Bhaktaraj Dhruv
Bhaktaraj Dhruv

Bhagwan Vishnu Katha: ब्रह्माजी के मानस पुत्र स्वयंभू मनु की पत्नी शतरूपा ने प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक दो पुत्रों को जन्म दिया । वे दोनों ही पृथ्वी का पालन करने लगे । उनकी सुनीति और सुरुचि नामक दो पत्नियों थीं । उन्हें सुनीति से ध्रुव और सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र प्राप्त हुए । उत्तानपाद दोनों राजकुमारों से एक समान प्रेम करते थे । यद्यपि सुनीति ध्रुव के साथ-साथ उत्तम को भी अपना पुत्र मानती थी, तथापि रानी सुरुचि ध्रुव और सुनीति से ईर्ष्या और घृणा करती थी । वह सदा उन्हें नीचा दिखाने के अवसर ढूँढती रहती थी ।

एक बार उत्तानपाद-महारानी सुनीति और राजकुमार ध्रुव के साथ राजसिंहासन पर बैठे थे । तभी रानी सुरुचि का पुत्र उत्तम भी बाल स्वभाव के कारण सिंहासन पर बैठने का हठ करने लगा ।

“राजकुमार उत्तम! राजदरबार के नियम के अनुसार आप इस सिंहासन पर नहीं बैठ सकते । युवराज होने के कारण केवल राजकुमार ध्रुव ही यहाँ बैठ सकते हैं । अतः आप अपने स्थान पर जाकर बैठ जाएँ ।” यह कहकर महामंत्री सुशर्मा ने उत्तम को सिंहासन से दूर कर दिया ।

उत्तम का यह अपमान देखकर सुरुचि क्रोधित होकर अपने कक्ष में चली गई । राजा उत्तानपाद शांत भाव से उसे जाते देखते रहे । राजकार्य समाप्त होने पर वे सुरुचि के महल में गए और प्रेम भरे स्वर में बोले – “प्रिय ! महामंत्री ने जो कुछ भी किया, वह दरबार के नियम के अनुसार ही किया । ये नियम सभी के लिए एक समान हैं । इन नियमों को स्वयं मैं भी नहीं तोड़ सकता । इसलिए तुम उनकी बात का बुरा मत मानो । मैं उत्तम से भी उतना ही प्रेम करता हूँ, जितना कि ध्रुव से । यदि फिर भी तुम्हें कोई संदेह हो तो उत्तम के लिए कुछ माँग कर देखो, मैं तत्क्षण तुम्हें इच्छित वस्तु दे दूँगा । यह एक क्षत्रिय का वचन है और अपने वचन का पालन करना प्रत्येक क्षत्रिय भली-भाँति जानता है ।”

राजा उत्तानपाद द्वारा वचन दिए जाने पर सुरुचि बोली – “महाराज ! मैं भी दरबार के नियमों का समान रूप से आदर करती हूँ, किन्तु एक माता अपने सामने पुत्र का अपमान कभी नहीं देख सकती । इसलिए यदि ध्रुव को आपके साथ सिंहासन पर बैठने का अधिकार है तो आप उत्तम को अपनी गोद प्रदान कीजिए, अर्थात् सिंहासन पर ध्रुव का और आपकी गोद पर उत्तम का अधिकार रहे ।” सुरुचि का मन रखने के लिए उत्तानपाद ने हँसते हुए उसकी यह बात स्वीकार कर ली ।

एक दिन राजा उत्तानपाद उत्तम को गोद में लेकर प्यार कर रहे थे, तभी ध्रुव भी वहाँ आ गया । जब उसने उत्तम को पिता की गोद में देखा तो वह भी आगे बढ़कर उनकी गोद में बैठ गया । किन्तु सुरुचि निर्दयतापूर्वक उसे पिता की गोद से उतारते हुए बोली – “ध्रुव ! तुम्हारे बैठने के लिए राजसिंहासन है, पिता की गोद नहीं । यदि तुम्हें पिता की गोद में बैठना था तो मेरे गर्भ से जन्म लेते ।” सुरुचि का व्यवहार देख राजा उत्तानपाद वचन में बँधे होने के कारण चुप रह गए ।

सुरुचि के कटु वचन सुनकर ध्रुव रोते हुए माता सुनीति के पास चला गया और सुनीति के पूछने पर उसे सबकुछ बताया । सुरुचि के इस व्यवहार से सुनीति का मन भी दु:खी हो गया । तब वह ध्रुव को समझाते हुए बोली – “वत्स ! भले ही कोई तुम्हारा अपमान करे, किंतु तुम कभी अपने मन में दूसरों के लिए अमंगल की इच्छा मत करना । जो मनुष्य दूसरों को दुःख देता है, उसे स्वयं ही उसका फल भोगना पड़ता है । पुत्र ! यदि तुम उत्तम की भांति पिता की गोद में बैठना चाहते हो, तो भगवान् विष्णु की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करो । उन्हीं की आराधना करने से तुम्हारे पितामह स्वयंभू मनु को दुर्लभ लौकिक और अलौकिक सुख भोगने के बाद मोक्ष की प्राप्ति हुई थी । इसलिए पुत्र ! तुम भी उनकी आराधना में लग जाओ । केवल वे ही तुम्हारे दु:ख को दूर कर सकते हैं ।”

सुनीति की बात सुनकर ध्रुव के मन में श्रीविष्णु के प्रति भक्ति और श्रद्धा के भाव उत्पन्न हो गए । वह तत्क्षण घर त्यागकर वन की ओर चल पड़ा । भगवान् विष्णु की कृपा से उसे वन में देवर्षि नारद दिखाई दिए । वे भी ध्रुव को देख आश्चर्यचकित रह गए । उन्होंने शीघ्र ही योग विद्या द्वारा सारी बात जान ली ।

तब वे ध्रुव की परीक्षा लेते हुए बोले – “वत्स ! अभी तुम बालक हो, इस आयु में किसी बात से तुम्हारा सम्मान या अपमान नहीं हो सकता । यह केवल क्षण भर का क्रोध है वत्स ! भगवान् नारायण को प्राप्त करना साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं है । ऋषि-मुनि अनेक जन्मों तक मोह से रिक्त रहकर समाधियों द्वारा भी भगवान् को प्राप्त नहीं कर पाते । अतः तुम हठ छोड़कर घर लौट जाओ । बड़े होने पर जब प्रभु भक्ति का अवसर आए, तब तुम उसके लिए प्रयत्न कर लेना ।”

ध्रुव विनम्र स्वर में बोला – “प्रभु ! मैं राजा उत्तानपाद का पुत्र हूँ । जो निश्चय मैंने कर लिया है, अब उसे प्रत्येक अवस्था में पूरा करूँगा । मैं उस परम पद को प्राप्त करना करना चाहता हूँ, जिसे आज तक कोई प्राप्त नहीं कर सका । आप भगवान् विष्णु के अनन्य भक्त हैं और उन्हीं के यश का गान करते हुए तीनों लोक में विचरते हैं । आप ही मुझे उनकी प्राप्ति का कोई उपाय बताएँ ।”

ध्रुव को अपने निश्चय पर अटल देख नारदजी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले – “वत्स ! तुम्हारी माता सुनीति ने तुम्हें परम कल्याण का उपाय बता दिया है । तुम मन में भगवान् श्रीविष्णु के स्वरूप की कल्पना कर उनकी आराधना करो । जिन मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अभिलाषा हो, उनके लिए वह सब प्राप्त करने का एकमात्र साधन भगवान् विष्णु के चरण कमलों की आराधना करना है । वत्स ! तुम यमुना नदी के तट पर स्थित पवित्र मधुवन में जाकर भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप करो । परम दयालु भगवान् तुम्हारी सभी इच्छाएँ पूर्ण करेंगे ।”

देवर्षि नारद से पूजा-उपासना की विधि जानकर ध्रुव भगवान् विष्णु का स्मरण कर मधुवन की ओर चला गया । उसने यमुना के पवित्र जल में स्नान किया और निराहार रहकर एकाग्र मन से भगवान् विष्णु की आराधना करने लगा । पाँच महीने पूरे होने पर परब्रह्म का चिंतन कर ध्रुव पैर के अँगूठे पर स्थिर खड़ा होकर तपस्या करने लगा । धीरे-धीरे उसका तेज बढ़ता गया । उसके तप से तीनों लोक कंपायमान हो उठे । जब उसके अँगूठे के दबाव से पृथ्वी दबने लगी, तब देवगण भगवान् विष्णु से विनती करते हुए उसे दर्शन देने की प्रार्थना करने लगे । भगवान् विष्णु बोले – “देवगण ! उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने अपने मन को मुझमें लीन कर लिया है । उसके तप के प्रभाव से तीनों लोक आलोकित हो रहे हैं । अब उसे वरदान देने का समय आ गया, अतः आप सब निश्चित रहें ।” इस प्रकार उन्हें भयमुक्त करने के बाद भगवान् विष्णु भक्त ध्रुव को वरदान देने के लिए उसके सामने साक्षात् प्रकट हुए ।

ध्रुव भगवान् विष्णु के जिस स्वरूप का चिंतन कर रहा था, सहसा वह विलीन हो गया । उसने घबराकर जैसे ही नेत्र खोले भगवान् के उस स्वरूप को सामने खड़े देखा । श्रद्धावश उसकी आँखों से आँसू निकल आए । वह उनकी स्तुति करना चाहता था, किंतु किस प्रकार करे-यह उसे पता नहीं था । तब भगवान् विष्णु ने उससे अभीष्ट वर माँगने के लिए कहा ।

श्रीविष्णु के प्रेम भरे शब्द सुनकर ध्रुव भाव-विभोर होकर बोला – “प्रभु ! जब मेरी माता सुरुचि ने अपमानजनक शब्द कहकर मुझे पिता की गोद में बैठने से रोक दिया, तब माता सुनीति के कहने पर मैंने मन-ही-मन यह निश्चय किया था कि जो परब्रह्म भगवान् श्रीविष्णु इस सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं, जिनके लिए सभी जीव एक समान हैं; अब मैं उनकी गोद में ही बैठूँगा । इसलिए यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे अपनी गोद में स्थान प्रदान करें, जिससे कि कोई भी मुझे उस स्थान से उतार न सके । मेरी केवल इतनी-सी अभिलाषा है ।”

श्रीविष्णु बोले – “वत्स ! सकाम मनुष्य जहाँ सुख, समृद्धि के लिए मेरी आराधना करते हैं, वहीं ऋषि-मुनि विभिन्न सिद्धियों और मोक्ष की प्राप्ति के लिए कठोर तप करते हैं, किंतु इन्हें प्राप्त करने की अपेक्षा तुमने केवल मेरी गोद में बैठकर मेरा स्नेह प्राप्त करने की इच्छा से ही इतनी कठोर तपस्या की है । इसलिए तुम्हारी नि:स्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें ऐसा पद प्रदान करूँगा, जिसे आज तक कोई प्राप्त नहीं कर सका है । यह ब्रह्माण्ड मेरा अंश और आकाश मेरी गोद है । मैं तुम्हें अपनी गोद में स्थान प्रदान करता हूँ । आज से तुम ध्रुव नामक तारे के रूप में स्थापित होकर इस ब्रह्माण्ड को प्रकाशमान करोगे । तुम्हारा पद सप्तर्षियों से भी बड़ा होगा और वे सदा तुम्हारी परिक्रमा करेंगे । जब तक यह ब्रह्माण्ड रहेगा, कोई भी तुम्हें इस स्थान से नहीं हटा सकेगा । वत्स ! अब तुम घर लौट जाओ । कुछ समय के बाद तुम्हारे पिता तुम्हें राज्य सौंपकर वन में चले जाएंगे । पृथ्वी पर छत्तीस हजार वर्षों तक धर्मपूर्वक राज्य भोगकर अंत में तुम मेरा परम पद प्राप्त करोगे ।” इतना कहकर भगवान् विष्णु वहाँ से अंतर्धान हो गए ।

इस प्रकार अपनी भक्ति से भगवान् विष्णु को प्रसन्न कर बालक ध्रुव संसार में अमर हो गया ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)