God Rama: जो आनंद का समुद्र और सुख के भंडार हैं, जिनकी एक बूंद से तीनों लोक सुखी हो जाते हैं, उनका नाम राम हैं। वह सुख के धाम हैं और संपूर्ण लोकों को शांति देने वाले हैं। तुलसी दास कहते हैं ‘राम’ शब्द सुख-शांति के धाम का सूचक है। राम की प्राप्ति से ही सच्चे सुख और शांति की प्राप्ति होती है। राम सर्वशक्तिमान हैं। उनकी भौंहों के तेवर मात्र से सृष्टि की उत्पत्ति और विनाश होता है। ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम राम केवल एक आदर्श मनुष्य, पुत्र, भाई व पति ही नहीं बल्कि एक आदर्श व कुशल शासक भी हैं। उनके शासन काल में व्याप्त सुव्यवस्था के कारण ही आज भी रामराज्य का उदाहरण दिया जाता है। आइये जानते हैं भगवान राम के आदर्श शासक के गुणों को।
शरणागत की रक्षा करने वाले
श्रीराम का चरित्र इतना उदात्त है कि वह अपनी शरण में आने वाले का त्याग किसी भी सूरत में नहीं करते हैं, चाहे उसने कितना ही बड़ा अपराध क्यों न किया हो? शरणागत की रक्षा करने के लिए उन्हें अपने प्राणों की बाजी क्यों न लगानी पड़ जाए, लेकिन वह उसे अपने से अलग नहीं करते हैं।
लंका का राजा रावण अपने भाई विभीषण को लात मारकर अपमानित करता है और उन्हें देश निकाला दे देता है। विभीषण का अपराध केवल इतना था कि उन्होंने रावण को सीता जी को ससम्मान श्रीराम के पास पहुंचाकर उनकी शरण में जाने की सलाह दी थी। तब विभीषण आकाश मार्ग से प्रभु राम की शरण में आते हैं और भगवान राम सुग्रीव द्वारा विभीषण के प्रति संदेह जताने के बावजूद शरणागत की रक्षा करने की बात करते हैं। श्रीराम शरणागत की सर्वविध रक्षा करने वाले हैं।
आज व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो गया है- जानवरों की तरह केवल अपने लिए ही जीने वाला ‘बिना पूंछ का जीव’। उसकी सोच ‘मैं’ और ‘मेरा परिवार’ तक सीमित रह गई है। वह अपने सामने हाथ पसारने वाले व्यक्ति का तिरस्कार और अपमान करता है, फिर उसकी शरण में आने वाले की तो बात ही क्या? शरणागत से कहता है- मैंने अनाथालय नहीं खोल रखा है कि जब चाहे, जो भी मेरे घर चला आए। राम की तरह हम भी शरणागत की रक्षा करें, दीन-दुखियों के काम आएं, तभी हमारे जीवन की सार्थकता है।

वचन का पालन करने वाले
श्रीराम का जन्म रघुकुल में हुआ है और रघुकुल की यह परंपरा रही है कि भले ही प्राण चले जाएं, लेकिन किसी भी कीमत पर वचन भंग नहीं होना चाहिए। वह रघुकुल के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। अपने पिता अयोध्या के राजा दशरथ और माता कैकेयी के वचनों का पालन करने के लिए ही वह चौदह वर्ष का वनवास भोगते हैं। राजा दशरथ तो अपने पुत्र राम के लिए अपना वचन तक तोड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन श्रीराम यह कहकर कि इससे आप और मैं दोनों ही अपयश के भागी होंगे, उनको चुप रहने के लिए विवश कर देते हैं। राजा दशरथ उनको दृढ़ निश्चयी जानकर ही मौन धारण करते हैं। उनके छोटे भाई भरत पूरा प्रयास करते हैं कि श्रीराम वापस अयोध्या लौटकर राजकाज संभालें, चाहे उनकी जगह शत्रुघ्न सहित वह वनवास करें, लेकिन अपने पिता को दिए गए वचन से वह उन्हें डिगा नहीं पाते।
हनुमान जी के माध्यम से जब उनकी सुग्रीव से भेंट होती है, तो वह उन्हें किष्किंधा का राजा बनाने का वचन देते हैं। सुग्रीव के मन में कुछ संदेह है, जिसे वह इस प्रकार दूर करते हैं-
जो कछु कहेउ सत्य सब होई।
सखा बचन मम मृषा न होई।।
हे सखा सुग्रीव! मेरा वचन मिथ्या नहीं होता अर्थात् बालि को मैं एक ही बाण से मार डालूंगा और तुम्हें किष्किंधा का राज्य प्राप्त होगा। श्रीराम पापाचारी बालि को मारकर सुग्रीव को किष्किंधा का राजा बनाकर अपने वचन का पालन करते हैं।
राम से हमें अपने संकल्प को पूरा करना और वचन निभाना सीखना होगा। किसी को वचन देकर तोड़ना और संकल्प लेकर पूरा न करना कमजोर चरित्र की निशानी है। जो अपना वचन निभाते हैं, वे सच्चे अर्थों में मनुष्य होते हैं।
आपात काल में उचित प्रबंधन करने वाले
श्रीराम अपनी अनुपस्थिति में हर कार्य को विधिवत और सुचारू रूप से पूरा करने के लिए हर चीज का उचित प्रबंधन करते हैं। वह केंद्रीकरण नहीं, अपितु विकेंद्रीकरण के पक्षधर हैं अर्थात् अपने हाथ में सारी शक्ति रखकर उसको योग्यतानुसार दूसरे व्यक्तियों में बांटकर उनकी जबावदेही तय करते हैं।
समुचित प्रबंधन वह गुण है, जिसमें किसी भी कार्य को सुव्यवस्थित तरीके से समय पर किया जा सकता है। इससे व्यक्ति का अहंकार मिटता है और उसमें विकेंद्रीकरण की भावना का विकास होता है। राम का प्रबंध कौशल तारीफ के काबिल है। वह अपने सामने और अपनी अनुपस्थिति में किसी भी व्यक्ति से उसकी क्षमताओं के अनुसार कार्य कराने में निपुण हैं। उनके प्रबंध कौशल को यदि हम अपने जीवन में अपनाएंगे, तो हमारा कोई भी कार्य अधूरा न रहकर समय पर पूरा होगा।
धर्म और सत्यप्रिय
राम धर्म का पालन करने वाले हैं और उस मार्ग पर दृढ़ता से चलते हैं। वह सत्य का आचरण करते हैं। उनके समूचे जीवन को देखने के बाद यह तथ्य उभरता है कि सत्य का पालन करने में ही उन्होंने अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया। वह न तो अधर्म करते हैं और न दूसरे को करने देते हैं। अधर्म का नाश करना ही उनके जीवन का उद्देश्य है। वह पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए सहज ही वन जाने को तैयार हो जाते हैं। वह भरत को भी धर्म मार्ग पर चलकर गुरु मंत्री और माताओं की आज्ञा से राज करने की सलाह देते हैं। ऐसा करने से उन पर इन सम्मानित लोगों का अंकुश रहेगा और वह धर्म मार्ग से कभी विचलित नहीं हो सकेंगे। भरत भी उनकी आज्ञानुसार कार्य करते हैं।
इस युग में मनुष्य असत्य के मार्ग पर चलकर अधर्मी होता जा रहा है। उसके नैतिक मूल्यों का तेजी से पतन होता जा रहा है। ऐसा करके उसे आत्माग्लानि भी नहीं होती। उसे लोक-परलोक की चिंता नहीं। राम के सत्य और धर्म जैसे जीवन मूल्यों को अपनाकर हम अपना जीवन सुधारने के साथ ही दूसरों के सामने भी आदर्श प्रस्तुत कर सकते हैं। हालांकि इस मार्ग पर चलने पर बहुत सी कठिनाइयां और कष्ट आएंगे, यदि हम बिना धैर्य खोए लगातार आगे बढ़ते रहेंगे, तो आखिर में जीत सत्य की ही होगी।

सच्चे समाजवादी
राम ऊंच-नीच, छोटे-बड़े और राजा-प्रजा का भेद नहीं मानते। वह समदर्शी हैं और सच्चे अर्थों में समाजवादी हैं। जो व्यक्ति उनके संपर्क में आता है, वह उसे दिल से अपनाते हैं। जो उनके लिए एक-एक कदम आगे बढ़ाता है, वह उसके लिए दस कदम आगे बढ़कर उसे गले लगाते हैं।
राम के राज्याभिषेक की घोषणा की सूचना मिलने पर राम सोचते हैं कि हम सब भाई एक ही साथ जन्में, खाना, सोना, लड़कपन के खेलकूद, कर्णछेदन, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए। पर इस निर्मल वंश में एक यही अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े भाई का ही अर्थात् मेरा ही हो रहा है। अपने भाइयों के बारे में राम का ऐसा कहना उनका समदर्शी और समाजवादी होना सिद्ध करता है।
वन जाते समय वह श्रृंगवेरपुर जाते हैं। उस पुर का राजा निषादराज गुह उनके स्वागत के लिए आता है। यह जाति उस समय अछूत मानी जाती थी। लेकिन राम जात-पात का भेद भूलकर उनके प्रेम को सम्मान देते हैं तथा उन्हें सिर्फ एक मनुष्य के रूप में देखते हैं। वह गुह द्वारा कुश और कोमल पत्तों से बनाई हुए सांथरी पर बैठते हैं और सोते हैं और उसके द्वारा दोनों में दिए गए फल खाकर पानी पीते हैं।
केवट भी नीच जाति का था। श्रीराम उस अछूत केवट को उसकी विनती पर अपने पैर धोने का सौभाग्य देते हैं। इसके अलावा राम नीच कुल में पैदा हुई शबरी के आश्रम में आते हैं। वह राम के गुणों की बहुत बड़ी प्रशंसक है। वह अपने बारे में स्वयं कहती हैं-
केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी।
अधम जाति मैं जड़मति भारी।।
उन्हीं शबरी से राम कहते हैं- हे भामिनी सुनो! मैं जाति-पाति, कुल, धर्म, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता इन सबको महत्त्व नहीं देता। मैं तो एक प्रेम का नाता मानता हूं-
कह रघुपति सुनु भामिनी बाता।
मानउं एक भगति कर नाता।।
भगवान के साथ वास्तविक संबंध वही है, जिसमें उनसे कुछ भी मांगा न जाए। यदि मांगा भी जाए तो बस उनके चरण कमलों में स्थान की याचना की जाए।
सच्चे समाजवाद का पाठ हमें राम से सीखना चाहिए, जिन्होंने शोषित और पद दलित लोगों को गले लगाकर उन्हें समाज में प्रतिष्ठा दिलाई। समय आने पर वह उनके काम आए और उनके जीवन स्तर को उठाने में अपने पूरा जीवन लगा दिया।
सबकी सलाह से कार्य करने वाले
चित्रकूट में रहकर राम जब अपनी पत्नी सीता जी और भाई लक्ष्मण के साथ अत्रि, शरभंग और सुतीक्ष्ण मुनियों से मिलते हुए अगस्त्य मुनि के पास आते हैं तो उनसे निवेदन करते हैं-
अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही।
जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही।।
तब अगस्त्य मुनि दंडक वन में स्थित पंचवटी नामक स्थान में उनको रहने की सलाह देते हैं और वह मुनि की आज्ञा का पालन करते हुए पचंवटी में आ जाते हैं। सीता हरण के बाद राम शबरी के आश्रम में आते हैं। वह उनका बहुत स्वागत-सत्कार करती है। राम उन्हें तरह-तरह के उपदेश देकर अंत में अपनी पत्नी सीता के विषय में उनसे पूछते हैं। फिर वह शबरी की सलाह मानकर उचित कदम उठाते हैं। सुग्रीव से मित्रता करते हैं और सीता जी की खोजकर दोबारा उन्हें पाने में सफल होते हैं।
राम बहुत चतुर और विवेकशील पुरुष हैं। उनमें लेशमात्र भी अहंकार नहीं है। फिर भी किसी कार्य को करने से पहले दूसरों का मत अवश्य लेते हैं और बाद में दोनों मतों की तुलना करके अपने विवेक से निर्णय लेते हैं। उनसे प्रेरणा लेकर हमें भी किसी भी कार्य को करने से पहले दूसरों की राय लेनी चाहिए।
कूटनीतिज्ञ
राम बहुत बड़े कूटनीतिज्ञ भी हैं। देश, काल, वातावरण और समय का ध्यान रखते हुए बहुत नाप-तोलकर किसी विषय में निर्णय लेते हैं और नपे-तुले कदमों से ही कार्य विशेष में आगे कदम बढ़ाते हैं। सफल कूटनीतिज्ञ होने की वजह से उन्हें किसी भी कार्य में असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ता है। विभीषण के बारे में एक कहावत प्रसिद्ध है- ‘घर का भेदी लंका ढाए’ अर्थात् विभीषण जैसा घर का भेदी लंका को बर्बाद कर देता है। विभीषण राम के पास आते हैं। राम अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए उसे स्वीकार करते हैं, क्योंकि वह जानते हैं कि ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता हैÓ यह भविष्य में हमारे काम आएगा और वास्तव में बहुत से मौकों पर राम के काम आते हैं। लंका के अनेक भेद समय-समय पर राम को बताते हैं। राक्षसराज रावण भी विभीषण द्वारा बताए गए ‘नाभिकुंड के अमृत’ के भेद को बताने पर ही मारा जाता है।
किसी भी महत्त्वपूर्ण और गंभीर कार्य में कूटनीति का विशेष महत्त्व है। कूटनीतिज्ञ अपनी बुद्धि, विवेक, चतुरता, नीति आदि के सम्यक प्रयोग से अपने कार्य में सफल होता है। वह साम, दाम, दंड व भेद का प्रयोग अपने कार्य को सफल बनाने के लिए करता है। राम एक सफल कूटनीतिज्ञ के रूप में हमारे सामने आते हैं। हमें भी उनसे कूटनीतिज्ञ का सबक सीखना चाहिए, तभी हम अपने जटिल कार्यों को सफलतापूर्वक संपन्न कर सकते हैं।
दूरदर्शी
राम दूरदर्शी हैं। आगे होने वाली घटनाओं का सहज अनुमान लगा लेना, आवश्यकता पड़ने पर दूसरों को सचेत कर देना और समय के अनुसार कार्य करना उनके स्वभाव में शामिल है। वह अपने प्रिय व्यक्ति को सचेत करते हैं, यदि किसी कारणवश वह उनकी बात नहीं मानता है, तो इसका परिणाम भी वह स्वयं भोगता है। सीता जी के वन जाने की जिद करने पर राम उन्हें वन के कष्टों व क्लेश के बारे में समझाते हैं लेकिन सीता जी नहीं मानतीं। तब वह कहते हैं- स्वभाविक हित चाहने वाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर पर रखकर नहीं मानता, वह बाद में भरपेट पछताता है और उसके हित को हानि अवश्य होती है।
राम की दूरदर्शिता के गुण से हमें यह सीख मिलती है कि मनुष्य को दूरदर्शी होना चाहिए। उसे अपने भीतर वह क्षमता विकसित करनी चाहिए, जिससे वह किसी भी घटना के बारे में पूर्वानुमान लगाकर, उसके लाभ और हानि का आकलन करके अपने कार्य की शुरुआत करे। इसके लिए वह अपने मन को एकाग्र रखे और हड़बड़ी में कोई निर्णय न ले। अपनी दूरदर्शिता से राम ने अपने जीवन में कदम-कदम पर सफलता पाई, हालांकि कई बार ऐसा लगा कि वह हार रहे हैं, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वह जीते और बखूबी जीते।

रामराज्य: सच्चा लोकतंत्र
राम राज्य को आदर्श राज्य माना जाता है। इस धरती पर अब तक जितने भी शासक हुए हैं, उनमें श्रीराम की गणना सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। उनके राज्य में सच्चा लोकतंत्र था। श्रीराम वेदों में बताई गई मर्यादा में रत रहकर सुनीतिपूर्वक शासन करते हैं। उनके लिए प्रजा स्वयं के बच्चों के समान है और वह उसके पालक पिता हैं। ऐसा कल्याणकारी राज्य अब तक किसी राजा का नहीं हुआ। इसलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतवर्ष में ‘रामराज्य’ की परिकल्पना की थी, जिससे ‘स्वराज्य’ को ‘रामराज्य’ जैसा ‘सुराज’ बनाया जा सके। लेकिन भारत ‘सुराज’ नहीं बन पाया। रामराज्य में दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से कोई पीड़ित नहीं होता। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई मर्यादा में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं। आजकल रामराज्य के विपरीत मनुष्य दैहिक, जैविक और भौतिक तीनों तापों से पीड़ित है।
इस युग में धर्म पर संकट आया हुआ है। मनुष्य झूठ का चलता-फिरता पुतला बन गया है। वह झूठ के लिए झूठ बोलता है। वह भीतर और बाहर से अपवित्र हो गया है। दया दिखाना तो दूर, यदि कोई दूसरा मनुष्य किसी व्यक्ति पर दया करता है तो वह उसकी हंसी उड़ाता है।
श्री रामचंद्र जी के राज्य में चंद्रमा अपनी अमृतमयी किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं। सूर्य उतना ही तपते हैं, जितने की आवश्यकता होती है और मेघ मांगने से अर्थात् जब जितना चाहिए, उतना ही जल देते हैं। प्रकृति के पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु) में असंतुलन पैदा होने के कारण आकाश में स्थित सूर्य और चंद्रमा की अमृत बरसाने वाली किरणों की तीव्रता में भी उतार-चढ़ाव आया है। जो सूर्य पूर्व में धरती के प्राणियों को जीवन ऊर्जा देने के लिए तपते थे, अब प्रदूषण के कारण गर्मियों में उनका ताप इतना हो जाता है कि तापमान पचास डिग्री सेल्सियस तक पहुंच
जाता है। प्रकृति में व्याप्त इस असंतुलन के कारण पूरा मानव जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में रामराज्य की परिकल्पना ही मनुष्य को घोर विनाश से बचा सकती है।
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