Ram-Sita Kahani: पुष्पक विमान में बैठ कर राम, सीता व लक्ष्मण अनेक तीर्थस्थलों का भ्रमण करने के पश्चात अयोध्या लौट रहे थे। चौदह वर्ष पश्चात अपनी मातृभूमि के दर्शन के इस विचार से ही श्रीराम गदगद् हो उठे।
इधर संपूर्ण अयोध्या समाज भी उनकी अभ्यर्थना हेतु नगर पर खड़ा था। सभी अपने प्राणधार श्रीराम की
प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठे थे। भरत की प्रतिज्ञा ने भी सबको आतंकित कर रखा था। उन्होने प्राण-विसर्जन हेतु चिता सजाई थी और कहा था- ‘यदि आज संध्या समय तक भईया राम न लौटे तो मैं इस नश्वर शरीर का त्याग कर दूंगा। तभी न जाने कहां से एक विचित्र वानर भरत के सम्मुख आ खड़ा हुआ। भरत ने तत्काल धनुष-बाण उठा लिया। आगंतुक वानर और कोई नहीं स्वयं पवन-पुत्र हनुमान थे। उन्होंने भरत को प्रणाम कर कहा-‘हे दशरथ पुत्र! हमारे प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण व सीता सहित दिव्य पुष्पक विमान में इसी ओर आ रहे हैं।
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भरत ने यह सुनते ही धनुष बाण छोड़ हर्ष से वानर हनुमान को गले से लगा लिया। पूरे नगर में खुशी की लहर दौड़ गई।
आकाश मार्ग से आते पुष्पक विमान को देख सभी चकित हो उठे। दीपमाला के प्रकाश में उस विमान की छटा ही निराली थी। रत्नजडित सिंहासन पर राम-सीता विराजमान थे। उनकी अलौकिक आभा से विमान की शोभा द्विगुणित हो उठी थी। लक्ष्मण के समीप ही बहुत से वानर भी बैठे थे। विमान से उतरते ही प्रेमाश्रुओं का ज्वार सा उमड़ा जिसमें सभी बह गए। माता कैकेयी के आंसुओं में प्रसन्नता के साथ-साथ पश्चाताप भी था। राज्याभिषेक की तैयारियां लगभग पूर्ण थीं। मंगल गायन व मंत्रोच्चार के बीच राम अयोध्या के राजा हुए। अयोध्या धन्य हो उठी। चारों ओर उत्सव का वातावरण था। कौशल्या, सुमित्रा व कैकेयी की प्रसन्नता तो थमने का नाम ही न लेती थी। राजा दशरथ की मृत्यु के वर्षों पश्चात अवध में ऐसा अवसर आया था।
संध्या समय राजकुटुंब एकत्र हुआ। राम अपनी मां से बोले- ‘मैं आज अवध का राजा बना हूं। मेरी इच्छा है कि मैं अपने छोटे भाई-भावजों को कुछ उपहार दूं। माता कौशल्या ने उनका अनुमोदन किया तो वे भरत से बोले- ‘भैया! अभिषेक के इस पावन अवसर पर तुम्हें क्या भेट करूं? भरत जी की मांग तो जगविख्यात है। उनके नेत्रों से पे्रमाश्रु बरसने लगे, ‘बस, प्रभु आपके चरणों में मेरी प्रीति बनी रहे।
भरत की धर्मपत्नी मांडवी बोली- ‘मुझे रघुकुल में पुत्रवधु बनने का सौभाग्य मिला, अब मांगने को शेष कुछ नहीं रहा।! लक्ष्मण ने उत्तर दिया- ‘बाल्यकाल से आपका साथ मिला। मेरा सौभाग्य, परंतु निवेदन यही है कि जीवनपर्यंत मुझसे विलग न होना। लक्ष्मण की धर्मपत्नी उर्मिला ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया- ‘हे कुल श्रेष्ठ! कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी मेरा धैर्य न छूटे, बस यही चाहती हूं मैं।
शत्रुघ्न ने भरत की ओर देख शीश नवा दिया। अर्थात् वे चाहते थे कि उन्हें भरत की सेवा करने का सुअवसर प्राप्त हो। अंत में श्रीराम ने शत्रुघ्न की भार्या श्रुतकीर्ति की ओर निहारा तो वह विनीत स्वर में बोली- ‘प्रभु! मुझे केवल वह वल्कल दे दीजिए जो आप दोनों ने वन में धारण किए थे।
समस्त राजपरिवार स्तब्ध हो उठा। भला श्रुतकीर्ति उन वस्त्रों का क्या करेगी? स्वयं श्रीराम और सीता के मुख पर भी जिज्ञासा उभर आई। श्रुतकीर्ति ने कहा- मैं जानती थी कि मनुष्य को अपनी आयु के चौथे प्रहर में वनवास करना पड़ता है। यही शास्त्रों का विधान है परंतु कोई नहीं जानता कि रघुकुल में कब, किसे व कैसे वनवास भोगना होगा। आप दोनों के वल्कल (वस्त्र) मुझे स्मरण करवाएंगे कि जीवन में रेशमी चकाचौंध के पीछे एक कटु सत्य भी छिपा है। सुखों के स्वर्णिम कोष पर दु:ख कभी भी सेंध लगा सकता है। मनुष्य को सदैव उस क्षण के लिए तत्पर रहना चाहिए। श्रुतकीर्ति का उत्तर सुन सभी चकित हो उठे। महारानी सीता ने उसे वल्कल (वस्त्र) ला थमाए और मस्तक चूम लिया।
