाहते थे तो अनेक संकट सामने आए। वे बड़े कष्ट सहने के बाद किसी तरह वहां पहुंचे। वहां वे सनातन धर्म के बारे में लोगों को जानकारी देना चाहते थे ताकि दूसरे देशों के लोग भी भारत की महान सभ्यता व संस्कृति के बारे में जान सकें।
शिकागो की धर्म सभा में अन्य धर्मगुरु नहीं चाहते थे कि स्वामी जी अपने विचार प्रकट करें। यही वजह थी कि स्वामी जी का भाषण सभा के आखिर में रखा गया। उन लोगों का मानना था कि सभा की कार्यवाही से थके हुए श्रोता उनके भाषण पर ध्यान ही नहीं देंगे।
स्वामी जी ने इस बात से अपनी हिम्मत और हौसला टूटने नहीं दिया। वे पूरे साहस और आत्मविश्वास के साथ मंच पर पहुंचे और उन्होंने विदेशियों के आगे सिद्ध कर दिया कि भारत पिछड़ा हुआ देश नहीं था। वह धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में उनसे कहीं आगे था।

स्वामी जी का एक सिद्धांत आज भी उतना ही खरा उतरता है। वे कहते थे-
‘यह संसार कायरों के लिए नहीं बना है। किसी भी काम की सफलता या असफलता की चिंता किए बिना उसे लगातार पूरी लगन के साथ करते रहना चाहिए।’
प्रायः लोग काम शुरू करने से पहले ही सोचने लगते हैं कि कहीं उनका हक न छिन जाए, कहीं कोई उनकी जगह न ले ले। इन्हीं बातों पर विचार करते हुए वह किसी भी तरह के काम में हाथ नहीं डाल पाते। वे कहते थे कि हमें सबसे पहले अपनी इसी कमी पर काबू पाना होगा।
शिकागो की धर्मसभा में भी उनका उपहास उड़ाने वालों की कमी नहीं थी। वे लोग यह मानते थे कि भारत एक पिछड़ा हुआ गुलाम देश था और किसी गुलाम देश से आया वक्ता उन्हें क्या सिखा सकता था? उसके तो अपने ही देश में इतनी बुराईयां और कुरीतियां मौजूद थीं पर स्वामी जी ने उन्हें भारत के एक नए ही रूप का परिचय दिया जिसे जान कर वे दंग रह गए।

एक वक्ता ने मज़ाक में कहा – ‘ स्वामी जी ! यूरोप और अमेरिका के लोग दूध से उजले हैं और अफ्रीका के लोग कोयले की तरह अश्वेत हैं पर हम भारत से आए विद्वान को किस श्रेणी में रख सकते हैं?
स्वामी जी ने उत्तर दिया- ‘भोजन बनाते समय चपाती सफेद रहने पर कच्ची कहलाती है और काली पड़ने पर जली हुई कही जाती है। चपाती का पूरी तरह से पका होना ज़रूरी होता है । उसी तरह रंग या चमड़ी पर ध्यान देने की बजाए विचारों पर ध्यान देना आवश्यक होता है। विचार पूरी तरह से पके हुए यानी परिपक्व होने चाहिए। हमें मन के भावों को देखना चाहिए । ईश्वर को पाने के रास्ते भले ही अलग हों पर सबकी मंजिल एक ही है । ‘
इस तरह उस व्यक्ति का मुंह बंद हो गया। स्वामी जी के उत्तर ने उसे भी सोचने पर विवश कर दिया था।

