Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है-अयोध्या में इक्ष्याकु वंश के वीर और पराक्रमी राजा दशरथ राज्य करते थे । सूर्यवंशी राजाओं में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा थी । उनकी सभा में देवता और ऋषि, मुनि सदा आदर पाते थे । कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी नाम की उनकी तीन रानियाँ थीं । अग्निदेव की कृपा से उनके घर चार पुत्रों ने जन्म लिया; जो राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के नाम से प्रसिद्ध हुए । इनमें राम भगवान् विष्णु के अंशावतार थे । राम की माता कौशल्या थीं । कैकेयी से भरत का जन्म हुआ और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न नामक दो बालक उत्पन्न हुए । चारों राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में सम्पन्न हुई ।
एक बार मुनिवर विश्वामित्र ने राक्षसों से अपने यज्ञ की रक्षा के लिए महाराज दशरथ से राम और लक्ष्मण को माँगा । दशरथ ने राम को लक्ष्मण सहित मुनिवर के साथ जाने की आज्ञा दे दी । मार्ग में श्रीराम ने ताड़का नामक एक भयंकर राक्षसी का वध किया । वह राक्षसी ऋषि-मुनियों को मारकर खा जाती थी । इसके बाद विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करते समय श्रीराम ने दैत्य सुबाहु के प्राण हर लिए और मारीच को मृतप्राय करके उस क्षेत्र से दूर फेंक दिया । इस प्रकार भगवान् श्रीराम की सहायता से ऋषियों ने अपना यज्ञ पूर्ण किया । उस समय मिथिला में राजा जनक की पुत्री सीता, जो लक्ष्मी का अंशावतार थीं, का स्वयंवर आयोजित किया गया । यज्ञ समाप्ति के बाद महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम और लक्ष्मण सहित मिथिला के लिए प्रस्थान किया ।
एक बार इन्द्र ने छलपूर्वक गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का सतीत्व भंग कर दिया था । तब क्रुद्ध गौतम मुनि ने उन्हें शिलारूप बन जाने का शाप दे दिया था और उनका उद्धार श्रीराम द्वारा निर्धारित कर दिया था । मिथिला के मार्ग में गौतम मुनि का आश्रम पड़ा । जहाँ श्रीराम ने अहल्या का उद्धार कर उन्हें शाप से मुक्त किया । उनके स्पर्श मात्र से ही शिला बनी अहल्या पुन: सजीव हो गईं ।
मिथिला पहुँचकर भगवान् राम ने राजा जनक के दरबार में रखा हुआ शिव-धनुष तोड़कर सीता को पत्नी रूप में स्वीकार किया । महाराज जनक ने अपनी एक अन्य कन्या उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ कर दिया । राजा जनक के छोटे भाई कुशध्वज की पुत्री माण्डवी का विवाह भरत के साथ और श्रुतकीर्ति का विवाह शत्रुघ्न के साथ सम्पन्न हुआ । परशुराम ने राजा जनक को शिव-धनुष भेंट में दिया था । जब उन्हें धनुष के खण्डित होने का पता चला तो वे क्रोधित होकर श्रीराम को मारने के लिए उद्यत हो गए । तब भगवान् राम ने उनका गर्व खण्डित कर अपने वास्तविक स्वरूप के दर्शन करवाए तो परशुराम उनकी स्तुति कर वहाँ से चले गए ।
विवाह के पश्चात् चारों राजकुमार अपनी पत्नियों सहित अयोध्या लौट आए । अयोध्या में बड़ी धूमधाम से उनका स्वागत किया गया ।
श्रीराम सभी अधिकारियों और प्रजाजन के अत्यंत प्रिय थे । उनके शांत, मधुर और निर्मल व्यवहार ने सब को मोहित कर रखा था । दशरथ स्वयं भी उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे । इसलिए मंत्रियों से परामर्श करके उन्होंने एक शुभ दिवस को श्रीराम का राज्याभिषेक करने का निश्चय किया ।
बड़ी धूमधाम से श्रीराम के राज्याभिषेक की तैयारियाँ आरम्भ हो गईं । राजमहल में मंथरा नाम की एक दासी थी । वह कैकेयी की प्रिय सेविका थी । उसने कौशल्या और श्रीराम के विरुद्ध उसके कान भर दिए । कैकेयी ने राजा दशरथ से दो वर माँगे, जो उन्होंने उसे देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के बदले में दिए थे । राजा दशरथ के वचन देने के बाद कैकेयी ने प्रथम वर में उनसे भरत के लिए अयोध्या का राज और दूसरे वर में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास माँगा ।
पिता की आज्ञा सुनकर श्रीराम-लक्ष्मण और सीता सहित वन में चले गए । इधर पुत्र-वियोग में राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए । जब भरत अयोध्या लौटे तो उन्हें सारी बात ज्ञात हुई । उन्होंने सिंहासन अस्वीकार कर दिया और श्रीराम को मनाकर अयोध्या लाने के लिए माताओं, गुरुजन, प्रजाजन, मंत्रियों और सेनापतियों के साथ वन में गए । किंतु श्रीराम पिता को दिए वचन का कदापि उल्लंघन नहीं कर सकते थे । अतः उन्होंने चौदह वर्ष से पूर्व अयोध्या लौटने से इंकार कर दिया । तब भरत ने श्रीराम की चरण-पादुकाओं को ही अयोध्या के राज-सिंहासन पर सुशोभित किया और स्वयं एक वनवासी का जीवन व्यतीत करते हुए राज्य का कार्य सँभालने लगे ।
उधर वन में भगवान् राम पंचवटी नामक स्थान पर निवास कर रहे थे । एक बार वन में भ्रमण करते हुए दैत्यराज रावण की बहन शूर्पनखा की दृष्टि श्रीराम पर पड़ी । श्रीराम को देख वह उन पर मोहित हो गई । उसने एक सुंदर स्त्री का रूप बनाया और उनके समीप पहुँचकर उन्हें पतिरूप में वरण करने की इच्छा व्यक्त की । श्रीराम ने उसे लौट जाने को कहा । अपमानित शूर्पनखा ने सीता को मारने का प्रयास किया । तभी लक्ष्मण ने अपनी तलवार से उसके नाक और कान काट लिए ।
शूर्पनखा भीषण चीत्कार करती हुई अपने भाई खर और दूषण के पास गई । दोनों दैत्यों ने अपनी विशाल सेना के साथ श्रीराम पर आक्रमण कर दिया । श्रीराम ने अपने एक ही बाण से उनकी समस्त सेना का नाश कर दिया । युद्ध में खर और दूषण भी उनके हाथों मारे गए । खर-दूषण की मृत्यु होते ही शूर्पनखा लंकेश्वर रावण की शरण में पहुँची । रावण उसी समय अपने विमान पर बैठकर मारीच के पास पहुँचा और उसे मृत्यु का भय दिखाकर सीता-हरण के लिए तैयार किया । तत्पश्चात् वे पंचवटी पहुँचे । वहाँ मारीच स्वर्ण मृग बनकर भगवान् श्रीराम को भ्रमित कर कुटिया से दूर ले गया । जब भगवान् श्रीराम ने मृग बने मारीच को बाण मारा तो वह अपने वास्तविक स्वरूप में आकर उनकी आवाज में लक्ष्मण को पुकारने लगा । इधर सीता ने इसे राम की आवाज समझकर लक्ष्मण को उनकी सहायता के लिए भेजा । लक्ष्मण के जाते ही लंकापति रावण साधु के वेश में कुटिया में आया और बलपूर्वक सीता का हरण कर लिया । मार्ग में दशरथ के मित्र गिद्धराज जटायु ने सीता को बचाने के लिए रावण से युद्ध किया, लेकिन रावण ने तलवार से उसके पंखों को काट दिया । जटायु भूमि पर गिरकर तड़पने लगा ।
सीता को कुटिया में न देखकर श्रीराम और लक्ष्मण शोकावस्था में उन्हें वन में ढूँढने लगे । ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ जटायु घायल अवस्था में पड़ा था । उसने बताया कि लंकापति रावण ने सीता का हरण कर लिया है । इतना कहकर उसने भगवान् श्रीराम की गोद में ही प्राण त्याग दिए । भगवान् राम ने उसी स्थान पर पितातुल्य जटायु का अंतिम संस्कार किया और लक्ष्मण के साथ सीता की खोज में आगे चल पड़े । मार्ग में उन्हें कबंध नामक राक्षस ने पकड़ लिया । उसकी भुजाएँ बहुत लम्बी थीं । सिर पेट में ही धँसा हुआ था । पूर्व जन्म में वह एक यक्ष था । एक ऋषि से मिले शाप के कारण ही उसे राक्षस योनि में जन्म लेना पड़ा था । श्रीराम और लक्ष्मण ने कंबध को मारकर उसे इस योनि से मुक्त कर दिया । तब उसने श्रीराम को बताया कि दक्षिण दिशा में शबरी नाम की एक साध्वी निवास करती है । वे उससे मिलें । वह उनका उचित मार्गदर्शन करेगी । कबंध के बताए मार्ग पर दोनों आगे चल पड़े ।
वन में अनेक दैत्यों का संहार करते हुए वे शबरी के आश्रम में पहुँचे । उन्हें देख वृद्धा शबरी भाव विभोर हो गई । उसने श्रीराम के चरण धोए और उन्हें मीठे बेर खाने को दिए । तत्पश्चात् उसने श्रीराम को ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करने वाले वानर सुग्रीव से मित्रता करने का परामर्श दिया ।
जब श्रीराम ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे तब पर्वत की चोटी से उन्हें देख सुग्रीव ने उनके आगमन का कारण जानने के लिए हनुमान को भेजा । हनुमान ब्राह्मण का वेश धारण कर श्रीराम के समीप गए । उन्हें पहचानते ही वे वास्तविक रूप में आ गए और उन्हें सुग्रीव के पास ले आए । दोनों ने अग्नि को साक्षी मानकर एक-दूसरे की सहायता करने का वचन दिया । श्रीराम ने सुग्रीव से वन में रहने का कारण पूछा । वह बोला – “प्रभु ! मैं किष्किन्धा देश का राजा था । मेरा भाई बाली राज्य प्राप्ति के लिए मुझे मारना चाहता था । वह बड़ा बलि है । उसे वर प्राप्त है कि उससे लड़ने वाले का आधा बल उसमें चला जाएगा । इसलिए आज तक कोई भी उसे परास्त नहीं कर सका । उससे भयभीत होकर ही मैं यहाँ वनवासी का जीवन व्यतीत कर रहा हूँ ।” श्रीराम ने सुग्रीव को उसका राज्य और पत्नी वापस दिलाने की प्रतिज्ञा की ।
एक दिन तैयारी करके उन्होंने किष्किंधा पर हमला कर दिया । श्रीराम के कहने पर सुग्रीव ने बाली को युद्ध के लिए ललकारा । दोनों में भीषण गुरु हुआ । अंत में भगवान् श्रीराम के बाण से बाली मारा गया । सुग्रीव का विधिपूर्वक पुन: राज्याभिषेक कर दिया गया । राजा बनने के बाद सुग्रीव ने सीता को ढूँढने के लिए अपनी सेना को चारों दिशाओं में भेज दिया । शीघ्र ही रामभक्त हनुमान ने माता सीता का पता लगा लिया और लंका दहन कर श्रीराम के पास लौट आए । तब सुग्रीव ने वानरों की सेना तैयार की और श्रीराम के नेतृत्व में लंका की ओर प्रस्थान किया । लंका विशाल समुद्र के मध्य में स्थित थी । वहाँ तक जाने का कोई मार्ग नहीं था । तब भगवान् श्रीराम की आज्ञा से वानर पत्थरों का एक विशाल पुल बनाकर लंका पहुँच गए । लंका पहुँचकर श्रीराम ने दैत्यराज रावण पर आक्रमण कर दिया । दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । एक-एक कर रावण के सभी योद्धा इस युद्ध में मारे गए । सुग्रीव की वानर सेना ने रावण की सेना को शक्तिहीन कर दिया । अंत में रावण स्वयं युद्ध करने आया । श्रीराम ने उसकी नाभि में बाण मारकर उसके प्राणों का अंत कर दिया । उसके मरते ही चारों ओर भगवान् श्रीराम की जयजयकार होने लगी । बचे हुए दैत्य अपने प्राण बचाकर वहाँ से भाग गए । वनवास समाप्त होने पर भगवान् श्रीराम-सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या लौट आए ।
उनके अयोध्या लौटने पर पूरे राज्य में उत्सव मनाया गया । प्रजाजन ने घी के दिए जलाकर उनका स्वागत किया । यह दिन भारत में आज भी प्रतिवर्ष दीपावली के रूप में मनाया जाता है । तत्पश्चात् भगवान् राम का राज्याभिषेक कर उन्हें अयोध्या का राज्य सौंप दिया गया । लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनकी आज्ञानुसार प्रजा का पालन करने लगे । उनके राज्य में कोई भी वृद्ध अथवा रोगी मनुष्य नहीं था । चारों ओर सुख और समृद्धि का राज्य स्थापित था । अन्न और धन से भण्डार सदा भरे रहते थे । प्रजाजन सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर रहे थे ।
एक बार प्रजाजन के दुःख और कष्ट जानने के लिए भगवान् श्रीराम रात्रि के समय वेश बदलकर राज्य में विचरण कर रहे थे । जब वे एक घर के आगे से निकले तो उन्हें एक पुरुष का क्रोधित स्वर सुनाई दिया । वे वहीं रुककर उसकी बात सुनने लगे । वह व्यक्ति अपनी पत्नी से कह रहा था – “दुष्टा ! तू नीच और पापिन है । अब मैं तुझे अपने घर में नहीं रख सकता । मैं राम जैसा स्त्री-लोभी नहीं हूँ, जो एक वर्ष तक रावण के महल में रहने के बाद भी सीता को घर ले आया । इसलिए मैं तुझे इसी क्षण त्यागता हूँ । तू अभी यहाँ से चली जा ।”
उस व्यक्ति की बात सुनकर भगवान् राम ने लोक मर्यादा की स्थापना के लिए सीता को त्यागने का निश्चय कर लिया । उन्होंने लक्ष्मण को सारी बात बताकर उन्हें वन में छोड़ आने का आदेश दिया । लक्ष्मण दु:खी मन से उन्हें वन में छोड़ आए । सीता के वियोग में भगवान् राम भी सभी ऐश्वर्यों का त्याग कर वनवासी के समान जीवन व्यतीत करने लगे । सीता वाल्मीकि ऋषि के आश्रम में रहने लगीं । कुछ समय के बाद उन्होंने आश्रम में ही दो सुंदर बालकों को जन्म दिया । वाल्मीकि ऋषि ने उनका नाम लव और कुश रखा । उन्होंने उन बालकों को शास्त्र और शस्त्र विद्या प्रदान की । लव और कुश दोनों ही भगवान् श्रीराम के समान परम वीर और पराक्रमी थे ।
एक बार भगवान् राम ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया । किंतु महर्षि वसिष्ठ के यह कहने पर कि बिना पत्नी के यश असम्भव है उन्होंने स्वर्ण निर्मित सीता की मूर्ति स्थापित करके यज्ञ आरम्भ किया । एक दिन यज्ञ-अश्व विचरण करते हुए महर्षि वाल्मीकि के आश्रम के निकट पहुँच गया । लव और कुश ने उसे पकड़कर बाँध लिया । उसे छुड़वाने के लिए एक-एक कर शत्रुघ्न, भरत और लक्ष्मण आए, लेकिन उन्होंने उन्हें बाणों से मूर्च्छित कर दिया ।
अंत में भगवान् श्रीराम स्वयं युद्ध करने आए । तब लव और कुश को उन्हें सौंपकर सीता स्वयं धरती में समा गई । भगवान् राम पुत्रों के साथ अयोध्या लौट आए । भगवान् श्रीराम ने तेरह हजार वर्षों तक राज्य किया । इसके बाद वे लव और कुश का राज्याभिषेक कर अपने भाइयों और प्रजाजन के साथ वैकुण्ठ पधार गए ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
