suhaag kee saadee munshee premachand kee kahaanee
suhaag kee saadee munshee premachand kee kahaanee

यह कहना भूल है कि दांपत्य- सुख के लिए स्त्री-पुरुष के स्वभाव में मेल होना आवश्यक है। श्रीमती गौरा और श्रीमान कुंवर रतनसिंह में कोई बात न मिलती थी। गौरा उदार थी, रतनसिंह कौड़ी-कौड़ी को दांतों से पकड़ते थे। वह हसंमुख थी, रतनसिंह चिन्ताशील थे। वह कुल-मर्यादा पर जान देती थी, रतनसिंह इसे आडम्बर समझते थे। उनके सामाजिक व्यवहार और विचार में भी घोर अंतर था। यहां उदारता की बाजी रतनसिंह के हाथ थी। गौरा को सहभोज से आपत्ति थी, विधवा-विवाह से घृणा और अछूतों के प्रश्न से विरोध। रतनसिंह इन सभी व्यवस्थाओं के अनुमोदक थे। राजनीतिक विषयों में यह विभिन्नता और भी जटिल थी। गौरा वर्तमान स्थिति को अमर, अटल, अपरिहार्य समझती थी, इसलिए वह नरम-गरम, कांग्रेस, स्वराज्य, होमरूल सभी से विरक्त थी। कहती- ‘ये मुट्ठी भर-पढ़े लिखे आदमी क्या बना लेंगे, चने कहीं भाड़ फोड़ सकते है? रतनसिंह पक्के आशावादी थे, राजनीतिक-सभा की पहली पंक्तियों में बैठने वाले, कर्म-क्षेत्र में सबसे पहले कदम उठाने वाले, स्वदेश-व्रत-धारी और बहिष्कार के पूरे अनुयायी। इतनी विषमताओं पर भी उनका दाम्पत्य-जीवन सुखमय था। कभी-कभी उनमें मतभेद अवश्य हो जाता था, पर वे समीर के झोंके थे, जो स्थिर जल को हल्की-हल्की लहरों से आभूषित कर देते हैं, वे प्रचंड झोंके नहीं जिनसे सागर विप्लव-क्षेत्र बन जाता हैं। थोड़ी सी सदिच्छा सारी विषमताओं और मतभेदों का प्रतिकार कर देती थी।

विदेशी कपड़ों की होलियां जलायी जा रही थीं। स्वयं सेवकों के जत्थे भिखारियों की भांति द्वारों पर खड़े हो-होकर विलायती कपड़ों की भिक्षा मांगते थे और कदाचित ही कोई द्वार था, जहां उन्हें निराश होना पड़ता हो। खद्दर और गाढ़े के दिन फिर गए थे। नयनसुख, नयन दुख, मलमल मनमल और तनज़ेब तनबेध हो गए थे। रतनसिंह ने आकर गौरा से कहा- ‘लाओ? अब सब विदेशी कपड़े संदूक से निकाल दो, दे दूं।’

गौरा- ‘अरे, तो इसी घड़ी कोई साइत निकली जाती है, फिर कभी दे देना।’

रतन- ‘वाह, लोग द्वार पर खड़े कोलाहल मचा रहे है और तुम कहती हो, फिर कभी दे देना।’

गौरा- ‘तो यह कुंजी लो, निकालकर दे दो। मगर यह सब है लड़कों का खेल। घर फूंकने से स्वराज्य न कभी मिला है और न मिलेगा।’

रतन- ‘मैंने कल ही तो इस विषय पर तुमसे घंटो सिरपच्ची की थी और उस समय तुम मुझसे सहमत हो गई थी, आज तुम फिर वही शंकाएँ करने लगी?’

गौरा- ‘मैं तुम्हारे अप्रसन्न हो जाने के डर से चुप हो गयी थी।’

रतन- ‘अच्छा, शंकाए फिर कर लेना, इस समय जो करना है, वह करो।’

गौरा- ‘लेकिन मेरे कपड़े तो न लोगे न?’

रतन- ‘सब देने पड़ेंगे, विलायत का एक सूत भी घर में रखना मेरे प्रण को भंग कर देगा।’

इतने में रामटहल साईस ने बाहर से पुकारा- ‘सरकार, लोग जल्दी मचा रहे हैं, कहते हैं, अभी कई मुहल्लों का चक्कर लगाना है। कोई गाढ़े का टुुकड़ा हो तो मुझे भी मिल जायें, मैंने भी अपने कपड़े दे दिए।’

केसर महरी कपड़ों की गठरी लेकर बाहर जाती हुई दिखाई दी। रतनसिंह ने पूछा- ‘क्या तुम भी अपने कपड़े देने जाती हो?’

केसर ने लजाते हुए कहा- ‘हां, सरकार, जब देश छोड़ रहा है तो मैं कैसे पहनूं?’

रतन सिंह ने गौरा की ओर आदेशपूर्ण नेत्रों से देखा। अब वह विलंब न कर सकी। लज्जा से सिर झुकाए संदूक खोलकर कपड़े निकालने लगी। एक संदूक खाली हो गया तो उसने दूसरा संदूक खोला। सबसे ऊपर एक सुंदर रेशमी सूट रखा हुआ था, जो कुंवर साहब ने किसी अंग्रेजी कारखाने में सिलाया था। गौरा ने पूछा- ‘क्या यह सूट भी निकाल दूं?’

रतन- ‘हां, हां इसे किस दिन के लिए रखोगी?’

गौरा- ‘यदि मैं जानती कि इतनी जल्दी हवा बदलेगी, तो कभी यह सूट न बनवाने देती। सारे रुपए खून हो गए।’

रतनसिंह ने कुछ उत्तर न दिया। तब गौरा ने अपना संदूक खोला और जलन के मारे स्वदेशी-विदेशी सभी कपड़े निकाल- निकालकर फेंकने लगी। वह आवेश प्रवाह में आ गयी। उनमें कितनी ही बहुमूल्य फैंसी जाकेट और साड़ियां थी, जिन्हें किसी समय पहनकर वह फूली न समाती थी। बाज-बाज साड़ियों के लिए तो उसे रतनसिंह से बार-बार तकाजे करने पड़े थे। पर इस समय सब-की-सब आंखों में खटक रही थी। रतन सिंह उसके भावों को ताड़ रहे थे। विदेशी कपड़ों का निकाला जाना उन्हें अखर रहा था, पर इस समय चुप रहने ही में कुशल समझते थे। तिस पर भी दो-एक बार वाद-विवाद की नौबत आ ही गयी। एक बनारसी साड़ी के लिए तो वह झगड़ बैठे, उसे गौरा के हाथों से छीन लेना चाहा, पर गौरा ने एक न मानी, निकाल ही फेंका, सहसा संदूक में से एक केसरिया रंग की तनज़ेब की साड़ी निकल आयी, जिस पर पक्के आंचल और पल्ले टंके हुए थे। गौरा ने उसे जल्दी से लेकर अपनी गोद में छिपा लिया।

रतन सिंह ने पूछा- ‘कैसी साड़ी है?’

गौरा- ‘कुछ नहीं, तनज़ेब की साड़ी है। आंचल पक्का है।’

रतन- ‘तनज़ेब की है, तब तो जरूर ही विलायती होगी। दो अलग क्यों रख लिया? क्या वह बनारसी साड़ियों से अच्छी है?’

गौरा- ‘अच्छी तो नहीं हैं, पर मैं इसे न दूंगी।’

रतन- ‘वाह, इस विलायती चीज को मैं न रखने दूंगा, लाओ इधर।’

गौरा- ‘नहीं, मेरी खातिर इसे रहने दो।

रतन- ‘तुमने मेरी खातिर एक भी चीज न रखी, मैं क्यों तुम्हारी खातिर करूं?’

गौरा- ‘पैरों पड़ती हूं, जिद न करो।’

रतन- ‘स्वदेशी साड़ियों में से जो चाहो रख लो, लेकिन इस विलायती चीज को मैं न रखने दूंगा। इसी कपड़े की बदौलत हम गुलाम बने, यह गुलामी का दाग मैं अब नहीं रख सकता, लाओ इधर।’

गौरा- ‘मैं इसे न दूंगी, एक बार नहीं, हजार बार कहती हूं कि न दूंगी।’

रतन- ‘मैं इसे लेकर छोडूंगा, इस गुलामी के पटके को, इस दासत्व के बंधन को किसी तरह न रखूंगा।’

गौरा- ‘नाहक जिद करते हो।’

रतन- ‘आखिर तुुमको इससे क्यों इतना प्रेम है।’

गौरा- ‘तुम तो बाल की खाल निकालने लगते हो। इतने कपड़े थोड़े हैं? एक साड़ी रख ही ली तो क्या?’

रतन- ‘तुमने अभी तक इन होलियों का आशय ही नहीं समझा।’

गौरा- ‘खूब समझती हूं। सब ढोंग है। चार दिन में जोश ठंडा पड़ जायेगा।’

रतन- ‘तुम केवल इतना बतला दो कि एक साड़ी तुम्हें क्यों इतनी प्यारी है, तो शायद मैं मान जाऊं।

गौरा- ‘यह मेरी सुहाग की साड़ी है।’

रतन- (जरा देर सोचकर) ‘तब तो मैं इसे कभी न रखूंगा। मैं विदेशी वस्त्र को यह शुभ स्थान नहीं दे सकता। इस पवित्र संस्कार का यह अपवित्र स्मृति- चिह्न घर में नहीं रख सकता। मैं इसे सबसे पहले होली की भेंट करूंगा। लोग कितने हतबुद्धि हो गए थे कि ऐसे शुभ कार्यों में भी विदेशी वस्तुओं का व्यवहार करने में संकोच न करते थे। मैं इसे अवश्य होली में दूंगा।

गौरा- ‘कैसा अशगुन मुंह से निकालते हो।’

रतन- ‘ऐसी सुहाग की साड़ी का घर रखना ही अपशकुन, अमंगल, अनिष्ट और अनर्थ है।’

गौरा- ‘यों चाहे जबरदस्ती छीन ले जाओ, पर खुशी से न दूंगी।’

रतन- ‘तो फिर मैं जबरदस्ती ही करूंगा। मजबूरी है।’

यह कहकर वह लपके कि गौरा के हाथों से साड़ी छीन लूं।

गौरा ने उसे मजबूती से पकड़ लिया और रतन की ओर कातर नेत्रों से देखकर कहा- ‘तुम्हें मेरे सिर की कसम।’

केसर महरी बोली- ‘बहूजी की इच्छा है तो रहने दीजिए।’

रतन सिंह के बढ़े हुए हाथ रुक गए, मुख मलिन हो गया। उदास होकर बोले, मुझे अपना व्रत तोड़ना पड़ेगा। प्रतिज्ञा-पत्र पर झूठे हस्ताक्षर करने पड़ेंगे। खैर, यही सही।