सिंदूरी पथ-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Sinduri Path

Hindi Story: पता नहीं नेहा को क्या हुआ है। इन दिनों वह बेहद तनाव ग्रस्त रहने लगी है। कभी किसी बात को सीधे तरीके से लेती ही नहीं। उसकी तबियत का ख्याल कर मयंक उसे डॉक्टर के पास लेकर आया। डॉक्टर ने सभी जरूरी ब्लड सैंपल कराने की सलाह दी। उसी दिन शाम को रिपोर्ट भी आ गई। वैसे तो सब ठीक था मगर थायराइड और कोलेस्ट्रॉल काफी बढ़ा हुआ था। नेहा के हाथों में रिपोर्ट्स आई तो वह विचार करने लगी कि अपनी स्वास्थ्य संबंधी अनियमितताओ को ठीक करने हेतु अवश्य प्रयास करेगी।
डॉक्टर ने कुछ दवाएं भी लिखीं थी जिसे उसने मयंक की ओर बढ़ाया। थोड़ी ही देर में मयंक दवाइयां लेकर वापस आया और सारा कुछ नेहा की गोद में ऐसे रख दिया जैसे नेहा की गोद भराई की रस्म हो रही हो। वैसे तो नेहा इतनी सी बात पर कभी कुछ नहीं कहती थी मगर एकदम से बिफर पड़ी।
“पहले ही मैंने रिपोर्ट्स संभाल रखा है। दवाओं का थैला तुम अपने साथ भी तो रख सकते थे..तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि तुम सारी जिम्मेदारियां मुझ पर डाल कर हमेशा उन्मुक्त रहो…?”
“मत रखो न! ये बात अच्छे से भी कह सकती थी..!”
“तुम्हें पता तो है कि अपने पर्स के अलावा कुछ भी ढोने में मुझे तकलीफ़ होती है…क्या मेरे मन की बात मेरे बोले बिना समझ पाते हो…और फिर ऐसा क्यों होता है कि तुम चाहे जितने विष उगलो मगर तुम्हें बस मिश्री घुली बातें ही सुनने को मिले..!”

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वह जैसे खुद ही कह और सुन रही थी। उसकी बातें अनसुनी कर मयंक अपने फ़ोन में खोया रहा तो जाने क्यों उसे समीर याद आ गया। कैसे वह उसके जरूरत की सारी चीज़ें अपने साथ लेकर चलता था और वह अपने आप में मस्त रहती थी। जबसे वह बीमार हुई है पता नहीं क्यों समीर याद आने लगा है। उसको याद करती वह बेहद चिड़चिड़ी भी हो गई है। पहले तो वह ऐसी नहीं थी। उसकी सहनशीलता ही तो उसकी सबसे बड़ी खूबी थी। भाई बहनों में बड़ी नेहा हमेशा से शांत और सुशील थी साथ ही बेहद कोमल मन की स्वामिनी भी। वैसे तो पढ़ाई में काफी होशियार थी मगर दुनियादारी में पूरी शून्य थी। पता नहीं किन ख्यालों में खोई रहती थी। उसके स्कूल के वे बच्चे जिन्हें कुछ पढ़ना समझना होता वे अक्सर उसके पास आते और नेहा के पढ़ाने पर खुश होकर परीक्षा में अच्छे अंकों से पास हो जाते। दरअसल नेहा को यही खुशी देता। अपनी पढ़ाई- लिखाई करना और अपने आसपास के सभी लोगों की मदद करना उसका पसंदीदा काम होता। गर्ल्स कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरी कर वह एमए करने विश्वविद्यालय आ गई तो उसकी लोकप्रियता हद से ज्यादा बढ़ने लगी। इस बात से माता- पिता चिंतित हो गए।

नब्बे के दशक में बिटिया का मिस फ्रेशर बनना और उसके पीछे लोगों की बढ़ती रुचि अच्छी बात थोड़े ही समझी जाती थी। सहपाठियों के साथ उसका व्यवहार सामान्य ही रहता मगर जाने क्यों उसे समीर अच्छा लगने लगा था। समीर सचमुच ठंडी हवा का झोंका था। उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही बहुत भला सा था। हमेशा जैसे किसी धुन में रहता था। नेहा ने उसके चेहरे पर सदा ही मुस्कान खेलता देखा था। जब अर्थशास्त्र विभाग पिकनिक के लिए गई तब भी समीर उसकी सीट के पीछे ही बैठा था। दोनों की नजरें मिली तो वह भी हंस पड़ी। हाँ! ये पहली बार था जब समीर की मुस्कान ने उसे अंदर तक गुदगुदा दिया था। कैसा लड़का है.. हर वक्त हँसता ही रहता है कभी उदास नहीं देखा। हाँ! सचमुच दुनिया की कड़ी धूप में ठंडी बयार सा वह जैसे सकारात्मकता का प्रतिरूप था।

उस रोज जब पिकनिक पर उसकी तबियत खराब हुई थी तो सबसे पहले भागकर दवा की दुकान से ग्लूकॉन डी लाकर पिलाने वाला वही तो था। शाम होते- होते उसकी तबियत ठीक भी हो गई थी। पापा जब बस स्टॉप पर आए और नेहा घर लौटने लगी तो समीर ने उसे पीछे से आवाज दी थी। समीर के हाथ में दवाओं का थैला देखकर पापा से न रहा गया था। वह सीधे पूछ बैठे,

“क्या तुम बहुत बीमार रहते हो जो इतनी सारी दवाएं साथ लेकर चलते हो..?”

“जी नहीं अंकल! ये दवाएं तो नेहा की है..रात में जरूरत पड़ सकती है इसलिए उसे दे रहा हूं!”
पापा के ये शब्द सुनकर भी समीर ने बिल्कुल बुरा नहीं माना बल्कि दवाएं थमाकर चुपचाप चला गया।
“पापा! उसका नाम समीर है। मेरा अच्छा मित्र है। सफ़र में धुएं के कारण मेरी तबियत बहुत खराब हो गई थी तो वह मेरे लिए दवाएं खरीदकर कर लाया और पूरे समय मेरा ख्याल रखता रहा। “
“ओह! ये तो अच्छी बात है मगर लड़कों से दोस्ती कोई अच्छी बात नहीं!”
उन्होंने अपना कड़क रुख दिखाया तो नेहा सकुचा गई। इस तरह महीनों बीत गए और जब फेयरवेल पार्टी हुई तो सबने ऑटोग्राफ बुक पर एक दूसरे से कुछ लिखवाना चाहा।
नेहा ने समीर के हाथों में अपनी ऑटोग्राफ बुक दी थी। जब समीर ने वापस किया तो वह लगभग भागती हुई घर आई। अपने कमरे का दरवाज़ा बंद कर जब ऑटोग्राफ बुक खोलकर पढ़ने लगी तो उसके होश उड़ गए।
पहले पन्ने पर लिखा था, “मेरी जीवनसंगिनी कैसी होगी?” दूसरे पर,”उसमें वे सारे गुण होने चाहिए जो तुम में हैं!” और तीसरे पन्ने पर “क्यों न वह तुम ही बनो!”
उसने उन पंक्तियों को कई बार पढ़ डाला। मन बल्लियों उछल रहा था। कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। ऐसा न था कि उसे समीर की चाहत का भान न था। उसके भलमनसाहत से भलीभांति वाकिफ थी मगर अब सबकुछ आंखों के सामने लिखित था। उसने एक तरह से विवाह का प्रस्ताव दे डाला था। नेहा के पास इन बातों का कोई जवाब नहीं था। हालांकि वह स्वयं भी उसे पसंद करती थी तो इंकार का प्रश्न ही नहीं उठता था।
मगर नब्बे के दशक में लड़कियों में स्वयं निर्णय लेने की क्षमता भी कहाँ होती थी। मन ही मन सोच – विचार करने लगी कि उसे क्या करना चाहिए। क्लास टॉपर तो वह था ही साथ ही सजातीय भी था। उसका परिवार भी बहुत अच्छा था। उसके तमाम गुण के साथ उसका सच्चरित्र होना एक अतिरिक्त विशेषता थी जो अक्सर नेहा को प्रभावित करती थी। पिछले दो सालों में उसे गलती से भी न छुआ था। उसकी यही शराफत तो नेहा के मन को छूती थी।
मगर वह अपने परिवार वालों से कैसे बात करे। उसे पता था कि पिता रूढ़िवादी हैं। पहले ही आँखों – आँखों में समीर को नाप चुके थे और किसी किस्म की दोस्ती में न पड़ने की सलाह भी दी चुके थे। अब बस माँ का ही सहारा था तो उसने बातों ही बातों में माँ से कहा,
” माँ! क्या पापा ने तुम्हारा ख्याल रखा है?”
“हां!”
“उन्होंने तुम्हारी मदद की है?”
“जितना कोई भी पति करता है उतनी तो की ही है..”
“उससे ज्यादा नहीं न?”
वह निरुत्तर थीं। नेहा ने उनका कष्ट देखा था। एक बच्चा पेट में दूसरा गोद में और फिर भी वह पति की शिकायत करने में संकोच कर रही थीं।
“माँ ! तुमने जो तकलीफ़ उठाई है वह मैं नहीं उठाना चाहती। मुझे त्याग की मूर्ति नहीं बनना है। मुझे तो ऐसा साथी चाहिए जो सच्चे मायने में सुख- दुख का भागीदार बने। ऐसा साथी नहीं चाहती जिसके सिंदूर की कीमत अपने जीवन की बलि देकर चुकानी पड़े।”
“क्या कह रही हो तुम? अपने पसंद से शादी करोगी? लड़का चुन लिया है तो हमारी जरूरत ही क्या है..?”
उन्होंने सारी बातें उसके पिता के कानों में डाल दीं और पिता ने अपने प्रेम का वास्ता देकर उसकी पसंद को नजरंदाज कर उसका विवाह मयंक से करा दिया। ऐसा नहीं था कि समीर ने उसे पाने की कोशिश नहीं की थी। उसने उसके पिता को बहुत समझाने की कोशिश की ताकि नेहा की खुशियों को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाए। मगर वही हुआ जो अक्सर इन मामलों में होता था। जब तक समीर अपने पैरों पर खड़ा होता उन्होंने ज़ोर जबरदस्ती कर मयंक के साथ उसका विवाह निपटा दिया।
यहीं से उसके संघर्ष की कहानी शुरू हुई थी। एक संघर्ष बाहर था तो दूसरा उसके अंदर था। विवाह हुआ था तो निभाना ही था। सबसे पहले उसने अपनी बातें मयंक को बता दीं ताकि वह किसी धोखे में न रहे। मयंक ने विवाह के पूर्व की कहानी को नजरंदाज किया और लापरवाही से इस विवाह को निभाने लगा। संस्कारों से बंधी नेहा एकतरफा रिश्ता निभाने के लिए मजबूर थी। पति ने सब जानने के बाद यही कहा था कि मन पर न सही पर तन पर उसका अधिकार है। सचमुच यह विवाह बस दैहिक था। जब इस अनमनस्क रिश्ते को निभाती नेहा थक चली तो अंततः अस्वस्थ हो गई। नेहा की बीमारी की खबर पाकर उसकी मां उसके पास आ गईं थीं। उनकी अनुभवी आंखों से उसकी चरमराई गृहस्थी छुप न सकी। उन्होंने ही तो उसे इस विवाह सूत्र में बांधा था। इसे सुचारू रूप से चलाने हेतु मयंक को समझने की बात सोची।
डॉक्टर के पास से लौटते हुए उन्होंने मयंक से कहा,
“नेहा ने एकतरफा निभाया है और आपको घर- गृहस्थी के काम से हमेशा स्वतंत्र रखा। जीवन से अकेली जूझती वह थक चुकी है। अब न संभाला तो टूट जाएगी। कम से कम अब तो उसको संभालिए। ऐसा न हो कि आपके सिंदूर की लाली उसके जीवन का बोझ बन जाए।”
पहली बार मयंक को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने वाकई नेहा पर कभी ध्यान ही नहीं दिया था। सास के सुझाव पर उसने अपनी जिम्मेदारियां निभानी शुरू कीं। कार में उसके छींकते ही एसी का स्विच ऑफ कर दिया। उसके हाथों से बैग लेकर डैशबोर्ड पर रख दिया। पिछले कई सालों में यह सब पहली बार हुआ। उसकी ओर स्नेहिल निगाहों से देखती नेहा में भी कुछ नर्मी आई तो एक दूसरे की छोटी- छोटी खुशियों का ख्याल रखता जोड़ा सिंदूरी पथ पर साथ चल पड़ा।