Story in Hindi: हाथ में चाय का कप और आरामदायक कुर्सी पर बॉलकनी में बैठी विमला चिड़ियों की चहचहाअट सुनते-सुनते न जाने कब अपने अतीत के पन्नों में सिमट गई उसको पता भी नहीं चला …….
“एक मासूम सी दस साल की लड़की गाँव में अपने माँ-पापा के साथ रहती थी। सुबह सवेरे-सवेरे उसके माँ-पापा एक बड़ी सी झाड़ू लेकर घर से निकल जाते थे। वह भी उनके साथ जाना चाहती थी क्योंकि चुलबुले स्वभाव की जो ठहरी! आखिर उसको सारी दुनिया की ख़बर भी रखनी थी। जिज्ञासु मन जैसा कि हर बच्चे का होता है, उसका भी था। वह भी जानना चाहती थी कि आखिर माँ-पापा क्या-क्या काम करते हैं और सुबह से शाम तक कहां रहते हैं? उसने मां से साथ चलने हेतु कई बार विनती भी की थी कि मां अकेले मुझे बहुत डर लगता है! आप भी मेरे साथ रूको नहीं तो मुझे अपने साथ ले चलो! परंतु मां कोई भी वजह बताकर हर बार समझा देती और वह मान लेती। एक दिन उसकी जिद़ के आगे माता- पिता नतमस्तक हो गए और उसे अपने साथ ले गए।
ठेकेदार जिसके नियंत्रण में वे दोनों काम करते थे, उसके घर की सफ़ाई भी उन्हीं को करनी होती थी। दोनों उसको एक कोने में बिठा काम पर लग गए। वह चुपचाप एक कोने में बैठी सब देखने लगी। उसने अपनी मां का हाथ बंटाने हेतु अपना हाथ आगे किया लेकिन मां ने मना कर दिया। यह सब वह ठेकेदार देख रहा था। उसका घूरना उसे बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। वह कभी मां को घूरता कभी उसे। उसकी यह आदत अब बर्दाश्त के बाहर हो चली। मां ने दूर से मुझे एक कोने में बैठने का इशारा किया और अपने काम में लग गई। लगातार मां मुझ पर नज़र टिकाए हुए थी। मैं चुपचाप बैठी सब तमाशा देख रही थी कि अचानक ठेकेदार मां के पास गया और कुछ कहने लगा। मां भयभीत निगाहों से मेरी तरफ देखने लगी और इशारे से मुझे समझा रही थी कि पल्लू मुंह तक ओढ़कर बैठ जा। दाल में कुछ काला है मुझे समझ आ रहा था। जैसे -तैसे दिन गुज़रा और हम घर आ गए।
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घर आकर मैंने मां से पूछा “मां वह आपसे क्या कह रहा था?”
“कुछ नहीं बेटा? ये इन पैसे वालों को लगता है कि हम छोटे लोग बिके हुए हैं।” कह मां ने ठंडी सांस ली और काम में लग गईं।
“मां बताओ न क्या कह रहा था?”वह मां से हट करने लगी…
“क्या करेगी जानकर? अभी छोटी है अपनी जिंदगी जी ले नहीं तो ये नरभक्षी हमें नोंचकर खा जाएंगे।”
अब बच्ची को कुछ समझ आ रहा था क्योंकि मां अक्सर उसे इन सबकी नज़रों से बचाती थी। उसने मां की बात को बल देते हुए हां में सर हिलाया और बालों को झाड़ती हुई मां की मदद करने लग गई।
मन ही मन वह बेचैन थी और उस ठेकेदार को सबक़ सिखाने की तरकीब ढूंढने लगी क्योंकि ठेकेदार का यह बर्ताव उसे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा था कि वह एक तरफ़ तो कहता है कि मुझसे दूर रहकर बात करो जबकि दूसरी तरफ घूर-घूर कर माँ और उसे देख रहा था। उस समय भी बहुत बुरा लग रहा था और इस समय भी। जब ग़लती से हाथ किसी सामान को लग गया तो माँ-पापा को बहुत जोर से डाँटा था उसने।
“कितनी बार कहा है कि इसे साथ न लाया करो? मैं तुम्हें काम के पैसे तो देता हूँ। यहाँ कोई आश्रम थोड़े ही न खोल रखा है.” कह मां को घूरने लगा ।
‘इस बार माफ़ कर दो साहेब बच्ची है।’ कहकर माँ-पापा कैसे उसके पैरों पर अपना माथा रगड़ने लगे थे..
“दूर हो जाओ अछूत कहीं के, मुझे भी अशुद्ध कर दोगे।” कहकर पीछे हट गया, लेकिन घूरना अभी भी चालू था. ..
उस समय कैसे मन झटपटा रहा था उसकी आँखें नोचने के लिए पर! माँ-पापा की ख़ातिर ख़ून का घूँट पीकर रह गई थी।
दिन पर दिन बीतते जा रहे थे। समय अपनी गति बनाए हुए मुंह खोले अपनी जगह खड़ा था। कुछ महीनों बाद गाँव में एक कलेक्टर साहिबा जी आती हैं। वे चारों ओर घूम-घूमकर सफ़ाई का ज़ायजा लेती हैं। माँ-पापा को भी बुलाया जाता है। वह भी उनसे मिलने के लिए मां -पापा के साथ चल दी। परंतु उसे उनके सामने आने की सख़्त मनाई थी। तो वह पीछे दीवार से झाँक-झाँक कर सब देख पा रही थी। पता नहीं कब कलेक्टर साहिबा की नज़र उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे अपने पास आने का इशारा किया। वह डरी-सहमी सी सर झुकाकर उनके सामने दूरी बनाकर खड़ी हो गई।
“मेरे पास आओ वहाँ क्यों खड़ी हो? हम तुम्हें मारेंगे थोड़े ही न।” कहकर वे कलक्टर साहिबा उसके पास आती हैं और सर पर हाथ फेरती हैं।
“कितनी प्यारी बच्ची है! बेटे तुम स्कूल क्यों नहीं जाती हो?” उससे पूछती हैं।
पहली बार किसी इतने बड़े व्यक्ति ने उससे इतने प्यार से बात की थी। मुँह पर ताला लगना तो लाज़मी था। उसके मुख से कोई शब्द भी नहीं फूट पा रहा था।
“हम अछूत जो ठहरे!” समय को भांपते हुए माँ तुरंत बोल पड़ी..
“आज यह शब्द सुनने में भी अच्छा नहीं लगता है क्योंकि सरकार ने लड़कियों की पढ़ाई मुफ़्त कर दी है और स्कूल में पढ़ने वाली लड़कियों को पैसा भी देती है।” कहकर उसका हाथ पकड़कर पास की कुर्सी पर बैठने का इशारा करती हैं।
कलक्टर साहिबा की तरफ से प्रश्नों की बौछार होने लगती है,,…
“क्या तुम आकाश से ऊपर देखना नहीं चाहती?” वे पूछती हैं।
“काहे सपने दिखावत हो साहिबा! हम तो नीची जात के ठहरे! हम इतना ऊँचा ख़्वाब नहीं देख सकत।” कहकर माँ चुप हो जाती हैं और मेरा हाथ खींच लेती हैं।
“क्यों नहीं? आज पूरे भारत में सभी को हक़ है ऊँचे सपने देखने का, देखना यह भी देखेगी और पूरा भी करेगी।” कहकर कलक्टर साहिबा फिर उसका हाथ अपने हाथ में लेती हैं।
उनके हाथ का स्पर्श मानों उसे एक नई दिशा दिखा रहा था।
अगले दिन से उसने स्कूल जाना शुरू कर दिया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।”
तभी फोन की आवाज़… ‘टिऱन टिऱन’ उसके कानों में पड़ती है और वह अतीत के पन्नों से तुरंत बाहर निकल आती है।
फ़ोन सुनते ही अपनी सीट से खड़ी हो जाती है। तैयार होकर बाहर आती है, दो पुलिस ऑफ़िसर ज़ोर से उसे सैल्यूट मारते हैं क्योंकि वह आज़ एक सफल पी सी एस आफीसर जो बन गई थी । आज़ हर व्यक्ति उसे सलाम ठोकता था, उसमें वह ठेकेदार भी था। वह फुर्ती से लाल बत्ती की गाड़ी में बैठ जाती है और अपने गांव का दौरा करने निकल पड़ती है लेकिन अपने जीवन का वह स्वर्णिम पल कभी नहीं भूलती जब उसे यह पहला उपहार यानि पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था।
