shudra by munshi premchand
shudra by munshi premchand

मंगरू दिन-भर द्वार पर बैठा रहा, मानो कोई किसान आपने मटर के खेत की रखवाली कर रहा हो। कोठरी में दोनों स्त्रियाँ बैठी अपने नसीबों को रो रही थीं। इतनी देर में दोनों को वहाँ की दशा का परिचय हो गया था। दोनों भूखी-प्यासी बैठी थीं। यहाँ का रंग देखकर भूख-व्यास सब भाग गई थी।

रात के दस बजे होंगे कि एक सिपाही ने आकर मंगरू से कहा- चलो, तुम्हें एजेण्ट साहब बुला रहे हैं।

मंगरू ने बैठे-बैठे कहा- देखो नब्बी, तुम भी हमारे देश के आदमी हो। कोई मौका पड़े, तो हमारी मदद करोगे न? जाकर साहब से कह दो, मंगरू कहीं गया है। बहुत होगा, जुर्माना कर देंगे ।

नब्बी- न भैया, गुस्से में भरा बैठा है, पिए हुए है, कहीं मार चले तो बस, यहाँ चमड़ा इतना मजबूत नहीं है।

मंगरू- अच्छा, तो जाकर कह दो, नहीं आता।

नब्बी- मुझे क्या, जाकर कह दूँगा, पर तुम्हारी खैरियत नहीं है।

मंगरू ने जरा देर सोचकर लकड़ी उठाई और नब्बी के साथ साहब के बँगले पर चला। यह यही साहब थे, जिनसे आज मंगरू से भेंट हुई थी। मंगरू जानता था कि साहब से बिगाड़ करके यहाँ एक क्षण भी निर्वाह नहीं हो सकता। जाकर साहब के सामने खड़ा हो गया। साहब ने दूर ही से डाँटा, वह औरत कहां हैं? तुम उसे अपने घर में क्यों रखा है?

मंगरू- हुजूर, वह मेरी ब्याहता औरत है।

साहब- अच्छा, वह दूसरी कौन है?

मंगरू- वह मेरी सगी बहन है हुजूर?

साहब- हम कुछ नहीं जानता। तुमको लाना पड़ेगा। दो में से कोई, दो में से कोई।

मंगरू पैरों पर गिर पड़ा और रो-रोकर अपनी सारी राम-कहानी सुना गया। पर साहब जरा भी न पसीजे। अंत में वह बोला-हुजूर, यह उन दूसरी औरतों की तरह नहीं हैं। अगर यहाँ आ भी गईं, तो प्राण दे देंगी।

साहब ने हँसकर कहा- ओ। जान देना इतना आसान नहीं है।

नब्बी- मंगरू अपनी दाँव रोते क्यों हो! तुम हमारे घर में नहीं घुसे थे? अब भी जब घात पाते हो, जा’ पहुँचते हो। अब रोते क्यों हो?

एजेंट- श्री, यह बदमाश है। अभी जाकर लाओ, नहीं तो हम तुमको हण्टरों से पीटेगा।

मंगरू- सरकार जितना चाहें पीट लें, मगर मुझसे यह काम करने को न कहें, जो मैं जीते जी नहीं कर सकता।

एजेण्ट- हम एक सौ हण्टर मारेगा।

मंगरू- हुजूर एक हजार हण्टर मार लें, लेकिन मेरे घर की औरतों से न बोलें।

एजेण्ट नशे में चूर था। हण्टर लेकर मंगरू पर पिल पड़ा और लगा सड़ा सड़ जमाने। दस-बारह कोड़े तो मंगरू ने धैर्य के साथ सहे, फिर हाय-हाय करने लगा। देह की खाल फट गयी थी और मांस पर जब चाबुक पड़ता था, तो बहुत जब्त करने पर भी कण्ठ से आर्त्त ध्वनि निकल आती थी और अभी एक सौ में कुल पन्द्रह चाबुक पड़े थे।

रात के दस बज गए थे। चारों ओर सन्नाटा छाया था और उस नीरव अंधकार में मंगरू का करुण विलाप किसी पक्षी की भांति आकाश में मँडरा रहा था। वृक्षों के समूह भी हतबुद्धि से खड़े मौन रुदन की मूर्ति बने हुए थे। यह पाषाण-हृदय, लम्पट, विवेक-शून्य जमादार इस समय एक अपरिचित स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक देने को तैयार था, केवल इसी नाते कि वह उसकी पत्नी की संगिनी थी। वह समस्त संसार की नजरों में गिरना गवारा कर सकता था, पर अपनी पत्नी की भक्ति पर अखंड राज्य करना चाहता था। इसमें अणुमात्र की कमी भी उसके लिए असह्य थी, उस अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या महत्त्व था?

ब्राह्मणी तो जमीन पर ही सो गई थी, पर गौरा बैठी पति की बाट-जोह रही थी। अभी तक वह उससे कोई बात न कह सकी थी। सात वर्षों की विपत्ति- कथा कहने और सुनने के लिए बहुत समय की जरूरत थी, रात के सिवा वह समय फिर कब मिल सकता था? उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्रोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले की हार हुई। इसी के कारण तो वह घर में नहीं आ रहे हैं। एकाएक वह किसी का रोना सुनकर चौंक पड़ी। भगवान्, इतनी रात गए कौन दुःख का मारा रो रहा है। अवश्य कोई कहीं मर गया है। वह उठकर द्वार पर आई तो यह अनुमान करके कि मंगरू बैठा हुआ है, बोली- वह कौन रो रहा है? जरा जाकर देखो तो।

लेकिन जब कोई जवाब न मिला, तो वह स्वयं कान लगाकर सुनने लगी। सहसा उसका कलेजा धक से हो गया। यह तो उन्हीं की आवाज है। अब आवाज साफ सुनाई दे रही थी। मंगरू की आवाज थी। वह द्वार के बाहर निकल आई। उसके सामने एक गोली के टप्पे पर एजेण्ट का बँगला था। उसी तरफ से आवाज आ रही थी। कोई उन्हें मार रहा है। आदमी मार पड़ने पर ही इस तरह रोता है। मालूम होता है, वही साहब उन्हें मार रहा है। वह खड़ी न रह सकी, पूरी शक्ति से उस बँगले की ओर दौड़ी, रास्ता साफ था। एक क्षण में वह फाटक पर पहुँच गई। फाटक बंद था। उसने जोर से फाटक पर धक्का दिया, लेकिन वह फाटक न खुला और कई बार जोर-जोर से पुकारने पर भी कोई बाहर न निकला, तो वह फाटक के जंगलों पर पैर रखकर भीतर कूद पड़ी और उस पार जाते ही उसने एक रोमाँचकारी दृश्य देखा। मंगरू नंगे बदन से बरामदे में खड़ा था और एक अंग्रेज उसे हण्टरों से मार रहा था। गौरा की आंखों के सामने अँधेरा छा गया। वह एक छलांग में साहब के सामने जाकर खड़ी हो गई और मंगरू को अपने अक्षय-प्रेम-सबल हाथों से ढांप कर बोली- सरकार, दया करो, इनके बदले मुझे जितना चाहो मारो, पर इनको छोड़ दो।

एजेण्ट ने हाथ रोक लिया और उन्मत्त की भांति गौरा की ओर कई कदम आकर बोला- हम इसको छोड़ दें, तो तुम मेरे पास रहेगा?

मंगरू के नथुने फड़कने लगे। यह पामर, नीच, अंग्रेज मेरी पत्नी से इस तरह की बातें कर रहा है। अब वह जिस अमूल्य रत्न की रक्षा के लिए इतनी यातनाएँ सह रहा था, यही वस्तु साहब के हाथ में चली जा रही है, यह असह्य था। उसने चाहा कि लपक कर साहब की गर्दन पर चढ़ बैठूं जो कुछ होना हो, हो जाए। यह अपमान सहने के बाद जीकर क्या करूंगा? नब्बी ने तुरन्त पकड़ लिया और कई आदमियों को बुलाकर उसके हाथ-पाँच बाँध दिए। मंगरू भूमि पर छटपटाने लगा।

गौरा रोती हुई साहब के पैरों पर गिर पड़ी और बोली -हुजूर, इन्हें छोड़ दें, मुझ पर दया करें।

एजेण्ट- तुम हमारे पास रहेगा?

गौरा ने खून का घूंट पीकर कहा- हाँ रहूँगी।