story of child dhruva
story of child dhruva

Hindi Kahani: ऋषियों के द्वारा यह पूछे जाने पर कि ने किस प्रकार भगवान् विष्णु को प्रसन्न करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया और ग्रहों के मध्य एक अटल नक्षत्र के रूप में प्रमुख स्थान पाया। सूत ने बताया कि-एक बार स्वयं उन्होंने मार्कण्डेय मुनि से यह चरित्र सुनने की इच्छा प्रकट की। तब मार्कण्डेय मुनि ने उन्हें यह इस प्रकार सुनाया कि-श्रेष्ठ महान् तेजस्वी युद्ध निपुण चक्रवर्ती राजा उत्तानपाद इस पृथ्वी पर अधिपति के रूप में शासन करता था। राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं। बड़ी का नाम सुनीति तथा छोटी का नाम सुरुचि था।

सुनीति का पुत्र ध्रुव बड़ा ही यश वाला था मेधावी था। जिस समय वह सात वर्ष का था वह अपने पिता की गोद में बैठा हुआ था। छोटी रानी अपने रूप-सौंदर्य के गर्व में बहुत अधिक ईर्ष्यालु थी। उसे ध्रुव का इस प्रकार पिता की गोद में बैठना अच्छा नहीं लगा। उसने कुमार ध्रुव को राजा की गोद से उतारकर अपने पुत्र उत्तम को बैठा दिया। बालक ध्रुव इस व्यवहार दुःखी होकर अपनी मां के पास आकर रोने लगा। माता सुनीति ने पुत्र को दुखी देखकर और कारण जानकर कहा-बेटा, सुरुचि अपने पति की प्रेमिका पत्नी है, उसका पुत्र भी उसी प्रकार राजा को प्रिय है। तू क्यों चिन्ता करता है, अपने अटल विश्वास और शक्ति द्वारा तू राज-सिंहासन से भी बड़ा पद पा सकता है। मां से ऐसा सुनकर बालक ध्रुव उसी समय वन को चला गया। ध्रुव को रास्ते में महर्षि विश्वामित्र के दर्शन हुए।
सर्वप्रथम मुनि को प्रणाम करके उसने उनसे अपने मन की व्यथा कही और सारा वृत्तान्त कहते हुए परम पद की प्राप्ति के लिए उपाय आ। विश्वामित्र ने ध्रुव के अटल विश्वास को देखकर कहा कि भगवान् शंकर के दाएं अंग से जन्म लेने वाले जगत् के स्वामी और क्लेशों के नाश करने वाले भगवान् केशव की आराधना करो। वही तुम्हें अपना सान्निध्य प्रदान करेंगे। यह कहते हुए महर्षि ने ध्रुव को ‘नमो भगवते वासुदेवाय’ का दिव्य मन्त्र दिया और कहा कि जो श्रद्धापूर्वक इस सनातन मन्त्र का जाप करता है वह निश्चय ही परम-पद प्राप्त करता है।

महर्षि से प्रबोधित होकर ध्रुव ने पूर्व की ओर मुख करके नियत होकर जप करना प्रारम्भ कर दिया। एक वर्ष तक निरन्तर अतीन्द्रिय रहते हुए उसने घोर तपस्या की। फल और शाक का आहार लिया और मन्त्र जाप करता रहा। उस काल में उसकी तपस्या को भंग करने उसे मोहित करने के लिए बेताल, राक्षस, सिंह आदि अनेक उपद्रवी उपस्थित हुए किन्तु भगवान् वसुदेव के द्वादश अक्षर मन्त्र की कृपा से बाल भी बांका नहीं हुआ। यहां तक कि एक पिशाचिनी उसकी मां सुनीति के रूप में भी आई तथा रुदन करते हुए, एक ही पुत्र का वास्ता देते हुए उसके सामने विलाप करने लगी। ध्रुव ने उस छलना की ओर देखा तक भी नहीं और वह अपने हरि नाम जप में लगातार मग्न रहा।ऐसे अनेक विघ्नों को पार करता हुआ अटल विश्वासी ध्रुव कठोर जप करता रहा। उसकी इस घोर तपस्या, आस्था और विश्वास को देखकर स्वयं भगवान् वासुदेव गरुड़ पर सवार होकर विद्युत गति से उसके सम्मुख पधारे। उनके साथ स्वर्ग के सभी देवता थे, जो ऋषि-महर्षियों द्वारा स्तुत्यमान हो रहे थे। ऐसे समूह से घिरे भगवान् श्री नारायण ध्रुव के समीप आकर उपस्थित हुए। सामने साक्षात् विष्णु को देखकर मन में विचार किया कि यह कौन हैं और वह जगत् के स्वामी हृषीकेश के रूप-सौंदर्य का पान करता हुआ ‘ओ३म्नम:भगवते वासुदेवाय’ मन्त्र का जाप करता रहा। यह देखकर गोविन्द ने अपने पाञ्चजन्य शंख से उसके मुख का स्पर्श कराया।इसके पश्चात् बालक ध्रुव ने उस परम पुरुषोत्तम को देखकर हाथ जोड़कर उनका स्तवन किया कि हे देवों के देव, सम्पूर्ण लोकों की आत्मा, शंख,चक्र, गदा धारण करने वाले, वेदों में गुह्य केशव, मैं अबोध बालक आपके स्वरूप को क्या जान सकता हूं-मैं आपको सब विधि प्रणाम करता हूँ। भगवान् विष्णु ने उससे प्रसन्न होकर कहा-हे वत्स! तुम वास्तव में ध्रुव हो, आओ ध्रुव स्थान को प्राप्त हो जाओ।

ध्रुव का वृत्तान्त सुनने के पश्चात् ऋषियों ने सूत से कहा हे मुनिश्वर! आप कृपा करके देव, दानव, गन्धर्व, उरग और राक्षस सृष्टि का विवरण सुनाएं ताकि सृष्टि के बारे में हमें विधिवत् ज्ञान हो सके। ऋषियों की ऐसी जिज्ञासा देखकर सूत ने कहा कि आदि पुरुषों की सृष्टि मन के संकल्प के दर्शन और स्पर्श से हुई मानी जाती है। जिस समय देवताओं ऋषियों की रचना करने पर जब सृष्टि का विस्तार नहीं हुआ तो सबसे पहले दक्ष ने सूती नाम की पत्नी से मैथुन द्वारा पांच हजार सन्तानें उत्पन्न की। यह स्त्री पुरुष के संयोग से रची सृष्टि से ही अनेक प्रकार की प्रजा सृजन की इच्छा से यह संसार आगे बढ़ा।

इस प्रकार उत्पन्न शरीर के जन्म और अवसान का रहस्य जान कर दक्ष प्रजापति के पुत्र हर्यश्वों से कहा कि आप लोग सृष्टि कर्म में प्रवृत्त हों। यह सुनकर वे सभी सब दिशाओं की ओर चले गए-समुद्र में मिलने वाली नदियों की तरह ये सभी फिर लौटकर नहीं आए। हर्यश्यों को इस प्रकार विरक्त गए जानकर दक्ष ने अपनी सूत भार्या से एक हजार पुत्र उत्पन्न कराए लेकिन काल गति प्रभाव से वे भी हर्यश्वों के ही पदचिह्नों पर चल पड़े। इसके पश्चात् दक्ष ने वैरिनी पत्नी से अबकी बार आठ कन्याएं उत्पन्न कीं। इसमें दस कन्याएं धर्म की, तेरह कश्यप मुनि को, सत्ताईस सोम को, चार अरिष्ट नेमि को, दो भूगु पुत्र को, दो धीमान और कृशाश्व को तथा दो अंगिरस को प्रदान कर दी।मरुत्वती, वसु, यामि, लम्बा, भानु, अरुन्धती, संकल्पा, मुहूर्ता,साध्या, विश्वा आदि सभी दस कन्याएं धर्मपत्नी कहलाई। मरुत्वती के मरुत्वान, वसु के वसुगण, लम्बा से घोष, भानु से भानुगण, संकल्पा से संकल्प, मुहूर्ता से मुहूर्तक, साध्या से साध्य, यामि से नागवीयि और विश्वा से विश्वदेव का जन्म हुआ। इनमें काप, ध्रुव, सोम, घर, अनिल, अनल, प्रत्युष तथा प्रमाष-आठ वसुगण तथा अर्जेकपाद, अहिबुर्धन्य, विरूपाक्ष, सभैरव, हर, बहुरूप,त्र्यम्बक,सुदेश्वर, सवित्र, जयन्त, पिनाकी से अपराजित एकादश रुद्र कहलाए।
अदिति, दिति, अरिष्टा, सुरस्त, मुनि, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इला,कद्रू, त्विषा तथा दनु कश्यप की पत्नियां बनीं। इनमें अदिति से द्वादश आदित्य जन्मे जिनको इंद्र, धाता, त्वष्टा, मित्र, वरुण, अर्यमा, विवस्वान, सविता, पूषा, अंशुमान और विष्णु कहा गया। दिति से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु का जन्म हुआ, त्विषा से तुषित, दनु से दानव, ताम्रा से शुकी, श्येनी, भासी सुग्रीवी, मृध्रिका और शुचि नाम की कन्याएं जन्मीं। श्येनी से श्येन, मासी से आगे कुरण उत्पन्न हुए। गृध्री से गिद्धों, कपोतों का, शुचि से सारस, हंस, सुग्रीवी से बकरी अश्व, मेष, अंध, विनता से गरुड़ उत्पन्न हुए। सुरजा से एक सहस्र सर्प जन्मे। इस प्रकार चर और स्थावर सृष्टि के उत्पन्न होने के बाद प्रजापति ने उनके अधिपति बनाए। मनुष्यों का अधिपति वैवस्वत मनु को बनाया। स्वायम्भुव मनवन्तर में ब्रह्मा द्वारा अभिषेचित यह सात द्वीपों वाली सृष्टि अभी भी उसी प्रकार प्रतिपालित है। मन्वंतरों के बीतने पर इनके पार्थिव भी चले गए। नये मन्वंतर के प्रारम्भ में अन्य अभिषिक्त हुए। वंश की कामना से ही कश्यप ने यह सृष्टि उत्पन्न की। इसमें उनके यहां सर्वप्रथम दो पुत्र उत्पन्न हुए वत्सर और आसित। वत्सर के यहां महायशी रैम्य और नैध्रुव पैदा हुए। च्यवन ऋषि की पुत्री सुमेधा नैध्रुव की पत्नी बनी। आसित के यहां सांद्रिल्य श्रेष्ठ देवल ने जन्म लिया। ये तीनों ही काश्यप कहलाए।

इसी क्रम में त्रेता युग में नरिष्यंत पुत्र दभ के यहां तृणबिन्दु ने जन्म लिया। इसकी इलविला कन्या का पाणिग्रहण पुलस्त्य के साथ हुआ। इससे विश्रवा का जन्म हुआ। विश्रवा की चार पत्नियां थी। जिनमें एक बृहस्पति की कन्या देववर्णिनी थी। दो माल्यवान कन्याएं थी एक माली कन्या कैकयी थी।
विश्रवा के यहां देववर्णिनी से वैश्रवण पुत्र का जन्म हुआ, कैकसी ने रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण पुत्रों तथा शूर्पणखा नाम की कन्या को जन्म दिया। पुषोत्कटा से महोदर प्रहस्त, महापार्श्व तथा खर पुत्रों को जन्म दिया। इसी के यहां कृम्भीनसी कन्या का भी जन्म हुआ। बला के यहां त्रिशिरा, दूषण का जन्म हुआ तथा मालिका नाम की कन्या उत्पन्न हुई।। इनमें विभीषण सबसे अधिक धर्मात्मा और ज्ञानी था। वैवस्वत मन्वंतर में क्रतु निःसंतान हुए। अत्रि-मुनि पुत्र सभी आत्रेय कहलाए। काश्यप, नारद, पर्वत और अनुद्धत, ये सभी ब्रह्मा के मानस पुत्र हुए। वशिष्ठ ने अरुन्धती से सौ पुत्र उत्पन्न किए। देवी काली ने पराशर से द्वैपायन प्रभु को उत्पन्न कराया। द्वैपायन ने शुकदेव का जन्म हुआ। शुक के पुत्रों में भूरिश्रवा, प्रभु, शम्भू, कृष्ण, पंचम, गौर हैं तथा योगमाता, धृतव्रता कीर्तिमती कन्या हुई। वसिष्ठ के यहां ही धृताची से कपिल का जन्म हुआ। यह त्रिमूर्ति कहलाए। पृथु की पुत्री से भद्र इससे भद्रवसु का जन्म हुआ। इसका पुत्र उपमन्यु, इस प्रकार महात्मा वसिष्ठ के दस पक्ष कहलाए। सहस्रों की संख्या में ये पुत्र-पौत्र सूर्य की किरणों के समान तीनों लोकों में व्याप्त हो रहे हैं।