Satyavadi Raja Harishchandra
Satyavadi Raja Harishchandra

Bhagwan Vishnu Katha: त्रेतायुग की बात है, पृथ्वी पर हरिश्चन्द्र नाम के एक प्रसिद्ध राजा राज्य करते थे । वे बड़े धर्मात्मा सत्यप्रिय और दानवीर थे । वे अपनी प्रजा को संतान की तरह प्यार करते थे । उनके राज्य में चारों ओर सुख और समृद्धि का शासन था । सभी लोग प्रेमपूर्वक रहते थे । रोग, शोक, दुःख और निर्धनता आदि का वहाँ कोई स्थान नहीं था ।

राजा हरिश्चन्द्र की दानवीरता और सत्यप्रियता की कहानियाँ सुनकर विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया । उन्होंने एक भयंकर दैत्य उत्पन्न किया और उसे हरिश्चन्द्र के पास भेजा । उनके तप के प्रभाव से दैत्य भयंकर वराह (सूअर) में परिवर्तित हो गया । वह भयंकर गर्जना करता हुआ राजा हरिश्चन्द्र के उपवन में पहुँचा और रक्षकों को भयभीत करके उपवन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया ।

हरिश्चन्द्र को उसके बारे में पता चला तो वे उसी क्षण उपवन में पहुँचे । वहाँ उन्होंने एक भयंकर और विशाल वराह को गर्जना करते देखा । उसका वध करने के लिए उन्होंने धनुष पर बाण चढ़ाया और छोड़ दिया । लेकिन वराह बाण से बचकर भाग निकला । हरिश्चन्द्र उसके पीछे लग गए । फिर वराह एक वन में पहुँचकर आँखों से ओझल हो गया । उसका पीछा करते हुए हरिश्चन्द्र भी- उस वन में आ गए थे । वराह की खोज में काफी समय निकल गया । भूख और प्यास से वे व्याकुल हो उठे । उस भयंकर वन में रास्तों का भी उन्हें ज्ञान नहीं रहा । तभी उन्हें स्वच्छ और निर्मल जल से भरी एक नदी दिखाई दी । वे हाँफते हुए नदी के समीप गए और जल पीकर प्यास बुझाई । तभी महर्षि विश्वामित्र एक वृद्ध ब्राह्मण का वेश धारण कर वहाँ आए और उनसे उस निर्जन वन में आने का कारण पूछा । हरिश्चन्द्र ने उन्हें प्रणाम किया और सम्पूर्ण घटना बताने के बाद वहाँ से बाहर जाने का मार्ग पूछा ।

विश्वामित्र बोले – “राजन ! यह पवित्र तीर्थ पापों का नाश करने वाला है । तुम इस नदी में स्नान कर अपने पितृों का तर्पण करो । यह समय भी अति उत्तम चल रहा है । इस शुभ अवसर पर इस नदी में स्नान करके तुम्हें अपनी शक्ति के अनुसार दान करना चाहिए । किसी पवित्र तीर्थ से स्नान किए बिना लौटना शास्त्र विरुद्ध है । इसलिए इस उत्तम तीर्थ पर अपनी शक्ति के अनुसार स्नान-दान-पुण्य अवश्य करो । इसके बाद मैं तुम्हें इस वन के बाहर पहुँचा दूँगा ।” विश्वामित्र के छल से अनभिज्ञ हरिश्चन्द्र विधिवत स्नान के लिए नदी के तट पर आ गए । स्नान करके उन्होंने पितृों का तर्पण किया । तत्पश्चात् महर्षि विश्वामित्र से दान में अभिलषित वस्तु माँगने का आग्रह किया ।

हरिश्चन्द्र के प्रतिज्ञाबद्ध होने पर विश्वामित्र बोले – “राजन ! मुझे अपने पुत्र का विवाह करना है । इस कार्य के लिए कुछ धन की आवश्यकता है । आप वह धन देने का कष्ट करें ।” हरिश्चन्द्र ने उन्हें इच्छित दान देने का वचन दिया तो विश्वामित्र ने उन्हें उनके राजमहल में पहुँचा दिया और दान माँगते हुए बोले – “राजन ! धन-सम्पत्ति एवं रत्नों-आभूषणों से युक्त अपना सम्पूर्ण राज्य मेरे पुत्र को दहेज के रूप में दे दीजिए ।”

सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने कल्लण बिना किसी विचार के अयोध्या का राज्य महर्षि विश्वामित्र को दान में दे दिया । दान लेते ही विश्वामित्र बोले – “राजन ! बिना दक्षिणा का दान निष्फल समझा जाता है । अतः दान को सफल बनाने के लिए दक्षिणा में अपने वजन का ढाई भार सोना देने का प्रबंध करो ।” राजा हरिश्चन्द्र ने वह भी देना स्वीकार कर लिया ।

दूसरे दिन जब हरिश्चन्द्र पूजा-पाठ कर रहे थे तो सुबह-सवेरे ही विश्वामित्र वहाँ आ धमके और कठोर शब्दों में उनसे राज्य त्याग कर चले जाने के लिए कहा । इसके बाद हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी माधवी और पुत्र रोहित के साथ अपने राज्य से निकल पड़े । तीनों को राजपाट छोड़कर जाते देख प्रजा में हाहाकार मच गया । तभी विश्वामित्र ने हरिश्चन्द्र का रास्ता रोक लिया और उनसे अपनी दक्षिणा माँगी ।

इस पर सत्यप्रतिज्ञ हरिश्चन्द्र हाथ जोड़कर बोले – “हे ब्रह्मदेव ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि जब तक आपकी दक्षिणा नहीं दे दूँगा, भोजन नहीं करूँगा । आप संदेह न करें । अपना ऋण चुकाना मेरा परम कर्त्तव्य है । आप मुझे केवल एक महीने का समय देने की कृपा करें ।” तत्पश्चात् विश्वामित्र से आज्ञा लेकर राजा हरिश्चन्द्र अपने परिवार के साथ नगर से चले गए ।

अनेक दिनों तक भूखे-प्यासे चलते हुए वे भगवान् शिव की नगरी काशी में पहुँचे । वहाँ गंगा के तट पर स्नान करके उन्होंने पितृों का तर्पण किया । तभी विश्वामित्र पुन: वहाँ उपस्थित हो गए और बोले – “हे राजन ! आज निर्धारित समय पूरा होने वाला है । यदि सूर्यास्त तक मुझे दक्षिणा न मिली तो मैं शाप दे दूँगा ।”

विश्वामित्र की बात सुनकर रानी माधवी बोली – “नाथ ! महर्षि को दक्षिणा देने के लिए आप मुझे बेच दीजिए, अन्यथा ब्राह्मण के शाप से हमें नीच योनि में जन्म लेना पड़ेगा । यह कार्य आप जुआ खेलने, राज्य बढ़ाने और भोग भोगने के लिए नहीं अपितु अपने धर्म की रक्षा के लिए करेंगे । अतः सोच-विचार न करें, दक्षिणा चुकाकर आप अपने धर्म का पालन कीजिए ।”

सत्य के मार्ग पर चलते हुए हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी और पुत्र को एक ब्राह्मण के हाथों बेच दिया । ये वृद्ध ब्राह्मण वास्तव में विश्वामित्र ही थे । वे दुर्व्यवहार करते हुए रानी और राजकुमार को अपने साथ ले गए । कुछ क्षणों के पश्चात् विश्वामित्र पुन: हरिश्चन्द्र के समक्ष उपस्थित हुए और उनसे अपनी दक्षिणा माँगने लगे । हरिश्चन्द्र ने पत्नी और पुत्र के बदले प्राप्त धन को महर्षि के चरणों में रख दिया । दक्षिणा देख विश्वामित्र बोले – “राजन ! मैं शक्तियों से सम्पन्न एक तेजस्वी ब्राह्मण हूँ । तुच्छ कर्मों द्वारा अर्जित दक्षिणा मैं स्वीकार नहीं करूँगा । तुम शुभ कर्मों से धन अर्जित करो और फिर मुझे दक्षिणा दो ।”

तब विश्वामित्र के कहने पर हरिश्चन्द्र ने स्वयं को एक चाण्डाल के हाथों बेच दिया । उस चाण्डाल ने बदले में विश्वामित्र को सोना मणियों और मोतियों से युक्त हजारों रत्न दिए । तभी आकाशवाणी हुई “राजन ! दक्षिणा देकर तुम ऋण से मुक्त हो गए ।” इसके बाद हरिश्चन्द्र पर आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी । विश्वामित्र अपनी दक्षिणा लेकर वहाँ से चले गए और हरिश्चन्द्र चाण्डाल के पास रहकर कार्य करने लगे ।

माधवी को वृद्ध ब्राह्मण की दासी बने अनेक दिन बीत गए । एक बार रोहित हरी घास लाने के लिए अन्य बालकों के साथ वन में गया । वहाँ मुनि विश्वामित्र की प्रेरणा से एक भयंकर सर्प ने उसे काट लिया । सर्प के काटते ही रोहित की मृत्यु हो गई । संध्या के समय घर लौटकर उसके साथी बालकों ने माधवी को सबकुछ बताया ।

रोहित की मृत्यु का समाचार सुनकर वह क्रन्दन करते हुए वन की ओर भागी । मृत पुत्र को देख शोक से उसका हृदय बैठ गया । वह जोर-जोर से रोने लगी । उसका विलाप सुनकर आस-पास लोगों की भीड़ लग गई । वे परस्पर विचार करते हुए बोले – “अवश्य यह बच्चों को खाने वाली कोई पिशाचनी है । इसे मार डालना चाहिए ।”

फिर शीघ्र ही कुछ लोगों ने माधवी के केश पकड़ लिए और कुछ ने उसकी बाजुओं को पकड़ लिया । उसे घसीटते हुए वे चाण्डाल के पास ले आए । चाण्डाल ने हरिश्चन्द्र को बुलाकर कहा – “सेवक ! तलवार से इस पिशाचनी का सिर धड़ से अलग कर दो ।” इतना कहकर चाण्डाल ने हरिश्चन्द्र के हाथ में तलवार पकड़ा दी । हरिश्चन्द्र के केश भयानक जटाजूट के रूप में परिणत हो गए थे और उनकी देह पर काले वस्त्र थे । माधवी का शरीर भी अत्यंत दुर्बल और कांतिहीन हो गया था । इस कारण हरिश्चन्द्र न तो माधवी को पहचान सके और न ही माधवी उन्हें । सिर नीचा करके वे माधवी को मारने के लिए उद्यत हुए । तब वह करुण स्वर में -बोली – “हे चाण्डाल ! यदि तुम्हें उचित लगे तो पहले मेरी प्रार्थना सुनने की कृपा करें । यहाँ से कुछ दूरी पर मेरा पुत्र मृत पड़ा है । मुझे केवल उसका अंतिम संस्कार कर लेने दो उसके बाद खुशी से मेरी जान ले लेना ।”

हरिश्चन्द्र ने माधवी को अपने पुत्र की अंतिम क्रिया करने की आज्ञा दे दी । माधवी पुत्र के शव को श्मशान में ले आई और विलाप करने लगी । तभी हरिश्चन्द्र उसे पहचान गए । असीम दुःख से उनका कलेजा छलनी होने लगा । उन्होंने अपने पुत्र को छाती से चिपटा लिया और विलाप करने लगे । चाण्डाल को इस प्रकार रोते देख माधवी भी उन्हें पहचान गई और हरिश्चन्द्र के सीने से लिपट गई । अपने पति की यह दशा देख वह व्यथित हो गई और रोते हुए बोली – “स्वामी ! शोक त्याग कर अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कीजिए । मेरा सिर धड़ से अलग करके आप स्वामि-द्रोही और असत्यवादी होने से बचें । आपकी वाणी कभी असत्य नहीं होनी चाहिए ।”

तब हरिश्चन्द्र ने अपने भी प्राण त्यागने का निश्चय कर एक चिता तैयार की और रोहित को उस पर लिटा दिया । तत्पश्चात् दोनों ने भगवान् का स्मरण किया और जलती चिता में बैठने लगे । तभी उन पर फूलों की वर्षा होने लगी और देवराज इन्द्र अन्य देवगण के साथ वहाँ प्रकट हुए । उनके साथ महर्षि वसिष्ठ विश्वामित्र सप्तर्षि और बृहस्पति भी थे । हरिश्चन्द्र और माधवी ने उन्हें प्रणाम किया ।

तब देवराज इन्द्र बोले – “राजन ! आपके सत्य-धर्म की परीक्षा लेने के लिए महर्षि विश्वामित्र ने यह सारी माया रची थी । चाण्डाल वेश में स्वयं धर्मराज आपके धैर्य की परीक्षा ले रहे थे । आज आपने स्त्री और पुत्र के साथ इस सनातन विश्व में अपनी सत्यता सिद्ध कर ली है । अब रानी और राजकुमार सहित स्वर्ग में पधारने की कृपा करें । आपके अतिरिक्त अन्य कोई मनुष्य सशरीर स्वर्ग पर विजय प्राप्त नहीं कर सका है ।” इन्द्र ने रोहित को भी पुनर्जीवित कर दिया ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)