"सोने का हार"-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Sone ka Haar
Sone Ka Haar

Sone ka Haar: गले के हार को हर जगह ढूंढ़ लिया था अर्चना ने। अपने कमरे में, पुराने बैगों में भी, कहीं भी नहीं मिला। आज अपनी लापरवाही पर गुस्सा और रोना आ रहा था।
मां और दीदियां उसे कितना समझाती थी, चीजों को यथास्थान रखो। पर नहीं, उसे अपनी आदत नहीं बदलनी थी और फिर चीज भी ऐसी गुम हुई थी कि किसी को बता भी नहीं पा रही थी।

मौसी की बेटी रंजना की शादी थी। साथ में ससुराल से मिला “सोने का हार” भी ले गई थी। उसकी लापरवाही से परिचित संजीव ने एक बार उसे दबी जबान से टोका भी था, पर उसकी मति मारी गई थी, जो लेकर गई। अब तो सारे बैंग भी वह देख चुकी थी। उसे सिर्फ इतना याद था कि किसी बैग में रखा है।

अभी तो शादी के सिर्फ दो महीने हुए थे, उस पर घर की छोटी बहू ऐसी गलती करे, ये सब सोचकर ही वह हलकान हुए जा रही थी।
संजीव तो आते ही मीटिंग के लिए दिल्ली निकल गए। फोन पर बता नहीं सकती। इतने लोग हैं कोई भी सुन सकता है और फिर संजीव भी मीटिंग में परेशान हो जाएंगे। शादी से पहले सब कुछ कितना अच्छा था। मां और सुधा दीदी कितना सहेज कर रखती थी उनका सामान। हां, मंझली दीदी अवश्य ही डांटती, पर वह भी स्नेह से। स्कूल की सारी किताबें वही तो सहेज कर रखती थी।
उसका पैन रसोई में मिलता, तो घड़ी सोफा पर, रुमाल तो शायद ही वह कभी अपना ले जाती, हमेशा दीदी लोग ही उसे देती थी। रुमाल उसके तभी मिलते थे जिस दिन घर की सफाई होती थी।
दोनों दीदी की शादी हो गई, तो कुछ हद तक अपनी चीजों को सहेजना शुरू किया और इतना सहेज कर रखती थी कि याद रखना मुश्किल।

अब तो अर्चना को सिर्फ इतना याद आ रहा था कि सुबह करीब सात बजे वे लोग लौटे। नहा-धोकर वह मांजी के पास शादी के उपहार लेकर चली गई। फिर जब कमरे में आई, तो बड़ी भाभी उसी के कमरे से निकल रही थी और बड़ी जल्दी में थी। वैसे भी वह सुबह बहुत व्यस्त रहती है। संजीव बाथरूम में थे। फिर नाश्ता, खाना, पैकिंग इन सब में वक्त निकल गया। सचिन दिल्ली के लिए निकले, तब जाकर उसने सामान ठीक से लगाने की सोची और तभी से उसे परेशानी है। उसका “सोने का हार” भी कहीं नहीं मिल रहा था। संजीव दो दिन बाद आएंगे। क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा था?
ससुराल में भरा पूरा परिवार था। सास कर्मठ महिला थी। सारे परिवार पर चौकस नजर रखती थी। बड़े भैया बैंक में थे। बड़ी भाभी रमा बड़ी बहू का सारा दायित्व निभा रही थी। मंझले भैया व्यापारी थे। मंझली भाभी गर्भवती थी, फिर भी हर समय काम में लगी रहती थी। उसका भी पूरा ध्यान रखा जाता था। अभी दो ही महीने हुए थे, इस घर में आए। पता नहीं क्यों, अपनी जेठानियों के साथ वह सामंजस्य नहीं बैठा पा रही थी। दोनों भाभियां हर काम को जिस फुर्ती से अंजाम देती, उसे काम समझने में ही आधा वक्त निकल जाता। लेकिन इसके लिए उसे किसी ने कभी नहीं टोका। पता नहीं क्यों, बार-बार उसे सुबह बड़ी भाभी का जल्दी से उसके कमरे से निकलना याद आ रहा था। लाख ना चाह कर भी वह उन्हें शक के दायरे में ले ही आई। शाम तक उसका चेहरा उतर चुका था। वह पूरे घर की तलाशी तो नहीं ले सकती, दोनों भाभियों से पूछ-पूछ कर थक चुकी थी, वह बताती भी तो क्या?
शाम को मांजी बाजार चली गई। दोनों भाई अभी लौटे नहीं थे। मंझली भाभी को डॉक्टर के पास जाना था, पर उसे भी अकेला नहीं छोड़ सकते थे।
वह घर में कुछ देर अकेली रहेगी, यह जानकर शक़ का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा। उसने जोर देकर कहा, “मैं अकेली कहां हूं। गुड्डू तो है ना! मांजी भी आती होगी।
किसी तरह से उनको भेजकर तीन साल के गुड्डू को गोद में उठाए उसने मेनडोर अच्छी तरह से बंद कर लिया, फिर कार्टून लगा कर वह अपने खोज अभियान में जुट गई। यहांँ तक कि बड़ी भाभी की तिजोरी चेक करने में भी उसके हाथ नहीं काँपे। सारी चाबियां मांजी के पास रहती थी और माजी अपनी चाबियां कहांँ रखती है यह तो तीनों देशों के बहुओं को ही मालूम था। “हार” नहीं मिलना था, सो नहीं मिला। अब रोने के सिवा और कुछ कर भी नहीं कर सकती थी। उसे चिंता इस बात की थी कि ससुराल में भी शादी पड़ी थी और मांजी ने एक महीने पहले ही घोषणा कर दी थी कि तीनों बहुए अपना-अपना “सोने का हार” पहनेंगी। तभी कॉलबेल की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी। दोनों भाभियां लौट आई थी।
बड़ी भाभी ने घुसते ही उसका हाथ पकड़ा और सीधे अपने कमरे के पलंग पर लाकर बैठा दिया। बिना किसी भूमिका से पूछा, “अर्चना! क्या बात है? क्या खोया है? सुबह से कुछ ढूंढ रही हो?”
अब छुपाने से कोई लाभ नहीं था। अर्चना ने रोते हुए सारी घटना उन्हें सुना दी। सुनकर चेहरे तो उनके भी उतर गए, लेकिन उसे शांत कर दोनों ही सोचने लगी।
उधर अर्चना सोच रही थी। अभी भाषण होगा फिर नसीहत दी जाएगी और मांजी के आने के बाद शिकायत होगी। वह और जोर से रोने लगी। उसे अभी भी बड़ी भाभी पर ही शक था।
तभी मंझली भाभी ने कहा, “सबसे पहले शादी वाले दिन व्यवस्था करनी होगी। उसके बाद मां जी कई दिनों तक जिक्र नहीं करेगी और तब तक कोई व्यवस्था हो जाएगी।” अगली सुबह तक दोनों ने हल ढूंढ़ लिया था। मंझली भाभी उसे अपना सोने का हार पहनने को दे रही थी। “लेकिन आप क्या पहनेंगी? अर्चना आश्चर्य से भर गई।
“अरे! मैं अभी इतनी भारी साड़ियां और गहने नहीं पहन पा रही हूं। मुझे उलझन होती है। मांजी को तो हम समझा लेंगे।” मंझली भाभी ने उसे समझाया।
पर वह जान रही थी कि उसे बचाने के लिए वे दोनों ऐसा कर रही है। मन का मैल धुल रहा था, जो आंखों के रास्ते बह रहा था। बड़ी भाभी ने आंचल से उसके आंसू पोंछते हुए कहा,” चल, तुझे एक अच्छी खबर सुनाती हूं। उस दिन तेरे कमरे की दराज में कुछ सामान रखा था, लेकिन ऐसी आपा-धापी हुई कि चाभी लेना ही भूल गई। हमने तेरे लिए कामदानी लहंगा लेकर आई थी। सोचा तेरी अलमारी में रख देंगे और तुझे सरप्राइस देंगे, लेकिन तुझे दुःखी देख हमने ही यह राज खोल दिया।”
शाम तक सब सामान्य हो चुका था। रात को संजीव लौट आया था। आते ही उसने अर्चना को खींचते हुए अपने कमरे में ले गया।

” क्या कर रहे हो संजीव?”
“पागल हो तुम मुझे कर दोगी।”
“ये देखो।” सचिन के हाथ में “सोने का हार” देख अर्चना स्तब्ध थी।
आज जब मीटिंग के लिए कपड़े निकाल रहा था, उसमें मिला। समझो मेरी हालत, ना होटल में छोड़ सकता था और ना साथ ले जा सकता था। किसी तरह कोट की जेब में रखकर सारा दिन गुजारा। चाहता तो तुम्हें बता सकता था, लेकिन सोचा देखूं तुम्हें कब याद आता है।”
अर्चना को याद ही ना रहा कि साथ ले गए बैगों में से एक तो सचिन अपने साथ लेकर गया था। बस उससे ये गलती हुई कि आते ही उसने “सोने का हार” यथास्थान नहीं रखा।
अर्चना सोच रही थी, कितना विष घुल गया था उसके मन में, पर वह खुश थी कि इस विष वृक्ष को उसने पनपने नहीं दिया। हार ढूंढ़ने में भले ही उसे सफलता नहीं मिली हो, पर अपनी दोनों दीदियों को उसने ढूढ़ लिया था, बस उनके चेहरे ही तो बदल गए थे।
हार हाथ में छिपाए रसोई की ओर बढ़ गई। आखिर उसे भी चिंतामुक्त जो करना था।

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