shudra by munshi premchand
shudra by munshi premchand

बाहर मंगरू बरामदे में पड़ा कराह रहा था। उसकी देह में सूजन थी और घावों में जलन, सारे अंग जकड़ गए थे। हिलने की भी शक्ति नहीं थी। हवा घावों में शर के समान चुभती थी, लेकिन यह सारी व्यथा वह सह सकता था। असह्य यह था कि साहब गौरा के साथ इसी घर में विहार कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता। उसे अपनी पीड़ा भूल-सी गई थी, कान लगाकर सुन रहा था कि उनकी बातों की भनक कान में पड़ जाए, देखूँ तो क्या बातें हो रही हैं। गौरा अवश्य चिल्लाकर भागेगी और साहब उसके पीछे दौड़ेगा। अगर मुझसे उठा जाता, तो उस वक्त बचा को खोदकर गाड़ ही देता। लेकिन बड़ी देर हो गई, न तो गौरा चिल्लायी न बँगले से निकलकर भागी! वह उस सजे-सजाए कमरे में साहब के पास बैठी सोच रही थी- क्या इसमें तनिक भी दया नहीं है? मंगरू का पीड़ा-क्रंदन सुन सुन-सुनकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। क्या इसके अपने भाई-बाप, माँ- बहिन नहीं हैं? माता यहाँ होती, तो उसे इतना अत्याचार न करने देती। मेरी अम्मा लड़कों पर कितना बिगड़ती थीं, जब वह किसी पेड़ पर ढेले चलाते देखती थीं। पेड़ में भी प्राण होते हैं। क्या इसकी माता इसे एक आदमी के प्राण लेते देखकर भी मना न करती! साहब शराब पी रहा था और गौरा गोश्त काटने का छुरा हाथ में लिये खेल रही थी।

सहसा गौरा की निगाह एक चित्र की ओर गई। उसमें एक माता बैठी हुई थी। गौरा ने पूछा- साहब, यह किसकी तस्वीर है?

साहब ने शराब का गिलास मेज़ पर रखकर कहा- ओ, वह हमारे खुदा की माँ मरियम है।

गौरा- बड़ी अच्छी तस्वीर है! क्यों साहब, तुम्हारी माँ जीती हैं न।

साहब- वह मर गया, जब हम यहाँ आया, तो वह बीमार हो गया। हम उसको देख भी नहीं सका।

साहब के मुख-मण्डल पर करुणा की झलक दिखाई दी।

गौरा बोली- तब तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ होगा। तुम्हें अपनी माता से भी प्यार नहीं था। वह रो-रोकर मर गई और तुम देखने भी न गए! तभी तुम्हारा दिल कड़ा है।

साहब- नहीं, नहीं, हम अपनी माता को बहुत चाहता था। वैसा औरत दुनिया में न होगा। हमारा बाप हमको बहुत छोटा-सा छोड़कर मर गया। माता ने कोयले की खान में मजूरी करके हमको पाला।

गौरा- तब तो वह देवी थी। इतनी गरीबी का दुःख सहकर भी तुम्हें दूसरों पर तरस नहीं आता? क्या वह दया की देवी तुम्हारी बेदर्दी देखकर दुःखी न होती होगी, उनकी कोई तस्वीर तुम्हारे पास है?

साहब- ओ, हमारे पास उनके कई फोटो हैं। देखो, वह उन्हीं की तस्वीर है, वह दीवाल पर।

गौरा ने समीप जाकर तस्वीर देखी और करुण स्वर में बोली- सचमुच देवी थीं। जान पड़ता है, दया की देवी हैं। वह तुम्हें कभी मारती थी कि नहीं? मैं तो जानती हूँ यह कभी किसी पर न बिगड़ती रही होंगी। बिलकुल दया की मूर्ति हैं।

साहब- ओ, मामा हमको कभी नहीं मारता था। वह बहुत गरीब था, वह अपने कमाई में कुछ-न-कुछ जरूर खैरात करता था। किसी बे-बाप के बालक को देखकर उसकी आंखों में आंसू भर आता था। वह बहुत ही दयावान था। गौरा ने तिरस्कार के स्वर में कहा- और उसी देवी के पुत्र होकर तुम इतने निर्दयी हो! क्या वह होतीं तो तुम्हें किसी को इस तरह हत्यारों की भांति मारने देतीं? वह स्वर्ग में रो रही होंगी। स्वर्ग-नरक तो तुम्हारे यहाँ भी होगा। ऐसी देवी के पुत्र तुम कैसे हो गए?

गौरा को ये बातें कहते हुए जरा भी भय न होता था। उसने अपने मन में एक दृढ़ संकल्प कर लिया था और अब उसे किसी प्रकार का भय न था। जान से हाथ धो लेने का निश्चय कर लेने के बाद भय की छाया भी नहीं रह जाती। किन्तु वह हृदय-शून्य अंग्रेज इन तिरस्कार पर आग हो जाने के बदले और भी नम्र होता जाता था। गौरा मानवी भावों से कितनी ही अनभिज्ञ हो, पर इतना जानती थी कि अपनी जननी के लिए प्रत्येक हृदय में, चाहे वह साधु का हो या कसाई का, आदर और प्रेम का एक कोना सुरक्षित रहता है। ऐसा भी कोई अभागा प्राणी है, जिसे मातृ-स्नेह की स्मृति थोड़ी देर के लिए रुला न देती हो, उसके हृदय के कोमल भाव को जगा न देती हो?

साहब की आँखें डबडबा गई थीं, सिर झुकाए बैठा रहा। गौरा ने फिर उसी ध्वनि में कहा- तुमने उसकी सारी तपस्या धूल में मिला दी। जिस देवी ने मर- मरकर तुम्हारा पालन किया, उसी को मरने के पीछे तुम इतना कष्ट दे रहे हो? क्या इसीलिए माता अपने पुत्र को रक्त पिला-पिलाकर पालती है? अगर वह बोल सकतीं, तो क्या चुप बैठी रहतीं, तुम्हारे हाथ पकड़ सकतीं, तो न पकड़ती? मैं तो समझती हूँ वह जीती होती, तो इस वक्त विष खाकर मर जातीं।

साहब अब जब्त न कर सके। नशे में क्रोध की भांति ग्लानि का वेग सहज ही में उठ आता है। दोनों हाथों से मुँह छिपाकर साहब ने रोना शुरू किया, और इतना रोया कि हिचकी बँध गई। माता के चित्र के सम्मुख जाकर वह कुछ देर तक खड़ा रहा, मानों माता से क्षमा माँग रहा हो तब आकर आर्द्र-स्वर से बोला- हमारे मां को अब कैसे शान्ति मिलेगा? हाय-हाय! हमारे सबब से उसको स्वर्ग में भी सुख नहीं मिला। हम कितना अभागा है!

गौरा- अभी जरा देर में तुम्हारा मन बदल जाएगा और तुम फिर दूसरों पर यही अत्याचार करने लगोगे।

साहब- नहीं, नहीं, अब हम मां को कभी दुःख नहीं देगा। हम अभी मंगरू को अस्पताल भेजता है।

रात ही को मंगरू अस्पताल पहुँचा दिया गया। एजेण्ट खुद उसको पहुँचाने आया। गौरा भी उसके साथ थी। मंगरू को ज्वर हो आया था, बेहोश पड़ा हुआ था।

मंगरू ने तीन दिन आंखें न खोलीं और गौरा तीनों दिन उसके पास बैठी रही। एक क्षण के लिए भी वहाँ से न हटी। एजेण्ट भी कई बार हाल-चाल पूछने आ जाता और हर मर्तबा गौरा से क्षमा माँगता।

चौथे दिन मंगरू ने आंखें खोलीं तो देखा, गौरा सामने बैठी हुई है। गौरा उसे आँखें खोलते देखकर पास खड़ी हुई और बोली- अब कैसा जी है? मंगरू ने कहा- तुम यहाँ कब आई?

गौरा- मैं तो तुम्हारे साथ ही यहाँ आई थी, तब से यही हूँ।

मंगरू – साहब के बंगले में क्या जगह नहीं है?

गौरा- अगर बंगले की चाह होती, तो सात समुद्र पार तुम्हारे पास क्यों आती?

मंगरू- आकर कौन-सा सुख दे दिया है? तुम्हें वही करना था, तो मुझे मर क्यों न जाने दिया?

गौरा ने झुँझलाकर कहा- तुम इस तरह की बातें मुझसे न करो। ऐसी बातों से मेरी देह में आग लग जाती है।

मंगरू ने मुँह फेर लिया, मानो उसे गौरा की बात पर विश्वास नहीं आया।

दिन-भर गौरा मंगरू के पास बेदाना-पानी खड़ी रही। गौरा ने कई बार उसे बुलाया, लेकिन वह चुप्पी साधे रह गया। यह संदेहयुक्त निरादर कोमल हृदय गौरी के लिए असह्य था। जिस पुरुष को वह देवतुल्य समझती थी, उसके प्रेम से वंचित होकर वह कैसे जीवित रह सकती थी? यही प्रेम उसके जीवन का आधार था। उसे खोकर अब वह अपना सर्वस्व खो चुकी थी।

आधी रात से अधिक बीत चुकी थी। मंगरू बेखबर सोया हुआ था, शायद कोई स्वप्न देख रहा था। गौरा ने उसके चरणों पर सिर रखा और अस्पताल से निकली। मंगरू ने उसका परित्याग कर दिया था। वह भी उसका परित्याग करने जा रही थी।

अस्पताल के पूर्व दिशा में एक फलांग पर एक छोटी-नदी बहती थी गौरा कगार पर खड़ी हो गई। अभी कई दिन पहले वह अपने गाँव में आराम से पड़ी हुई थी। उसे क्या मालूम था कि जो वस्तु इतनी मुश्किल से मिल सकती है, वह इतनी आसानी से खोई भी जा सकती है। उसे अपनी माँ की, अपने घर की, अपनी सहेलियों की, अपने बकरी के बच्चों की याद आई। वह सब छोड़कर इसीलिए यहाँ आ गई थी? पति के ये शब्द- ‘क्या साहब के बंगले में जगह नहीं है’ उसके मर्मस्थान में बाणों के समान चुभे हुए थे। यह सब मेरे ही कारण तो हुआ? मैं न रहूँगी, तो वह फिर आराम से रहेंगे। सहसा उसे ब्राह्मणी की याद आ गई। उस दुखिया के दिन यहाँ कैसे कटेंगे? चलकर साहब से कह दूँ कि उसे या तो उसके घर भेज दें या किसी पाठशाला में काम दिला दें।

वह लौटना ही चाहती थी कि किसी ने पुकारा-गौरा! गौरा!!

यह मंगरू का करुण-कम्पित स्वर था। वह चुपचाप खड़ी हो गई। मंगरू ने फिर पुकारा- गौरा! तुम कहाँ हो? मैं ईश्वर से कहता हूँ कि…’

गौरा ने और कुछ न सुना। वह धम्म-से नदी में कूद पड़ी। बिना अपने जीवन का अंत किए वह स्वामी की विपत्ति का अंत कर सकती थी।

धमाके की आवाज खुलते ही मंगरू भी नदी में कूद पड़ा। वह अच्छा तैराक था। मगर कई बार गोते मारने पर भी गौरा का कहीं पता न चला।

प्रातःकाल दो लाशें साथ-साथ नदी में तैर रही थीं। जीवन-यात्रा में उन्हें यह चित्र-संग कभी न मिला था। स्वर्ग-यात्रा में दोनों साथ-साथ जा रहे थे।