Hindi Kahani: सूत जी ने एक आख्यान सुनाते हुए कहा कि पुराने समय में एक रुधिर नाम का राक्षस था । उसने एक बार वसिष्ठ मुनि के पुत्र शक्ति का भक्षण कर लिया था। यह राक्षस विश्वामित्र के द्वारा प्रेरित किया गया था। जब वसिष्ठ को यह ज्ञात हुआ कि उनका परम श्रेष्ठ तथा धर्मज्ञ पुत्र अपने भाइयों सहित रुधिर राक्षस द्वारा भक्षण कर लिया गया है तो उन्हें आश्चर्य हुआ तो वह पुत्र के लिए विलाप करने लगे और रुन्धती सहित परम दुखी होकर भूमि पर गिर पड़े । उन्हें लगा कि उनका सम्पूर्ण कुल ही नष्ट हो गया ।
तब उन्होंने मरने का निश्चय किया । वह शक्ति ही सब में ज्येष्ठ था । मुनि की पुत्र-वधू ने उनका निश्चय जानकर उन्हें धरती पर गिरते हुए अधर ही में रोक लिया और अपने तथा अपने पुत्र की रक्षा की याचना की क्योंकि उसके गर्भ में वसिष्ठ का पौत्र पनप रहा था । तभी कमल नाभि से ब्रह्मा के समान मुनि पुत्र- वधू के गर्भ से कुमार द्वारा वेद की ऋचा का उच्चार हुआ, हतप्रभ वसिष्ठ को देख अंतरिक्ष से देव विष्णु ने मुनि से कहा, मुनिश्वर! यह गर्भ में स्थित तुम्हारा पौत्र, शक्ति का आत्मज मेरे समान ही बहुत शक्तिशाली हैं । अत: तुम पुत्र-मरण के शोक से मुक्त होकर इसके जन्म का स्वागत करो । यह बालक रुद्र-भक्त तुम्हारे कुल को प्रकाशित करेगा । ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्हित हो गए।
उस परम परिव्रता शक्ति पानी अदृश्यन्ती ने बड़ी कठिनाई से अपने उदरस्थ गर्भ का पालन करते हुए अन्त में शक्तिमान पुत्र को जन्म दिया । यही पराशर कहलाए जो विष्णु के समान कांति वाले थे । भास्कर आदित्यों की भांति दीप्तिमान था । इस अवसर पर सभी देवों, ब्रह्मवादियों मुनियों, पितामहों के समुदायों ने परम प्रसन्न होकर उसके आगमन का स्वागत किया। आश्रमवासी भी खुशी से नाच उठे । उनके अवतरण से ऐसा लगा मानो मेघों की घटा से निकलकर सूर्य ने अपनी प्रभा का आकाश फैला दिया हो । शक्ति-पत्नी अदृश्यन्ती को पुत्र पराशर के जन्म पर पुत्र-मुख देखकर सुख भी हुआ तथा पति की स्मृति से दुःख भी हुआ । वसिष्ठ ने उद्बोधन से उसने दुःख का त्याग करके भली-भांति पुत्र का पालन किया ।
बालक पराशर ने कुछ बड़े होकर माया के अन्तमरणीय रूप को देखकर इसका कारण जानना चाहा और पूछा कि उसके पिता कहां हैं! जब मां ने उन्हें यह विदित हुआ कि उसके पिता को राक्षस रुचिर ने ग्रास बना लिया तो पराशर ने माता से कहा-हे माता! मैं चराचर त्रैलोक्य को दग्ध करके देव भगवान् भव का अभ्यर्चन करके एक क्षण में ही तुम्हें पिता के दर्शन करा देता हूं। तो उसकी माता को आश्चर्य हुआ । मुनि के कथन पर उसने त्रैलोक्य को दुग्ध करने का विचार छोड़कर राक्षसों के नाश के लिए शिव अर्चन प्रारम्भ कर दिया । भव के प्रताप से उसे दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई । जिसके कारण वह साक्षात् भगवान् रुद्र के दर्शन कर सका । पराशर ने भगवान् रुद्र के चरणों में नत होकर अपना जीवन सफल मानते हुए कहा-कि उससे बड़ा बड़भागी और कौन होगा । उसने तत्काल ही दिक् लोक में स्थित पिता को अपने भाइयों सहित देखा । स्वयं शक्ति ने भी प्रभु-कृपा से पुत्र के दर्शन किए । उसने अपने पिता वसिष्ठ और पत्नी अदृश्यन्ती को भी देखा । माता अरुन्धती के भी दर्शन किए। उन्हें प्रणाम किया और पुत्र को मां अरुन्धती की रक्षा का आदेश दिया । पराशर ने अपने पिता को दिया वचन पूरा किया। शिव का स्तवन किया । भगवान् भी उस पर अपनी पूर्ण कृपा करके अन्तर्हित हो गए।
पराशर ने मंत्र की ने मंत्र की कृपा से राक्षसों के कुल का समूल दाह कर दिया और मुनि वसिष्ठ के आदेश पर राक्षसों के दाह-सूत्र को समाप्त कर दिया और मुनि पुलस्त्य से प्रकाशित होकर वैष्णव पुराण की रचना की । यह परम शोभन सहिता पुराणों में चौथे क्रम में आती है ।
अत: हे द्विजोत्तमों मंत्र! विधि को जानकर ही शिव-लिंग का यजन करना चाहिए। कोई भी देव कृपा से पूर्णतया समन्धित शिव के समान नहीं हैं। भगवान् त्र्यम्बक शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं। अत: उन्हीं का एकमात्र पूजन श्रेयस्कर है। सभी पापों से मुक्ति दिलाता है। इसलिए सर्वथा सब जगह व्यक्ति को अहिंसा का ही पालन करना चाहिए। मन, वचन कर्म से जो ध्यक्ति अहिंसक होता है उसकी सभी रक्षा करते हैं। दया का मार्ग ही उत्तम मार्ग है तथा किसी वेद के पारंगत विद्वान को सम्पूर्ण त्रैलोक्य के दान से जो फल प्राप्त होता है, उससे भी करोड़ गुना फल अहिंसा वृत्ति को मिलता है। उसी को सद्गति प्राप्त होती है। अत: है द्विजश्रेष्ठों!व्यक्ति को कभी हिंसा नहीं करनी चाहिए। निषिद्ध वस्तुओं के निषेध से समस्त कर्मों को विशेष रूप से त्यागकर ब्रह्मवादी लोग संन्यस्त हो जाते हैं। स्त्रियां पापरता भी हों तो भी सदा पूज्य होती हैं। इनको नहीं मारना चाहिए। एक स्त्री का वध ब्रह्महत्या के समान होता है। जो वेद के विपरीत आचरण करते हैं,वे पाखण्डी कहे जाते हैं। द्विजातियों को उनसे सभाषण नहीं करनी चाहिए।
यदि कहीं पाखण्डा व्यक्ति का भूल से दर्शन हो जाए तो उसका प्रायश्चित करना चाहिए। लेकिन पाखण्डी वध करने के योग्य नहीं होता। वह तो स्वयं ही प्रभु के क्रोध से दुःख पाता है। जो परमेष्ठी शिव के भक्त होते है। वे बड़े ही भाग्यशाली और प्रभु का सायुज्य पाने के अधिकारी होते हैं।
ऐसे कृपालु त्र्यम्बक देव की सम्पूर्ण सिद्धियों के लिए किस योग के मार्ग से ध्यान किया जाता है। यह बताते हुए सूतजी ने कहा-कि यही प्रश्न एक बार महादेव ने शैया पर एक ही साथ स्थित होकर गिरजा जगदम्बा ने जब उनसे पूछा था, कि योग कितने प्रकार का होता है और वह कैसा है, जो योग परम दिव्य ज्ञान और मोक्ष को देने वाला है और जीवात्मा को मुक्त करता है। भगवान् नील लोहित ने उन्हें बताया कि योग पांच प्रकार के होते हैं। पहला मंत्र योग कहलाता है, जिसमें ध्यान से युक्त जप करने का अभ्यास किया जाता है। दूसरा स्पर्श योग-इसमें विशेष रूप से सुषुम्ता नाड़ी की वृद्धि होती है तथा समस्त और व्यस्त योग से वायु का प्रधान रूप से जप किया जाता है। इसमें बल के स्थित करने की किया होती है। जिसके धारण आदि और तेज का योग होता है। भीतर और बाहर मन में विलसमान भावों का संहार करने वाला भाव योग कहा गया है । यह तीसरा योग-चित्त की शुद्धि करने वाला होता है। चौथा अभाव योग-सभी जड़ चेतन जगत् से पूर्ण सम्पूर्ण शून्य विश्व रूप का भेदाभास से चिन्तनीय यह होगा चित्त के निर्वाण करने वाला होता है। पांचवा महायोग-रूप से शून्य, अद्वितीय, प्रतियों के द्वारा भी जिसका स्वरूप निर्देश नहीं किया जा सकता। ऐसा अप्रमेय, सर्वदा प्रकाशमान, सर्वव्यापी, आत्मा की विशिष्ट सत्ता का आभास कराने वाला सम्पूर्ण चित्तों को उत्थापित करने वाला महायोग ही है। ये सभी योग अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों के प्रदान करने वाले होते हैं। योग ज्ञान को पूरी तरह परखे गए शिष्य को ही देना चाहिए।
यदि भूल से भी यह किसी कुपात्र की दिया जाए तो देने वाला दण्ड का भागी होता है। अतएव निष्पाप को ही यह विद्या देय है। यह योग मार्ग सम्पूर्ण वेद और आगम स्वरूप कमलों का पराग है। योगाभ्यासी पुरुष इस योगात्मक अमृत तुल्य पराग का सेवन करके ही समस्त बंधनों से छुटकारा पाते है। इसलिए यह पाशुपत योग सर्वश्रेष्ठ ऐश्वर्य कहा जाता है। यही जानने योग्य है। अतएव हे राजा अम्बरीष! तुम भी स्वयंभू की परामूर्ति से मन लगाते हुए योगाभ्यास में रत हो जाओ। ऐसा नन्दिकेश्वर का, राजा अम्बरीष को कहा गया उपदेश सुनाते हुए सूतजी ने बताया कि, योगेश्वर की निष्ठा ही सर्वोपरि है। शान्त मूर्ति भगवान् शिव को नमस्कार करते हुए सूतजी ने कहा कि जो कोई भी लिंग पुराण का आदि से अन्त तक श्रद्धापूर्वक श्रवण और पाठन करता है। वह निश्चय ही परमगति को प्राप्त होता है। तप से, यज्ञों से, दान देने से जो गति होती है, वही इस महालिंग पुराण के श्रवण से होती है। शाश्वती शिव की भक्ति और निवृत्ति ही इसका शुद्ध फल है। इस प्रकार रोमहर्षण जी द्वारा भगवान् विरूपाक्ष के लिंग पुराण के प्रवचन से सभी ऋषि कृतकृत्य हो गए।
