Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है-मान्धाता के वंश में त्रय्यारुण नामक एक प्रतापी राजा हुए । वे अयोध्या के राजा थे । उनका एक पुत्र था, जिसका नाम सत्यव्रत था । उसमें विपरीत गुण विद्यमान थे । वह अति स्वेच्छाचारी, कामी, लोभी, उद्दण्ड और मूर्ख व्यक्ति था । एक बार उसने किसी की पत्नी का हरण कर लिया । उसके इस कार्य से रुष्ट होकर त्रय्यारुण ने उसे महल से निकाल दिया । अब वह वन में भ्रमण करते हुए ऋषि-मुनियों के साथ दुर्व्यवहार करने लगा । अपनी उद्दण्डता से उसने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में भी उत्पात मचा दिया ।
एक दिन महर्षि वसिष्ठ ने क्रुद्ध होकर उसे शाप दिया – “दुष्ट ! तूने अपनी उद्दण्डता और नीच कर्मों से पवित्र तपोभूमि को नष्ट कर दिया । उच्च कुल में उत्पन्न होने के बाद भी तूने पैशाचिक व्यवहार किया । अतः मैं तुझे शाप देता हूँ कि आज से तू पिशाच हो जा ।”
शाप के प्रभाव से सत्यव्रत में पिशाच के लक्षण उत्पन्न हो गए । अपनी दुर्दशा देखकर वह भयभीत हो गया और दु:खी होकर वन-वन भटकने लगा । उसे दु:खी देखकर एक दयालु मुनिकुमार ने उसे भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए कठोर तप करने का परामर्श दिया । सत्यव्रत ने कठोर तपस्या आरम्भ कर दी । जब मंत्र-जप के बाद हवन करने का समय आया तब वह ऋषियों के पास गया और उनसे विनती करते हुए बोला – “हे कृपालुओं ! मैं आपकी शरण में हूँ । आप समस्त महानुभाव मेरे यज्ञ में सम्मिलित होने की कृपा कीजिए । आप वेदों के ज्ञाता और परम कृपालु हैं । अतः मेरे यज्ञ को सम्पन्न कराने की कृपा कीजिए ।”
तब ऋषिगण उसे दुत्कारते हुए बोले – “पापी सत्यव्रत ! महर्षि वसिष्ठ के शाप के प्रभाव से तुम पिशाच हो गए हो । वेदों पर तुम्हारा अधिकार नहीं रह गया है । इसलिए तुम यज्ञ नहीं करा सकते, क्योंकि पैशाचिक प्रवृत्ति वाला प्राणी सभी लोकों में निंदनीय समझा जाता है ।” ऋषियों की बात सुनकर सत्यव्रत अत्यंत दुखी हो गया । उसने प्राण त्यागने का निश्चय करके एक विशाल चिता तैयार की । तत्पश्चात् भगवान् विष्णु का स्मरण कर अग्नि में प्रवेश करने लगा । तभी आकाश में एक दिव्य तेज फैल गया । शंख बज उठे और वातावरण में भगवान् विष्णु की जय-जयकार गूँज उठी । चतुर्भुजधारी श्रीविष्णु वहाँ साक्षात् प्रकट हुए थे ।
भगवान् विष्णु को देख सत्यव्रत उनकी स्तुति करने लगा । तब श्रीहरि बोले – “वत्स ! इस प्रकार प्राण त्यागना कायरता है । तुम इस इच्छा को त्याग दो । मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हूँ और तुम्हें वर देता हूँ कि तुम्हारा चाण्डाल स्वरूप नष्ट हो जाए और तुम्हारी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण हों । तुम्हारे पिता अब वृद्ध हो चुके हैं । उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है । अतः तुम अपने घर लौट जाओ ।” इस प्रकार सत्यव्रत को वरदान देकर श्रीविष्णु अन्तर्धान हो गए। भगवान् विष्णु के दर्शन से सत्यव्रत के सभी पैशाचिक अवगुण तत्सण नष्ट हो गए । उसके सभी पाप धुल गए और शरीर दिव्य रूप से शोभा पाने लगा ।
भगवान् विष्णु की प्रेरणा से अयोध्या में एक दिन देवर्षि नारद पधारे । उन्होंने सत्यव्रत के विषय में शुरु से अंत तक सारी बातें त्रज्यारुण को बताई । सत्यव्रत की कठिन तपस्या और भगवान् विष्णु के प्रसन्न होकर वर देने की बात सुनकर त्रय्यारुण बड़े हर्षित हुए । उन्होंने उसी क्षण उसे वापस लाने के लिए अपने कुछ मंत्रियों को वन में भेजा । उसके लौटने पर त्रय्यारुण ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलवाया और शुभ मुहूर्त में उसका राज्याभिषेक कर दिया । इस प्रकार सत्यव्रत को राज्य का भार सौंपकर वे पत्नी सहित वन में चले गए । वहाँ उन्होंने श्रीविष्णु की कठोर तपस्या आरम्भ कर दीं। आयु पूर्ण होने पर परब्रह्म भगवान् विष्णु की कृपा से वे स्वर्ग के उत्तराधिकारी बने ।
सत्यव्रत नियमित भगवान् विष्णु की पूजा-उपासना करता था । उन्हीं की कृपा से उसके घर एक सुंदर और शुभ लक्षणों से युक्त बालक का जन्म हुआ । यही बालक भविष्य में सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ । सत्यव्रत ने कुशलतापूर्वक अनेक वर्षों तक राज्य किया । वृद्ध होने पर वह वन में आश्रम बनाकर रहने लगा ।
एक दिन उसके मन में सशरीर स्वर्ग का सुख भोगने की इच्छा उत्पन्न हुई । वह महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर गया और विनती करते हुए बोला – “महर्षि ! मैंने अनेक वर्षों तक धरती के समस्त सुखों का उपभोग किया है । अब मैं स्वर्ग का सुख भोगना चाहता हूँ । मुनिश्रेष्ठ ! आप ऐसा यज्ञ करें, जिससे कि मुझे सशरीर स्वर्गलोक में रहने की सुविधा प्राप्त हो जाए ।”
महर्षि वसिष्ठ बोले – “राजन ! देह के साथ स्वर्ग में स्थान पाना असंभव है । नियमानुसार मृत्यु के बाद पुण्य कर्मों के प्रभाव से ही स्वर्ग में रहने की सुविधा प्राप्त होती है । आप यज्ञ करें और शरीर के शांत हो जाने के बाद आत्मा के रूप में स्वर्ग में स्थान प्राप्त करें ।” उनका परामर्श सुनकर सत्यव्रत कठोर शब्दों में बोला – “कुलगुरु ! तुम यदि अभिमान के कारण मेरा यज्ञ नहीं करना चाहते तो मैं किसी दूसरे पुरोहित से अपना यज्ञ सम्पन्न कराऊँगा ।”
सत्यव्रत के कठोर वचन सुनकर महर्षि वसिष्ठ क्रुद्ध होकर बोले – “मूर्ख ! तू अभी तक नहीं सुधरा । तेरा व्यवहार चाण्डाल के समान ही है । अतएव मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि तू इसी समय चाण्डाल बन जाए ।”
महात्मा वसिष्ठ के शाप से सत्यव्रत उसी समय चाण्डाल हो गया । उसकी देह में लगा सुगंधित चंदन दुर्गंध में बदल गया । दिव्य पीताम्बर काले रंग में परिणत हो गए । सुंदर आभूषण क्षण भर में निष्प्रभ हो गए । यह दुर्दशा देखकर वह अतीव दुखी हुआ और अपने वनाश्रम में लौट गया । उसने वन में ही अपने मंत्रियों को बुलवाकर अपने पुत्र हरिश्चन्द्र को अयोध्या का राजा घोषित कर दिया और स्वयं वहीं रहकर जीवन व्यतीत करने लगा ।
एक बार भयंकर अकाल पड़ने के कारण विश्वामित्र मुनि की पत्नी ने परिवार के भरण-पोषण के लिए अपने पुत्र के गले में रस्सी डालकर उसे बेच दिया था । तब सत्यव्रत ने दयावश उसे मुक्त करवाकर उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण किया था । गले में रस्सी बाँधने के कारण विश्वामित्र के उस पुत्र का नाम गालव पड़ गया । जो बाद में एक प्रसिद्ध ऋषि हुए । जब महर्षि विश्वामित्र को सारी बात ज्ञात हुई तो उस उपकार का बदला चुकाने के उद्देश्य से वे सत्यव्रत के पास गए । सत्यव्रत ने उनकी विधिवत पूजा- आराधना की । तब मुनि विश्वामित्र बोले – “राजन! तुम्हारी सेवा से मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ । मैं तुम्हारी कोई भी एक इच्छा पूर्ण करने का वचन देता हूँ । नि संकोच बताओ तुम्हारी क्या अभिलाषा है ।”
सत्यव्रत में उन्हें आरम्भ से अंत तक अपनी कहानी सुनाई । तब विश्वामित्र ने एक दृढ़ निश्चय कर यज्ञ-सामग्री एकत्रित की और ऋषि-मुनियों को निमंत्रण भेज दिया । किंतु यज्ञ का अभिप्राय जानकर और वसिष्ठजी के कहने पर सभी ने उनके निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया ।
तब विश्वामित्र सत्यव्रत से बोले – “राजन! वसिष्ठ मुनि के कारण शेष मुनियों ने भी इस यज्ञ में सम्मिलित होने से मना कर दिया है । लेकिन मुझे आपका मनोरथ अवश्य पूर्ण करना है । अब आप मेरी तपस्या का प्रभाव देखें ।” यह कहकर उन्होंने हाथ में जल लिया और गायत्री-मंत्र का जप करके अपना सारा पुण्य सत्यव्रत को सौंप दिया और देखते-देखते ही तपस्या के पुण्य-प्रभाव से वह सशरीर स्वर्ग पहुँच गया । उस समय वह चाण्डाल के वेश में था । उसे देखते ही देवराज इन्द्र क्रुद्ध होकर गरजे -“चाण्डाल ! ठहर ! तू यहाँ पहुँचा कैसे? तूने विधि के नियमों का उल्लंघन किया है । इसी समय पृथ्वी पर लौट जा वरना वज्र से तेरे टुकड़े कर दूँगा ।”
इन्द्र के यह कहते ही सत्यव्रत स्वर्ग से खिसककर नीचे गिरने लगा । गिरते समय वह बार-बार विश्वामित्र का नाम लेकर पुकारने लगा – “मुनिवर ! मैं स्वर्ग से गिर रहा हूँ । मेरी रक्षा कीजिए ।”
उसका करुण क्रंदन सुनकर मुनिवर विश्वामित्र ने आकाश की ओर दृष्टि उठाई । उन्हें नीचे गिरता हुआ सत्यव्रत दिखाई दिया ।
तब वे क्रोधित होकर बोले – “ठहर जाओ सत्यव्रत! यदि इन्द्र के स्वर्ग में तुम्हारे लिए कोई स्थान नहीं है तो मैं अभी तुम्हारे लिए एक नए स्वर्ग की रचना कर देता हूँ ।” उनके ‘ठहर जाओ’ कहते ही सत्यव्रत आधे मार्ग में स्थिर हो गया । इस प्रकार बीच में ही लटके रह जाने के कारण सत्यव्रत का एक नाम ‘त्रिशंकु’ पड़ गया । फिर विश्वामित्र ने एक अन्य स्वर्ग की सृष्टि करने के लिए हाथ में जल लेकर संकल्प किया और यज्ञ आरम्भ कर दिया ।
महर्षि विश्वामित्र को एक नए स्वर्ग की रचना करते देखकर इन्द्र भयभीत हो गए । वे भागे-भागे उनके पास पहुँचे और उनसे यज्ञ रोकने की प्रार्थना की । तब विश्वामित्र ने सत्यव्रत को संदेह स्वर्ग ले जाने के लिए कहा । उनके तपोबल को समझकर इंद्र ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उसी क्षण सत्यव्रत को दिव्य देह प्रदान की और उसे लेकर स्वर्ग चले गए ।
इस प्रकार सत्यव्रत की संदेह स्वर्ग जाने की इच्छा पूर्ण हुई ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
