dhruv ka vishnulok gaman
dhruv ka vishnulok gaman

Bhagwan Vishnu Katha: ध्रुव की विष्णु भक्ति की कथा आपने पीछे पड़ी । उत्तराधिकार में उसे पिता का राज्य मिला तो वह धर्मपूर्वक पृथ्वी का पालन करने लगा । उसके राज्य में प्रजाजन धर्म-कर्म में लीन रहते थे । चारों ओर सुख-शांति का राज्य था । उसका विवाह प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि के साथ हुआ, उससे उसे कल्प और वत्सर नामक दो पुत्र प्राप्त हुए । उसका दूसरा विवाह वायु की पुत्री इला से हुआ । उससे उसे उत्कल नामक एक पुत्र और एक कन्या की प्राप्ति हुई । रानी सुरुचि के पुत्र उत्तम का विवाह अभी तक नहीं हुआ था ।

एक दिन उत्तम शिकार खेलने वन में गया । वहाँ उसने एक मृग पर निशाना साधकर उस पर बाण छोड़ दिया । तभी दूसरी दिशा से एक अन्य बाण आया और मृग के शरीर में घुस गया । बाण लगने से वह मृग वहीं ढेर हो गया । उत्तम प्रसन्न होकर रथ से उतरा और मृग की ओर बढ़ा । तभी एक गरजदार आवाज से सारा आकाश थर्रा उठा – “ ठहरो! यह मेरा शिकार है । इसकी ओर कदम मत बढ़ाना मथया यह तुम्हारे हित में नहीं होगा । “ उत्तम ने आश्चर्यचकित होकर इधर-उधर देखा, किंतु उसे कोई भी दिखाई नहीं दिया । फिर उसने आगे बढ़कर मृग पर अधिकार किया और अपने रथ की ओर चल पड़ा । अचानक वहाँ एक यक्ष प्रकट हुआ । वह यक्ष विशालकाय और भयंकर था । वह उत्तम का मार्ग रोकते हुए बोला – “युवक ! तुमने मेरी चेतावनी को अनसुना कर मेरे शिकार पर अधिकार कर लिया । अब मरने के लिए तैयार हो जाओ ।” यह कहकर यक्ष ने उसके साथ युद्ध आरम्भ कर दिया । दोनों ही वीर थे । जब उत्तम किसी भी प्रकार से पराजित नहीं हुआ, तब यक्ष ने माया का प्रयोग कर उसे मार डाला । उत्तम को मरते देख सारथि लौट गया और राजा ध्रुव को सारा वृत्तांत सुनाया । अपने पुत्र के विषय में जानकर सुरुचि ने प्राण त्याग दिए ।

तब यक्षों को दण्डित करने के लिए ध्रुव ने उन पर आक्रमण कर दिया । दोनों पक्षों में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । ध्रुव ने कुछ ही समय में अनेक यक्षों को काल का ग्रास बना दिया । जब स्वयंभू मनु ने देखा कि ध्रुव निर्दोष यक्षों का संहार कर रहा है तो वे युद्ध भूमि में आए और ध्रुव को समझाते हुए बोले – “वत्स ! तुमने एक यक्ष के अपराध करने पर कितने निरपराध यक्षों को दण्डित किया है । जीवन-मृत्यु तो भगवान की इच्छा पर निर्भर करती है, हम तो केवल उसका माध्यम बनते हैं । अतः तुम दैव-इच्छा समझकर इस युद्ध को बंद कर दो । यक्षों के संहार से तुमने कुबेर के प्रति अपराध किया है इसलिए तुम उन्हें प्रसन्न करो ।”

स्वयंभू मनु के समझाने पर ध्रुव युद्ध बंद कर कुबेर की स्तुति करने लगा । तब कुबेर वहाँ आए और ध्रुव से अभीष्ट वर माँगने के लिए कहा ।

ध्रुव ने वरदान में भगवान् विष्णु की अखण्ड भक्ति माँग ली । कुबेर ‘तथास्तु’ कहकर वहाँ से अंतर्धान हो गए । इसके बाद ध्रुव भी अपने नगर लौट आया । ध्रुव बड़ा धर्मात्मा, सदाचारी और तपस्वी स्वभाव का राजा था । उसने छत्तीस हजार वर्षों तक धर्मपूर्वक शासन किया । फिर अपने पुत्र उत्कल का राज्याभिषेक कर समस्त सुख सुविधाओं का त्याग कर तपस्या के लिए बदरिकाश्रम चला गया । वहाँ उसने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या की ।

एक बार ध्रुव समाधिलीन होकर परब्रह्म का स्मरण कर रहा था । तभी आकाश से एक दिव्य विमान उतरा । उस विमान में नन्द और सुनन्द नामक दो विष्णु पार्षद थे । वे विनम्र शब्दों में बोले – “राजन ! आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक में परम पद प्राप्त किया है । भगवान् विष्णु ने आपको लाने के लिए यह विमान भेजा है । आप हमारे साथ चलने की कृपा करें ।” किंतु ध्रुव ने माता सुनीति के बिना विष्णुलोक जाने से इंकार कर दिया । तब पार्षद बोले – “राजन ! आप निश्चिंत रहें । आपकी माता सुनीति विष्णुलोक पहुंच गई हैं ।” इस प्रकार ध्रुव भी दिव्य विमान में सवार हो गया और विष्णुलोक चला गया ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)