Bhagwan Vishnu Katha: वैवस्वत मनु ने पुत्र की कामना से भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने का निश्चय किया और यमुना नदी के तट पर सौ वर्षों तक कठोर तपस्या की । उनकी तपस्या से भगवान् विष्णु साक्षात् प्रकट हुए और बोले – “वत्स ! तुम्हारी तपस्या से मैं अति प्रसन्न हूँ । माँगो तुम्हें क्या वर चाहिए?“
वैवस्वत मनु भगवान् की स्तुति करते हुए बोले – “प्रभु ! आप इस ब्रह्माण्ड में दाता और सभी जीव याचक के रूप में विद्यमान हैं । आप सदा ही भक्तजन को अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करते रहे हैं । जो मनुष्य श्रद्धाभाव से आपका स्मरण करता है आप उसकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं । दयानिधान । मैं आपसे एक श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करने की प्रार्थना करता हूँ ।”
‘तथास्तु, वत्स ! मेरे वरस्वरूप तुम्हें एक नहीं, दस परम शक्तिशाली और विद्वान पुत्र प्राप्त होंगे । संसार में वे तुम्हारे वंश को सदा के लिए अमर कर देंगे ।” इस प्रकार वैवस्वत मनु को मनोवांछित वर देकर भगवान् विष्णु अंतर्धान हो गए ।
भगवान् विष्णु की कृपा से वैवस्वत मनु की पत्नी श्रद्धा के इक्ष्याकु, शर्याति, नृग, दिष्ट, धृष्ट, करूष, नरिष्यंत, पृषध्र, नभग और कवि नामक दस पुत्र उत्पन्न हुए । ये सभी अत्यंत सुंदर और बुद्धिमान थे । मनु ने उन्हें वेदों और शास्त्रों की शिक्षा के लिए महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में भेज दिया । उन्होंने आश्रम के समस्त कार्य आपस में बाँट लिए और गुरुदेव वसिष्ठ की सेवा करने लगे ।
गुरुकुल में पृषध्र को गायों की रखवाली का कार्य सौंपा गया । वह पूरी निष्ठा से अपने कार्य को पूरा करता था । एक बार भीषण वर्षा में रात्रि के समय वह गायों की रखवाली कर रहा था । उसी समय गायों के झुंड में एक बाघ घुस आया । उसके भय से गायें भयभीत होकर भागने लगीं । बाघ ने एक गाय को दबोच लिया । उस गाय का क्रंदन सुनकर पृषध्र हाथ में तलवार लेकर दौड़ा ।
वर्षा और घोर अंधकार होने के कारण उसे बाघ दिखाई नहीं दिया । तब उसने गाय की आवाज सुनकर ही बाघ पर तलवार से प्रहार किया । किंतु बाघ के भ्रम में उसने एक गाय का सिर काट दिया । तलवार से बाघ का कान भी कट गया था और वह वहाँ से भाग गया । पृषध्र ने समझा बाघ मर गया है और वह अपने स्थान पर बैठकर पुन: गायों की रखवाली करने लगा ।
प्रात:काल जब वसिष्ठ मुनि को गाय का कटा सिर दिखाई दिया तो उन्होंने क्रोधित होकर पृषध्र को शूद्र होने का शाप दे दिया । यद्यपि पृषध्र ने यह पाप अनजाने में ही किया था तथापि उसने शाप को सहर्ष स्वीकार कर लिया । वह राजसी सुख त्यागकर भगवान् विष्णु की आराधना करने लगा । शीघ्र ही पृषध्र को आत्मज्ञान हो गया । एक दिन वन में भीषण आग लग गई । उस आग में पृषध्र भी भस्म होकर भगवान् वासुदेव के परमधाम सिधार गया ।
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