shudra by munshi premchand
shudra by munshi premchand

माँ और बेटी एक झोपड़ी में गाँव के उस सिरे पर रहती थीं। बेटी बाग से पत्तियाँ बटोर कर लाती, माँ भाड़ झोंकती। यही उनकी जीविका थी। सेर-दो सेर अनाज मिल जाता था, खाकर पड़ी रहती थीं। माता विधवा थी। बेटी कुंवारी, घर में और कोई आदमी न था। माँ का नाम गंगा था, बेटी का नाम गौरा।

गंगा को कई साल से यह चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं गौरा की सगाई हो जाए, लेकिन कहीं बात पक्की न होती थी। अपने पति के मर जाने के बाद गंगा ने कोई दूसरा घर न किया था, न कोई दूसरा धंधा ही करती थी। इससे लोगों को सन्देह हो गया कि आखिर इसका गुजर कैसे होता है? और लोग तो छाती फाड़-फाड़कर काम करते हैं, फिर भी पेट-भर अन्न मयस्सर नहीं होता। यह स्त्री कोई धंधा नहीं करती, फिर भी माँ-बेटी आराम से रहती हैं, किसी के सामने हाथ नहीं फैलाती। इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य अवश्य है। धीरे-धीरे यह सन्देह और भी दृढ़ हो गया, और यह अब तक जीवित था। बिरादरी में कोई गौरा से सगाई करने पर भी राजी न होता था। शूद्रों की बिरादरी बहुत छोटी होती है। दस-पाँच कोस से अधिक उसका क्षेत्र नहीं होता। इसलिए एक दूसरे के गुण-दोष किसी से छिपे नहीं रहते, न उन पर परदा ही डाला जा सकता है।

इस भ्रांति को शान्त करने के लिए माँ ने बेटी के साथ कई तीर्थ यात्रा की। उड़ीसा तक हो आयी, लेकिन सन्देह न मिटा। गौरी युवती थी, सुंदरी थी, पर उसे किसी न कुएँ पर या खेतों में हँसते-बोलते नहीं देखा। उसकी निगाह कभी ऊपर उठती ही न थी। लेकिन ये बातें भी सन्देह को और पुष्ट करती थीं। अवश्य कोई न कोई रहस्य है। कोई युवती इतनी सती नहीं हो सकती। कुछ गुप-चुप की बात अवश्य है।

यों ही दिन गुजरते जाते थे। बुढ़िया दिनोंदिन चिन्ता से घुल रही थी उधर सुंदरी की मुख-छवि दिनोंदिन निखरती थी। कली खिलकर फूल हो रही थी।

एक दिन एक परदेसी गाँव से होकर निकला। दस-बाहर कोस से आ रहा था। नौकरी की खोज में कलकत्ते जा रहा था। रात हो गयी। किसी कहार का घर पूछता हुआ गंगा के घर आया। गंगा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया, उसके लिए गेहूँ का आटा लायी, घर से बर्तन निकालकर दिये। कहार ने पकाया, खाया, लेटा, बातें होने लगी। सगाई की चर्चा छिड़ गयी। कहार जवान था। गौरा पर निगाह पड़ी, उसका रंग-ढंग देखा, उसकी सलज्ज छवि आँखों में खूब गई। सगाई करने पर राजी हो गया। लौटकर घर चला गया। दो-चार गहने अपनी बहिन के यहाँ से लाया। गाँव के बजाज ने कपड़े उधार दे दिये। दो-चार भाई-बंदों के साथ सगाई करने आ पहुँचा। सगाई हो गई, यहीं रहने लगा। गंगा बेटी और दामाद को आँखों से दूर न कर सकती थी।

परन्तु दस ही पाँच दिनों में मंगरू के कानों में इधर-उधर की बातें पड़ने लगी। सिर्फ बिरादरी के नहीं अन्य जाति वाले भी उसके कान भरने लगे। ये बातें सुन-सुनकर मंगरू पछताता था कि नाहक यहाँ फंसा। पर गौरा को छोड़ने का खयाल करके उसका दिल काँप उठता था।

एक महीने के बाद मंगरू अपनी बहिन के गहने लौटाने गया। खाना खाने के समय उसका बहनोई उसके साथ भोजन करने बैठा। मंगरू को कुछ सन्देह हुआ, बहनोई से बोला- तुम क्यों नहीं आते?

बहनोई ने कहा- तुम खा लो, फिर खा लूँगा।

मंगरू- बात क्या है? तुम खाने क्यों नहीं बैठते।

बहनोई- जब तक पंचायत न होगी। मैं तुम्हारे साथ कैसे खा सकता हूँ? तुम्हारे लिए बिरादरी तो न छोड़ दूँगा। किसी से पूछा न गूछा, जाकर एक हरजाई से सगाई कर ली।

मंगरू चौके पर से उठ आया, मिर्जई पहनी और ससुराल चला आया। बहिन खड़ी रोती रह गई।

उसी रात को वह किसी से कुछ कहे-सुने बगैर, गौरा को छोड़कर कहीं चला गया। गौरा नींद में मगन थी। उसे क्या खबर थी कि वह रत्न, जो मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है, मुझे सदा के लिये छोड़े चला जा रहा है।

कई साल बीत गए। मंगरू का कुछ पता न चला। कोई पत्र तक न आया, पर गौरा बहुत प्रसन्न थी। वह माँग में सिंदूर डालती, रंग-बिरंगे कपड़े पहनती और अधरों पर मिस्सी के धड़े जमाती। मंगरू भजनों की एक पुरानी किताब छोड़ गया था। उसे कभी-कभी पढ़ती और गाती। मंगरू ने उसे हिंदी सिखा दी थी। टटोल-टटोल कर भजन पढ़ लेती थी।

पहले वह अकेली बैठी रहती थी। गाँव की और स्त्रियों के साथ बोलते-चालते उसे शर्म आती थी। उसके पास वह वस्तु न थी, जिस पर दूसरी स्त्रियाँ गर्व करती थीं। सभी अपने-अपने पति की चर्चा करतीं। गौरा का पति कहाँ था? वह किसकी बातें करती। अब उसके भी पति था। अब वह अन्य स्त्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत करने की अधिकारिणी थी। वह भी मंगरू की चर्चा करती, मंगरू कितना स्नेहशील है, कितना सज्जन, कितना वीर। पति-चर्चा से उसे कभी तृप्ति ही न होती थी।

स्त्रियाँ पूछी- मंगरू तुम्हें छोड़कर क्यों चले गए?

गौरा कहती- क्या करते? मर्द कभी ससुराल में पड़ा रहता है? देश-परदेश में निकलकर चार पैसे कमाना ही तो मर्दों का काम है, नहीं तो मान-मर्यादा का निर्वाह कैसे हो?

जब कोई पूछता, चिट्ठी-पत्री क्यों नहीं भेजते, तो हंसकर कहती-अपना पता- ठिकाना बताने में डरते हैं। जानते हैं न कि गौरा आकर सिर पर सवार हो जाएगी। सच कहती हूँ उनका पता-ठिकाना मालूम हो जाए, तो मुझसे एक दिन भी न रहा जाए। वह बहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पास चिट्ठी-पत्री नहीं भेजते। बेचारे परदेश में कहां घर-गृहस्थी सँभालते फिरेंगे? एक दिन किसी सहेली ने कहा- हम न मानेंगे, तुझसे जरूर मंगरू से झगड़ा हो गया है, नहीं तो बिना कुछ कहे-सुने क्यों चले जाते?

गौरा ने हंसकर कहा- बहिन, अपने देवता से भी कोई झगड़ा करता है? वह मेरे मालिक हैं, भला मैं उनसे झगड़ा करूँगी? जिस दिन झगड़े की नौबत आएगी, कहीं डूब मरूंगी। मुझसे कह के जाने पाते? मैं उनके पैरों से लिपट न जाती।

एक दिन कलकत्ते से एक आदमी आकर गंगा के घर ठहरा। पास ही के किसी गाँव में अपना घर बतलाया। कलकत्ते में वह मंगरू के पड़ोस में ही रहता था। मंगरू ने उससे गौरा को अपने साथ लाने को कहा था। दो साड़ियाँ और राह- खर्च के लिए रुपये भी भेजे थे। गौरा फूली न समायी। बूढ़े ब्राह्मण के साथ चलने को तैयार हो गई। चलते वक्त वह गाँव की सब औरतों से गले मिली। गंगा उसे स्टेशन तक पहुँचाने गयी। सब कहते थे, बेचारी लड़की के भाग जाग गए, नहीं कुढ़-कुढ़ कर मर जाती।

रास्ते भर गौरा सोचती जाती थी- न जाने वह कैसे हो गए होंगे। अब तो मूँछें अच्छी तरह निकल आई होंगी। परदेश में आदमी सुख से रहता है। देह भर आई होगी। बाबू साहब हो गए होंगे। मैं पहले दो-तीन दिन उनसे बोलूंगी नहीं। फिर पूछूंगी- तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गए? अगर किसी ने मेरे बारे में कुछ बुरा-भला कहा ही था, तो तुमने उसका विश्वास क्यों कर लिया? तुम अपनी आँखों से न देखकर दूसरों के कहने पर क्यों गए? मैं भली हूँ या बुरी हूँ, हूँ तो तुम्हारी, तुमने मुझे इतने दिनों रुलाया क्यों? तुम्हारे बारे में अगर इसी तरह मुझसे कोई कहता, तो क्या मैं तुमको छोड़ देती? जब तुमने मेरी बाँह पकड़ ली, तो तुम मेरे हो गए। फिर तुममें लाख ऐब हों, मेरी बला से। चाहे तुम तुर्क ही क्यों न हो जाओ, मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती। तुम क्यों मुझे छोड़कर आये? क्या समझते थे, भागना सहज है? आखिर झक मारकर बुलाया कि नहीं? कैसे न बुलाते? मैंने तो तुम्हारे ऊपर दया की, चली आयी, नहीं तो कह देती कि मैं ऐसे निर्दयी के पास नहीं जाती, तो तुम आप दौड़े आते। तप करने से तो देवता भी मिल जाते हैं, आकर सामने खड़े हो जाते हैं, तुम कैसे न आते? वह बार-बार उद्विग्न हो- होकर बूढ़े ब्राह्मण से पूछती, अब कितनी दूर है? धरती के छोर पर रहते हैं क्या? और भी कितनी ही बातें वह पूछना चाहती थी लेकिन संकोचवश न पूछ सकती थी। मन-ही-मन अनुमान करके अपने को संतुष्ट कर लेती थी। उनका मकान बड़ा-सा होगा, शहर में लोग पक्के घरों में रहते हैं। जब उनका साहब इतना मानता है, तो नौकर भी होगा। मैं नौकर को भगा दूँगी। मैं दिन-भर पड़े-पड़े क्या किया करूँगी?

बीच-बीच में उसे घर की याद भी आ जाती थी। बेचारी अम्मा रोती होंगी। अब उन्हें घर का सारा काम आप ही करना पड़ेगा। न जाने बकरियों को चराने ले जाती हैं या नहीं। बेचारी दिन भर में-में करती होंगी। मैं अपनी बकरियों के लिए महीने-महीने रुपये भेजूँगी। जब कलकत्ते से लौटेगी, तब सबके लिए साड़ियाँ लाऊंगी। तब मैं इस तरह थोड़े लौटूगीं। मेरे साथ बहुत-सा असवाब होगा। सबके लिए कोई-न-कोई सौगात लाऊंगी। तब तक तो बहुत-सी बकरियाँ हो जाएँगी। यही सुख स्वप्न देखते-देखते गौरा ने सारा रास्ता काट दिया। पगली क्या जानती थी कि मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कुछ और। क्या जानती थी कि बूढ़े ब्राह्मणों के भेष में भी पिशाच होते हैं। मन की मिठाई खाने में मगन थी।

तीसरे दिन गाड़ी कलकत्ते पहुँची। गौरा की छाती धड़-धड़ करने लगी। वह यही कहीं खड़े होंगे। अब आते ही होंगे। यह सोचकर उसने घूंघट निकाल लिया और सँभल कर बैठी। मगर मंगरू वहाँ न दिखाई दिया। बूढ़ा ब्राह्मण बोला- मंगरू तो यहाँ नहीं दिखायी देता, मैं चारों ओर छान आया। शायद किसी काम में लग गया होगा, आने की छुट्टी न मिली होगी। मालूम भी तो न था कि हम लोग किस गाड़ी से आ रहे हैं। उनकी राह क्यों देखें, चलो डेरे पर चलें।

दोनों गाड़ी पर बैठकर चले। गौरा कभी ताँगे पर सवार न हुई थी। उसे गर्व हो रहा था कि कितने ही बाबू लोग पैदल जा रहे हैं, मैं ताँगे पर बैठी हूँ।

एक क्षण में गाड़ी मंगरू के डेरे के पास पहुँच गयी। एक विशाल भवन था, अहाता साफ-सुथरा, सायबान में फूलों के गमले रखे हुए थे। ऊपर चढ़ने लगी। विस्मय, आनन्द और आशा से उसे अपनी सुधि ही न थी। सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते पैर दुखने लगे, यह सारा महल उनका है। किराया बहुत देना पड़ता होगा। रुपये को तो कुछ समझते ही नहीं। उसका हृदय धड़क रहा था कि कहीं मंगरू ऊपर से उतरते आ न रहे हों। सीढ़ी पर भेंट हो गई, तो मैं क्या करूंगी? भगवान् करे, यह पड़े सोते हों, तब मैं जगाऊँ और वह मुझे देखते ही हड़बड़ा कर उठ बैठें। आखिर सीढ़ियों का अंत हुआ। ऊपर एक कमरे में गौरा को ले जाकर ब्राह्मण देवता ने बिठा दिया।

यह मंगरू का डेरा था। मगर मंगरू यहाँ भी नदारद! कोठरी में केवल एक खाट पड़ी हुई थी। एक किनारे दो-चार बर्तन रखे हुए थे। यही उनकी कोठरी है। तो मकान किसी दूसरे का है, उन्होंने यह कोठरी किराए पर ली होगी। देखती हूँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ है। मालूम होता है, रात को बाजार में पूरियाँ खाकर सो रहे होंगे। यही उनके सोने की खाट है। एक किनारे घड़ा रखा हुआ था। गौरा के मारे प्यास के तालू सूख रहा था। घड़े से पानी लेकर पिया। एक किनारे एक झाडू रखा हुआ था। गौरा रास्ते की थकी थी, पर प्रेमोल्लास में थकन कहां? उसने कोठरी में झाडू लगाया, बर्तनों को धो-धोकर एक जगह रखा । कोठरी की एक- एक वस्तु यहां तक कि उसकी फर्श और दीवारों में उसे आत्मीयता की झलक दिखाई देती थी। उस घर में भी, जहाँ उसने अपने जीवन के 25 वर्ष काटे थे, उसे अधिकार का ऐसा गौरव-युक्त आनंद न प्राप्त हुआ था।

मगर उस कोठरी में बैठे-बैठे उसे संध्या हो गई और मंगरू का कहीं पता नहीं। अब छुट्टी मिली होगी। साँझ को सब जगह छुट्टी होती है। अब वह आ रहे होंगे। मगर बूढ़े बाबा ने उनसे कह तो दिया ही होगा, क्या वह अपने साहब से थोड़ी देर की छुट्टी न ले सकते थे? कोई बात होगी? तभी तो नहीं आए।

अँधेरा हो गया। कोठरी में दीपक न था। गौरा द्वार पर खड़ी पति की बाट देख रही थी। जीने पर बहुत से आदमियों के चलने-उतरने की आहट मिलती थी, बार-बार गौरा को मालूम होता था कि वह आ रहे हैं, पर इधर कोई न आता था।

नौ बजे बूढ़े बाबा आए। गौरा ने समझा, मंगरू है। झपटकर कोठरी के बाहर निकल आई। देखा तो ब्राह्मण! बोली-वह कहीं रह गए?

बूढ़ा-उनकी तो यहां से बदली हो गई। दफ्तर में गया था, तो मालूम हुआ कि वह कल अपने साहब के साथ यहाँ से कोई आठ दिन की राह पर चले गए। उन्होंने साहब से बहुत हाथ-पैर जोड़े कि मुझे दस दिन की मोहलत दे दीजिए, लेकिन साहब ने एक न मानी। मंगरू यहाँ लोगों से कह गए हैं कि घर से लोग आएँ तो मेरे पास भेज देना। अपना पता दे गए हैं। कल मैं तुम्हें यहाँ से जहाज पर बैठा दूँगा। उस जहाज पर हमारे देश के और भी बहुत से आदमी होंगे, इसलिए मार्ग में कोई कष्ट न होगा।

गौरी ने पूछा- कितने दिन में जहाज पहुँचेगा?