Raja Suratha
Raja Suratha

Bhagwan Vishnu Katha: प्राचीन समय की बात है-जगदलपुर में सुरथ नाम के एक चन्द्रवंशी राजा राज्य करते थे । राजा सुरथ सत्यवादी, कर्मनिष्ठ, गुरु में श्रद्धा रखने वाले तथा सदाचारी व्यक्ति थे । एक बार पड़ोसी देश के राजा ने सुरथ के राज्य पर आक्रमण कर दिया । दोनों राज्यों की सेनाओं में अनेक दिनों तक युद्ध होता रहा । अंत में राजा सुरथ पराजित हो गए । प्राण बचाने के लिए उन्होंने अपना घोड़ा वन की ओर दौड़ा दिया ।

वन में कुछ दूर चलने के बाद वे विश्राम करने के लिए एक वृक्ष के नीचे बैठ गए । इतने ही में वहाँ एक दु:खी व्यक्ति आया और उन्हें अभिवादन कर उनके समीप ही बैठ गया । सुरथ ने उसका परिचय पूछा ।

अपना परिचय देते हुए वह बोला – “मित्र ! मैं धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ । मेरा नाम समाधि है । मेरे स्त्री और पुत्रों ने धन के लोभ में मुझे घर से निकाल दिया है । मैं इस समय धन, स्त्री और पुत्रों से वंचित हूँ । मेरे अपनों ने ही धन के लोभ में मुझे घर से निकाल दिया है, इससे दु:खी होकर मैं वन में चला आया हूँ । लेकिन अब भी मुझे अपनी स्त्री और पुत्रों की चिंता सता रही है कि वे मेरे बिना कुशल से हैं या नहीं ।”

सुरथ ने भी समाधि को अपने बारे में बताया और कहा – “मित्र ! यहाँ निकट ही मेधा मुनि का आश्रम है । हमें उनकी शरण में चलना चाहिए । वे हमारे शोक-नाश का कोई उपाय अवश्य बताएँगे ।”

दोनों मेधा मुनि के आश्रम में पहुँचे । मुनि ने उन्हें प्रेम से बिठाया और वहाँ आने का कारण पूछा । तब सुरथ बोले – “मुनिवर! इन्हें इनकी स्त्री और पुत्रों ने धन के लोभ में घर से निकाल दिया है । कुटुम्ब से अलग होने के कारण इनके मन में अपार दुःख हो रहा है । इस समय मेरी भी यही स्थिति है । शत्रुओं ने मेरा राज्य छीन लिया है । अब आप ही हमारा मार्गदर्शन करने की कृपा करें ।”

मेधा मुनि ने उन्हें भगवती दुर्गा के नवाक्षर मंत्र का उपदेश दिया । वे दोनों नवाक्षर मंत्र का निरंतर जप करने लगे । अंत में दुर्गा माता ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए और अभिलषित वर माँगने को कहा ।

सुरथ ने भगवती दुर्गा से अपना राज्य और समाधि ने दिव्य ज्ञान प्रदान करने की प्रार्थना की । इच्छित वर प्रदान करके भगवती दुर्गा अंतर्धान हो गईं । इस प्रकार उनकी कृपा से सुरथ को अपना खोया हुआ राज्य पुन: मिल गया, जबकि समाधि एक परम ज्ञानी के रूप में जग प्रसिद्ध हुआ ।

अगले जन्म में सुरथ भगवान् सूर्य की दूसरी पत्नी छाया के गर्भ से उत्पन्न हुआ । संज्ञा के बड़े पुत्र वैवस्वत मनु के समान रंग-रूप होने के कारण वह सावर्णिक नाम से प्रसिद्ध हुआ । सावर्णिक शनि ( ग्रह) का बड़ा भाई था । उसने आठवें मन्वंतर का स्वामी बनकर मनु पद प्राप्त किया ।

इस मन्वंतर में दैत्यराज बलि इन्द्र पद पर आसीन हुए । परशुराम गालव और्व शरद्वान व्यास आत्रेय और अश्वत्थामा – ये इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे । इस मन्वंतर में श्रीविष्णु देवगुरु की पत्नी सरस्वती के गर्भ से सार्वभौम नाम से अवतरित हुए । उन्होंने इस मन्वंतर में पुरन्दर नामक इन्द्र से स्वर्ग का राज्य छीनकर दैत्यराज बलि को प्रदान किया था ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)