खुशियों का थैला-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Khushiyon ka Thela

Story in Hindi: इसमें उपहार होता बड़ा अलबेला है…
यह पंक्ति यथार्थ ही लगती है कई बार मुझे। जब बहुत ही परेशानी में दिन कट रहे होते हैं उसमें यदि अचानक कहीं से उपहार आ जाए जिसकी आपको कभी उम्मीद ही ना हो तो सच वो पल हमेशा याद रह जाता है।
मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ इस साल के फरवरी महीने में एक तोहफे ने मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा दिया। जब जब उसे देखती हूं उसका इस्तेमाल करती हूं तो खुद पर गर्व की अनुभूति होती है।
इस उपहार की कीमत मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती बल्कि यह किसने दिया है और कहां से मिला है मुझे, यह मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण है।
एक प्रतिष्ठित पत्रिका गृहलक्ष्मी की तरफ से मिला मेरा यह पहला उपहार, मेरे लिए बहुत ही अनमोल है और इसे मैं अपने मरते दम तक संभाल कर रखूंगी।
वो क्षण मैं कभी नहीं भूल सकती जब सपना झा जी का फोन आया था। उस समय मैं रसोई घर में काम कर रही थी मेरे दोनों हाथ में समान था। बेटा रोटी और पानी के लिए आवाज लगा रहा था और यहां मेरे फोन की रिंगटोन मुझे अपनी तरफ खींच रही थी। रैक पर रखे हुए फोन को उचकते हुए देखा, ट्रूकॉलर पर जो नाम आ रहा था वो मेरे लिए नया था और उस समय फोन उठाना मुश्किल था।
जब तक रोटियां सेंक रही थी, मन में बार-बार यही आ रहा था कौन मुझे फोन कर रहा है। सपना झा कौन हैं और आखिर मुझे फोन क्यों कर रहीं हैं, मैं अपनी याददाश्त पर जोर डाल रही थी।

जब दोनों बेटों को खाना दे दिया तब जाकर मैंने अपना फोन उठाया। कहीं स्पैम कॉल तो नहीं है मन में एक सवाल उठा पर जब फिर फोन आया तो मैंने तुरंत उठा लिया। दूसरी तरफ से आवाज आई…
” मैं गृहलक्ष्मी से सपना झा बोल रही हूं, मैम आप जनवरी की कहानी प्रतियोगिता में प्रथम आईं हैं। आपको बहुत बहुत बधाई।”

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उन्होंने मुझसे मेरा फोटो, परिचय और पोस्टल एड्रेस मांगा।
मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैंने पहली बार गृहलक्ष्मी पत्रिका के लिए कुछ लिखा और मेरी वो कहानी ‘छड़ी’ जो ‘वृद्धावस्था में जीवनसाथी का साथ कितना जरूरी है’ विषय पर लिखी थी , उस कहानी को प्रथम स्थान मिला।

मुझे मेरी एक लेखिका सहेली ‘सीमा सहाय प्रियदर्शिनी’ जी ने एक लिंक भेजा था और बड़ा ही प्रोत्साहित किया था कविता जी लिख कर भेजिए।
मैंने पहले तो हंँसी मजाक में ही उनकी बात को लिया। गृहलक्ष्मी जैसी बड़ी पत्रिका के लिए मुझ जैसी छोटी लेखिका क्या लिख पाएगी।

हमारे घर में मेरी दीदी और मम्मी को हमेशा गृहलक्ष्मी मैगजीन पढ़ते देखती आईं हूंँ, पापा को लिखने पढ़ने का शौक था तो अस्सी-नब्बे के दशक में छपने वाली हर तरह की पत्रिकाएं हमारे घर में मिल ही जातीं थीं।

घर में हर महीने गृहलक्ष्मी मैगजीन भी आया करती थी, मैं भी इसमें छपने वाली कहानियां छुपते छुपाते ही सही पढ़ती जरूर थी चाहे मम्मी कितना भी डांटती कि कोर्स की किताब पढ़ लें इसे पढ़ने से पास नहीं होगी।

जब भी कहानी पढ़ती और उसके लेखक का नाम पढ़ती तो लगता यह लोग इतना अच्छा कैसे लिखते हैं। अपने स्नातकोत्तर तक कभी नहीं सोचा था कि मैं भी कहानी कविताएं लिख सकती हूं, बस डायरी और चिट्ठियां लिखा करती थी जो कि मेरी सबसे बड़ी ताकत थी।

अपने दिल की सभी बातों को पन्नों पर जब तक उतार नहीं देती तब तक चैन नहीं मिलता था मुझे। शायद इन्हीं आदतों ने कोविड के पहले लॉकडाउन में जब मुझे ओनलाइन मंच पर लिखने का मौका दिखा तो मैंने भी लिखना शुरू कर दिया।

इस साल के जनवरी महीने में जब सीमा जी ने बताया गृहलक्ष्मी की प्रतियोगिता के बारे में उस समय मैं थोड़ा परेशान चल रही थी, परिवार की जिम्मेदारी और कार्यभार अत्यधिक बढ़ गया था। बड़े जेठ जी के हॉस्पिटलाइज्ड होने और छोटी जेठानी के हाथ टूटने के कारण। दिन भर रसोई घर में ही समय बीतता था। लेखन का समय निकालना बहुत ही मुश्किल था। फिर भी मैंने कोशिश की जैसे ही थोड़ा सा भी समय मिलता एक दो लाइन लिख लेती।
कहानी की रूपरेखा तैयार थी क्योंकि जेठानी जी को देखती थी हॉस्पिटल के चक्कर काटते और जेठ जी के साथ कई रात अस्पताल में ही गुजारते हुए।

जैसे ही मेरी छड़ी वाली कहानी पूरी हुई तो मैंने उस लिंक में आए मेल पर मेल कर दिया। वो विषय ही मुझे बहुत अच्छा लगा था, बुढ़ापे में जीवनसाथी का साथ कितना जरूरी। पर मेरी कहानी किसी को पसंद आएगी और वह भी पहला स्थान पाएगी इसकी तो उम्मीद सपने में भी नहीं की थी।

जब मुझे गृहलक्ष्मी की तरफ से आया पार्सल मिला मेरे परिवार वाले भी बहुत खुश हो रहे थे। मैं कहानी लिखती हूंँ उस दिन पहली बार उन्हें पता चला। जब पार्सल खोला तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। इतना खूबसूरत लेदर का बैग जिसे देखकर मैं उछल पड़ी। ऐसा बैग लेने का मैं बहुत सालों से सोच रही थी पर खुद के लिए चार हजार का बैग खरीदना अभी मैं सोच नहीं सकती थी।

वैसे सच कहूं तो मुझे मिले इस उपहार पर घर में कई लोगों की नजर थी। उन्हें लगा कि इसके तो किसी काम का है नहीं क्योंकि ये तो कहीं बाहर जाती नहीं है तो हमें ही दे देगी। पर यह मुझे अब तक का मिला सबसे अनमोल उपहार था जिसे मैं किसी को नहीं देने वाली।

मुझे मेरी देवरानी, जो कि सरकारी नौकरी करती हैं ने कटाक्ष भरे शब्दों में कहा था, ” दीदी आप सब्जी लेने जाते हैं ना तो अब सब्जी वाला थैला मत ले जाइएगा । अब से इसी में लाया कीजिएगा आलू प्याज।” उनकी उस कुटिल मुस्कान से मैं जान गई कि वो क्या कहना चाहती हैं।

उस बैग में मैंने अपने जरूरी पेपर्स और कार्ड्स रख दिए । इस्तेमाल करने का मौका नहीं मिल रहा था फिर भी लगभग रोज ही उसे किसी ना किसी बहाने अपनी अलमारी से निकालती और टांग कर देखती।

मेरी कहानी ‘छड़ी’ के बाद से मुझे गृहलक्ष्मी से जुड़ने का मौका मिला और जीवन में एक नई राह दिखी। तब से लगातार गृहलक्ष्मी से मिलने वाले असाइनमेंट वाली कहानियां लिख रहीं हूं और मैगजीन भी रेगुलर आ ही रही है तो हर महीने चिट्ठी आई है कॉलम के लिए पत्र लिखती हूं।

नवंबर के माह में मेरे पत्र को पुरस्कृत किया गया और मुझे गृहलक्ष्मी की तरफ से दूसरा उपहार ब्युटी गिफ्ट हैंपर मिला।
यह तोहफे मेरे लिए अनमोल हैं।

पिछले हफ्ते अचानक ही अपनी ननद के यहां जमशेदपुर जाने का प्रोग्राम बना, आलमारी से झांकता मेरा बैग भी खुशी से उछल पड़ा है ऐसा लगा। मेरे साथ साथ उसे भी बाहर घूमने का मौका मिला।

वहीं से एक दिन अपनी बुआ के बेटे के घर गई, उसी बैग को कंधे पर टांगकर। भाई भाभी और बच्चों के लिए फल मिठाई जब उस बैग में रखी तो ननद ने कहा भी भाभी अलग थैले में ले लीजिए इतने सुंदर बैग में क्यों रख रहीं हैं। उन्हें कैसे कहती ये खुशियों का थैला है मेरा।
मायके जाने की खुशी क्या होती है वो वहीं जानता है जो वर्षों बाद जा रहा हो। वहां भी सबको यह बताते वक्त बहुत अच्छा महसूस कर रही थी कि यह बैग मुझे मेरी लिखी कहानी के प्रथम आने पर उपहार स्वरूप मिला है। वहां से लौटते वक्त भतीजे ने अपनी एक सांझा संकलन की पुस्तक दी। भतीजे से सालों बाद मिली, अच्छी किताबें पढ़ना तो मेरी कमजोरी रही है, वो भी भतीजे विक्रम आदित्य सिंह का लिखा हास्य व्यंग पर लेख था। तो बस उस उपहार को अपने अनमोल उपहार यानी गृहलक्ष्मी से मिले बैग में रखा और थोड़ा घूमने फिरने के बाद ननद के घर आई फिर अगले दिन वहीं बैग हाथ में लटकाए अपने ससुराल अपने घर रांची आ गई। बैग वापस अलमारी की शोभा बढ़ा रहा है और शायद कल फिर कहीं मुझे ले जाए।

कहीं से मिले पैसे तुरंत खत्म हो जाते हैं पर इस तरह का मिला उपहार हमेशा साथ निभाता है।
अपने इस लेख के माध्यम से मैं सबसे पहले अपनी प्रिय सखी सीमा सहाय प्रियदर्शिनी जी को धन्यवाद करती हूं जिन्होंने मुझे गृहलक्ष्मी से जुड़ने का रास्ता दिखाया और सपना जी से मिलवाया। उन्होंने हमेशा मार्गदर्शन किया मेरा। अभी तक सपना झा जी से मिलने का सुअवसर प्राप्त नहीं हुआ है पर शायद जल्द ही यह मौका भी मिले तो अपने इस उपहार में मिले बैग को लेकर दिल्ली आऊं। मैं पूरी गृहलक्ष्मी टीम की बहुत बहुत आभारी हूं अपने इस अनमोल उपहार के लिए और मेरी लिखी कहानियां और कविताएं आपके वेबसाइट पर प्रकाशित देख कर जो खुशी होती है उसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल है।।