Bhagwan Vishnu Katha: एक समय की बात है, महाराजा हरिश्चन्द्र के वंश में बाहु नामक एक राजा हुए। राज्य के अहंकार में चूर होकर वे अत्यंत क्रोधी, लोभी, अहंकारी और दुराचारी हो गए थे। उनका मन सुरा और सुंदरियों में लिप्त रहता था। उनके इन्हीं कार्यों के कारण धीरे-धीरे उनकी शक्ति क्षीण होने लगी।
राजा बाहु की अनेक रानियाँ थीं, जो उसी के समान अहंकारी, ईर्ष्यालु और दुष्ट प्रवृत्तियों की थीं। इनमें यादवी नामक एक रानी से बाहु बड़ा प्रेम करते थे। वह अत्यंत सुंदर, सुशील और अतिथि-प्रिय थी। वह सदा ब्राह्मणों की सेवा में लीन रहती थी। उसके द्वार पर आए ऋषि-मुनि कभी खाली हाथ नहीं लौटते थे। वह वस्त्र, अन्न और धान का दान देकर उनके भण्डार भर देती थी। उसके इसी निश्छल सेवा-भाव के कारण राज्य में उसकी प्रसिद्धि थी। उसका यश सुनकर अन्य रानियाँ उससे ईर्ष्या करती थी।
एक बार राज्य में एक परम तपस्वी ऋषि का आगमन हुआ। वे एक-एक कर सभी रानियों के पास गए, किंतु उन्होंने उनका अपमान कर उन्हें वहां से निकलवा दिया। अंत में जब वे रानी यादवी के महल में पहुंचे तो उसने बड़े भक्ति-भाव से उनका आदर-सत्कार किया। फिर उनकी विधिावत् पूजा-आराधना कर उन्हें भोजन करवाया। उसके इस सेवा-भाव से प्रसन्न होकर तपस्वी ने उसे पुत्रवान होने का वर प्रदान किया।
उनके वर-स्वरुप शीघ्र ही यादवी गर्भवती हो गई। जब अन्य रानियों को यह समाचार मिला तो वे मन-ही-मन सोचने लगीं – ‘महाराज हमसे अधिक यादवी से प्रेम करते हैं, जिसके कारण वह सदा हमें नीचा दिखाती रहती है। अब यदि उसे पुत्र उत्पन्न हो गया तो वे हमारा पूर्णतः त्याग कर देंगे। इसलिए हमें यादवी और उसके पुत्र को सदा के लिए अपने मार्ग से हटा देना चाहिए।’
ईर्ष्या और द्वेष के कारण उनकी बुद्धि नष्ट हो चुकी थी। पाप और पुण्य का ज्ञान विस्मृत चुका था। उन्होंने रानी यादवी को छलपूर्वक विष दे दिया। किंतु उसके पुण्य कर्मों और तपस्वी के वरदान के कारण विष उसके गर्भ में ही एकत्रित होकर निष्प्रभावी हो गया।
इसी बीच हैहय नामक क्षत्रियों ने बाहु के राज्य पर आक्रमण कर उनका राज्य छीन लिया। तब दुखी बाहु अपनी पत्नी यादवी के साथ वन में चले गए और वहीं निवास करते हुए अपने प्राण त्याग दिए। यादवी बड़ी पतिव्रता स्त्री थी। वह भी पति के शव के साथ चिता पर बैठ गई।
अभी वह चिता में अग्नि लगाने ही वाली थी कि तभी वहां और्व नामक मुनि आ पहुंचे। उन्होंने यादवी को चिता में जलने से रोक लिया और उसे साथ लेकर अपने आश्रम में लौट आए। यहीं पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। ‘गर’ अर्थात् ‘विष’ के साथ उत्पन्न होने के कारण वह बालक ‘सगर’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
महर्षि और्व ने उसे वेदों और शास्त्रों के साथ-साथ दुर्लभ अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्रदान की। आगे चलकर सगर ने हैहयवंशी क्षत्रियों को परास्त कर अपना राज्य पुन: प्राप्त किया। सगर के वंश में ही राजा भगीरथ का जन्म हुआ था जो गंगा को पृथ्वी पर लाए थे।
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