shudra by munshi premchand
shudra by munshi premchand

बूढ़ा- आठ-दस दिन से कम न लगेंगे, मगर घबराने की कोई बात नहीं। तुम्हें किसी बात की तकलीफ न होगी।

आब तक गौरा को अपने गाँव लौटने की आशा थी। कभी-न-कभी वह अपने पति को वहाँ अवश्य खींच ले जाएगी। लेकिन जहाज पर बैठकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि अब फिर नाता टूट रहा है। वह देर तक घाट पर पड़ी रोती रही, जहाज और समुद्र देखकर उसे भय हो रहा था। हृदय दहला जाता था।

शाम को जहाज खुला। उस समय गौरा का हृदय एक अक्षय भय से चंचल हो उठा। थोड़ी देर के लिए नैराश्य ने उस पर अपना आतंक जमा लिया। न-जाने किस देश जा रही हूँ उनसे वहाँ भेंट भी होगी या नहीं। उन्हें कहीं खोजती, कोई पता-ठिकाना भी तो नहीं मालूम। बार-बार पछताती थी कि एक दिन पहले क्यों नहीं चली आई। कलकत्ते में भेंट हो जाती, तो मैं उन्हें वहाँ कभी न जाने देती।

जहाज पर और भी कितने ही मुसाफिर थे, कुछ स्त्रियाँ भी थीं। उनमें बराबर गाली-गलौज होती रहती थी, इसलिए गौरा को उनसे बातें करने की इच्छा न होती थी। केवल एक स्त्री उदास दिखाई देती थी। रंग-ढंग से वह किसी भले घर की मालूम होती थी। गौरा ने उससे पूछा- तुम कहां जाती हो बहिन?

उस स्त्री की बड़ी-बड़ी आंखें सजल हो गईं। बोली- क्या बताऊं बहिन, कहाँ जा -रही हूँ। जहाँ भाग्य लिये जाता है, वहीं जा रही हूँ। तुम कहां जाती हो? गौरा-मैं तो अपने मालिक के पास जा रही हूँ। जहाँ यह जहाज रुकेगा, वह वहीं नौकर हैं। मैं कल आ जाती, तो उनसे कलकत्ते में ही भेंट हो जाती। आने में देर हो गई। क्या जानती थी कि वह इतनी दूर चले जाएँगे, नहीं तो क्यों देर करती!

स्त्री- अरे बहिन, कहीं तुम्हें भी तो कोई बहका कर नहीं लाया है? तुम घर से किसके साथ आई हो?

गौरा- मेरे आदमी ने तो कलकत्ता से आदमी भेजकर मुझे बुलाया था। स्त्री- वह आदमी तुम्हारी जान-पहचान का था?

गौरा- नहीं, उसी तरफ का एक बूढ़ा ब्राह्मण था।

स्त्री- वही लम्बा-सा, दुबला-पतला। लकलक बुड्ढा, जिसकी एक आंख में फूली पड़ी हुई है।

गौरा-हाँ-हाँ वही। क्या तुम उसे जानती हो?

स्त्री- उसी दुष्ट ने तो मेरा भी सर्वनाश किया है। ईश्वर करे, उसकी सातों पुश्तें नरक भोगे, उसका निर्वंश हो जाए, कोई पानी देने वाला भी न रहे, कोढ़ी होकर मरे। मैं अपना वृतांत सुनाऊँ, तो तुम समझोगी कि झूठ है। किसी को विश्वास न आएगा। क्या कहूँ बस यही समझ लो कि इसके कारण मैं न घर की रह गई, न घाट की। किसी को मुँह नहीं दिखा सकती। मगर जान तो बड़ी प्यारी होती है। मिरिच के देश जा रही हूँ कि वहाँ मेहनत-मजूरी करके जीवन के दिन काटूंगी।

गौरा के प्राण नदी में समा गए। मालूम हुआ, जहाज अथाह जल में डूबा जा रहा है। समझ गई कि बूढ़े ब्राह्मण ने दगा की। अपने गाँव में सुना करती थी कि गरीब लोग मिरिच में भरती होने के लिए जाया करते हैं। मगर जो वहाँ जाता है, वह फिर नहीं लौटता। हे भगवान, तुमने मुझे किस पाप का यह दण्ड दिया? बोली- यह सब क्यों लोगों को इस तरह छल कर मिरिच भेजते हैं?

स्त्री- रुपये के लोभ से, और किसलिए,? सुनती हूँ आदमी पीछे इन सबों को कुछ रुपये मिलते हैं।

गौरा- तो बहिन, वहाँ हमें क्या करना पड़ेगा?

स्त्री- मजूरी।

गौरा सोचने लगी, अब क्या करूँ? वह आशा-नौका, जिस पर बैठी हुई वह चली जा रही थी, टूट गई थी, अब समुद्र की लहरों के सिवा उनकी रक्षा करने वाला कोई न था। जिस आधार पर उसने अपना जीवन-भवन बनाया था, वह जलमग्न हो गया। अब उसके लिए जल के सिवा और कहीं आश्रय है? उसको अपनी माता की, अपने घर की, अपने गाँव की सहेलियों की याद आई, और ऐसी घोर मर्म- वेदना होने लगी, मानो कोई सर्प अन्तस्तल में बैठा हुआ बार-बार डस रहा हो। भगवान्! अगर मुझे यही यातना देनी थी, तो तुमने मुझे जन्म ही क्यों दिया था? तुम्हें दुखिया पर दया नहीं आयी? जो पिरो हुए हैं, उन्हीं को पीसते हो। करुण स्वर से बोली- तो अब क्या करना होगा बहिन?

स्त्री- यह तो वहाँ पहुँचकर मालूम होगा। अब मजूरी ही करनी पड़े तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर किसी ने कुदृष्टि से देखा, तो मैंने निश्चय कर लिया है कि या तो उसी के प्राण ले लूंगी या आपने प्राण दे दूँगी।

यह कहते-कहते उसे अपना वृत्तान्त सुनाने की वह उत्कट इच्छा हुई, जो दुखिया को हुआ करती है। बोली- मैं बड़े घर की बेटी और उससे भी बड़े घर की बहू हूं पर अभागिनी! विवाह के तीसरे ही साल पतिदेव का देहान्त हो गया। चित्त की कुछ ऐसी दशा हो गई कि नित्य मालूम होता कि वह मुझे बुला रहे हैं। पहले तो आंखें झपकते ही उनकी मूर्ति सामने आ जाती थी, लेकिन फिर तो यह दशा हो गई कि जागृत दशा में रह-रहकर उनके दर्शन होने लगे। बस, यही जान पड़ता था कि वह साक्षात् खड़े बुला रहे हैं। किसी से शर्म के मारे कहती न थी। पर मन में यह शंका होती थी कि जब उनका देहावसान हो गया है, तो वह मुझे दिखाई कैसे देते है? मैं उसे भ्रांति समझकर चित्त को शांत न कर सकती थी। मन कहता था, जो वस्तु प्रत्यक्ष दिखाई देती है, वह मिल क्यों नहीं सकती? केवल यह ज्ञान चाहिए। साधु-महात्माओं के सिवा ज्ञान और कौन दे सकता है? मेरा तो अब भी विश्वास है कि अभी ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनसे हम मरे हुए प्राणियों से बातचीत कर सकते हैं, उनको स्थूल रूप में देख सकते हैं। महात्माओं की खोज में रहने लगी। मेरे यहाँ अक्सर साधु-सन्त आते थे, उनसे एकांत में इस विषय में बातें किया करती थी, पर वे लोग सदुपदेश देकर मुझे टाल देते थे। मुझे सदुपदेशों की जरूरत न थी। मैं वैधव्य-धर्म खूब जानती थी। मैं तो यह ज्ञान चाहती थी, जो जीवन और मरण के बीच का परदा उठा दे। तीन साल तक मैं इसी खेल में लगी रही। दो महीने होते हैं, वही बूढ़ा ब्राह्मण संन्यासी बना हुआ मेरे यहाँ आ पहुँचा। मैंने इससे यही भिक्षा माँगी। इस धूर्त ने कुछ ऐसा मायाजाल फैलाया कि मैं आँखें रहते हुए भी फंस गई। अब सोचती हूँ तो अपने ऊपर आश्चर्य होता है कि मुझे उसकी बातों पर इतना विश्वास क्यों हुआ? मैं पति-दर्शन के लिए सब कुछ झेलने को, सब कुछ करने को तैयार थी। इसने मुझे रात को अपने पास बुलाया। मैं घरवालों से पड़ोसिन के घर जाने का बहाना करके इसके पास गयी। एक पीपल के नीचे इसकी धूनी जल रही थी। उस विमल चाँदनी में यह बूढ़ा जटाधारी ज्ञान और योग का देवता-सा मालूम होता था। मैं आकर धूनी के पास खड़ी हो गई। उस समय यदि बाबाजी मुझे आग में कूद पड़ने की आज्ञा देते, तो मैं तुरंत आग में कूद पड़ती। इसने मुझे बड़े प्रेम से बिठाया और मेरे सिर पर हाथ रखकर न जाने क्या कर दिया कि मैं बेसुध हो गयी। फिर मुझे कुछ नहीं मालूम कि मैं कहां गयी, क्या हुआ। जब मुझे होश आया तो मैं रेल पर सवार थी। जी में आया कि चिल्लाऊँ, पर यह सोचकर कि अब गाड़ी रुक भी गई और मैं उतर भी पड़ी, तो घर में घुसने न पाऊंगी, मैं चुपचाप बैठी रह गई। मैं परमात्मा की दृष्टि में निर्दोष थी, पर संसार की दृष्टि में कलंकित हो चुकी थी। रात को किसी युवती का घर से निकल जाना कलंकित करने के लिए काफी था। जब मुझे मालूम हो गया कि सब मुझे मिर्च के टापू में भेज रहे हैं, तो मैंने जरा भी आपत्ति नहीं की। मेरे लिए अब सारा संसार एक-सा है। जिनका संसार में कोई न हो, उसके लिए देश-परदेश दोनों बराबर हैं। हां यह पक्का निश्चय कर चुकी हूँ कि मरते दम तक अपने सत की रक्षा करूंगी। विधि के हाथ में मृत्यु से बढ़कर कोई यातना नहीं। विधवा के लिए मृत्यु का क्या भय? उसका तो जीना और मरना-दोनों बराबर है। बल्कि मर जाने से जीवन की विपत्तियों का तो अंत हो जाएगा।

गौरा ने सोचा इस स्त्री में कितना धैर्य और साहस है। फिर मैं क्यों इतनी कातर और निराश हो रही हूँ? जब जीवन की अभिलाषाओं का अंत हो गया, तो जीवन के अंत का क्या डर! बोली- बहिन, हम और तुम एक ही जगह रहेंगे। मुझे तो अब तुम्हारा ही भरोसा है।

स्त्री ने कहा- भगवान् का भरोसा रखो और मरने से मत डरो।

सघन अन्धकार छाया हुआ था। ऊपर काला आकाश था, नीचे काला जल। गौरा आकाश की ओर ताक रही थी। उसकी संगिन जल की ओर। उसके सामने आकाश के कुसुम थे, इसके चारों ओर अनन्त अखण्ड, अपार अन्धकार था।

जहाज से उतरते ही एक आदमी ने यात्रियों के नाम लिखने शुरू किये। इसका पहनावा तो अंग्रेजी था, पर बातचीत से हिंदुस्तानी मालूम होता था। गौरा सिर झुकाए अपनी संगिनी के पीछे खड़ी थी। उस आदमी की आवाज सुनकर वह चौक पड़ी। उसने दबी आँखों से उसकी ओर देखा। उसके समस्त शरीर में सनसनी दौड़ गई। क्या स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ? आंखों पर विश्वास न आया, फिर उस पर निगाह डाली। उसकी छाती वेग से धड़कने लगी। पैर थर-थर काँपने लगे। ऐसा मालूम होने लगा, मानो चारों ओर जल-ही- जल है, और उसमें बही जा रही हूँ। उसने अपनी संगिनी का हाथ पकड़ लिया, नहीं तो जमीन पर गिर पड़ती। उसके सम्मुख वही पुरुष खड़ा था, जो उसका प्राणाधार था और जिससे इस जीवन में भेंट की उसे लेश मात्र भी आशा न थी। यह मंगरू था, इसमें जरा भी सन्देह न था। हाँ उसकी सूरत बदल गई थी। यौवन-काल की वह कांतिमय सहारा, सदय छवि, नाम को भी न थी। बाल खिचड़ी हो गए थे। गाल पिचके हुए, लाल आँखों से कुवासना और कठोरता झलक रही थी। पर था मंगरू। गौरा के जी में प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के पैरों से लिपट जाऊं, चिल्लाने को जी चाहा, पर संकोच ने मन को रोका। बूढ़े ब्राह्मण ने बहुत ठीक कहा था। स्वामी ने अवश्य मुझे बुलाया था और मेरे आने से पहले यहाँ चले आए। उसने अपनी संगिनी के कान में कहा-बहिन, तुम उस ब्राह्मण को व्यर्थ ही बुरा कह रही थी। यही तो वह हैं, जो यात्रियों के नाम लिख रहे हैं।

स्त्री- सच, खूब पहचानती हो?

गौरा- बहिन, क्या इसमें भी धोखा हो सकता है?

स्त्री- तब तो तुम्हारे भाग जाग गए, मेरी भी सुधि लेना।

गौरा- भला, बहिन ऐसा भी हो सकता है कि यहाँ तुम्हें छोड़ दूँ।

मंगरू यात्रियों से बात-बात पर बिगड़ता था, बात-बात पर गालियाँ देता था, कई आदमियों को ठोकर मारे और कई को केवल अपने गाँव का जिला बता सकने के कारण उसने धक्का देकर गिरा दिया। गौरा मन-ही-मन गड़ी जाती थी। साथ ही अपने स्वामी के अधिकार पर उसे गर्व भी हो रहा था। आखिर मंगरू उसके सामने आकर खड़ा हो गया और कुचेष्टापूर्ण नेत्रों से देखकर बोला-तुम्हारा क्या नाम है?

गौरा ने कहा- गौरा।

मंगरू चौक पड़ा, फिर बोला- घर कहां है?

गौरा ने कहा- मदनपुर, जिला बनारस।

यह कहते-कहते उसे हंसी आ गई। मंगरू ने अबकी उसकी ओर ध्यान से देखा, तब लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला- गौरा! तुम यहाँ कहां? मुझे पहचानती हो?

गौरा रो रही थी, मुँह से बात न निकली।

मंगरू फिर बोला- तुम यहाँ कैसे आई?

गौरा खड़ी हो गई, आंसू पोंछ डाले और मंगरू की ओर देखकर बोल- तुम्हीं ने तो बुला भेजा था।

मंगरू-मैंने! मैं तो सात साल से यहाँ हूँ।

गौरा- तुमने उस बूढ़े ब्राह्मण से मुझे लाने को नहीं कहा था?

मंगरू- कह तो रहा हूँ मैं सात साल से यहाँ हूँ और मरने पर ही यहाँ से जाऊंगा। भला तुम्हें क्यों बुलाता।

गौरा को मंगरू से इस निष्ठुरता की आशा न थी। उसने सोचा, अगर यह सत्य भी हो कि इन्होंने मुझे नहीं बुलाया, तो भी इन्हें मेरा यों अपमान न करना चाहिए था। क्या यह समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर आई हूँ? यह तो इतने ओछे स्वभाव के न थे। शायद दरजा पाकर इन्हें मद हो गया है। नारी सुलभ अभिमान से गर्दन उठाकर उसने कहा- तुम्हारी इच्छा हो, तो अब लौट जाऊँ, तुम्हारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती?

मंगरू कुछ लज्जित होकर बोला- अब तुम यहाँ से लौट नहीं सकती गौरा? यहाँ आकर बिरला ही कोई लौटता है।

यह कहकर यह कुछ देर चिन्ता में मग्न खड़ा रहा, मानो संकट में पड़ा हुआ हो कि क्या करना चाहिए। उसकी कठोर मुखाकृति पर दीनता का रंग झलक पड़ा। तब कातर स्वभाव से बोला- जब आ गई हो, तो रहो। जैसी कुछ पड़ेगी देखी जाएगी।

गौरा- जहाज फिर का लौटेगा?

मंगरू- तुम यहाँ से पाँच बरस के पहले नहीं जा सकतीं।

गौरा- क्यों, क्या कुछ जबरदस्ती है?

मंगरू- हाँ? यहाँ का यही हुक्म है।

गौरा- तो फिर मैं अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंगी।

मंगरू ने सजल- नेत्र होकर कहा- जब तक मैं जीता हूँ, तुम मुझसे अलग नहीं रह सकती।

गौरा- तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।

मंगरू- मैं तुम्हें भार नहीं समझता, लेकिन यह जगह तुम-जैसी देवियों के रहने लायक नहीं है, नहीं तो अब तक मैंने तुम्हें कब का बुला लिया होता। वही बूढ़ा आदमी, जिसने तुम्हें बहकाया, मुझे घर से आते समय पटना में मिल गया और झाँसे देकर मुझे यहाँ भरती कर दिया। तब से यहीं पड़ा हुआ हूँ। चलो, मेरे घर में रहो, वहाँ बातें होगी यह दूसरी औरत कौन है?

गौरा- यह मेरी सखी है। इन्हें भी बूढ़ा बहका लाया है।

मंगरू- यह तो किसी कोठी में जाएंगी। इन सब आदमियों की बाँट होगी। जिसके हिस्से में जितने आदमी आएंगे, उतने ही हर एक कोठी में जाएंगे।

गौरा- यह तो मेरे साथ रहना चाहती है।

मंगरू -अच्छी बात है, इन्हें भी लेती चलो।

यात्रियों के नाम तो लिखे ही जा चुके थे, मंगरू ने उन्हें एक चपरासी को सौंपकर दोनों औरतों के साथ घर की राह ली। दोनों ओर सघन वृक्षों की कतारें थी। जहाँ तक निगाह जाती थी, ऊख-ही-ऊख दिखाई देती थी। समुद्र की ओर से शीतल, निर्मल वायु के झोंके आ रहे थे। अत्यंत सुरम्य दृश्य था। पर मंगरू की निगाह उस ओर न थी। वह भूमि की ओर ताकता सिर झुकाए, संदिग्ध चाल से चला जा रहा था, मानो मन-ही-मन कोई समस्या हल कर रहा है।

थोड़ी ही दूर गए थे कि सामने से दो आदमी आते दिखाई दिए। समीप आकर दोनों रुक गये और एक ने हँसकर कहा-मंगरू, इनमें से एक हमारी है। दूसरा बोला- और दूसरी मेरी।

मंगरू का चेहरा तमतमा उठा था। भीषण क्रोध से काँपता हुआ बोला- यह दोनों मेरे घर की औरतें हैं। समझ गए?

इन दोनों ने जोर से कहकहे मारा और एक ने गौरा के समीप आकर उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके कहा- यह मेरी है। चाहे तुम्हारे घर की हो, चाहे बाहर की। बच्चा, हमें चकमा देते हो।

मंगरू- कासिम, इन्हें मत छेड़ो, नहीं तो अच्छा न होगा। मैंने- कह दिया, मेरे घर की औरतें हैं।

मंगरू की आँखों से अग्नि की ज्वालामुखी निकल रही थी। वे दोनों उसके मुख का भाव देखकर कुछ,सहम गए और समझ लेने की धमकी देकर आगे बढ़े। किन्तु मंगरू के अधिकार-क्षेत्र से बाहर पहुँचते ही एक ने पीछे से ललकार कर कहा- देखें, कहां लेकर जाते हो।

मंगरू ने उधर ध्यान न दिया। जरा कदम बढ़ाकर चलने लगा। जैसे संध्या के एकान्त में हम कब्रिस्तान के पास से गुजरते हैं और हमें पग-पग पर यह शंका होती है कि कोई शब्द कान में न पड़ जाए, कोई सामने आकर खड़ा न हो जाए, कोई जमीन के नीचे से कफन ओढ़े उठ न खड़ा हो।

गौरा ने कहा- ये दोनों बड़े शोहदे थे।

मंगरू और मैं किस लिए कह रहा था कि यह जगह तुम-जैसी स्त्रियों के रहने लायक नहीं है।

सहसा दाहिनी तरफ से एक अंग्रेज घोड़ा दौड़ता हुआ आ पहुँचा और मंगरू से बोला- वेल जमादार, ये दोनों औरतें हमारी कोठी में रहेगा। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं है।

मंगरू ने दोनों औरतों को अपने पीछे कर लिया और सामने खड़ा होकर बोला- साहब, ये दोनों मेरे घर की औरतें हैं।

साहब- ओ-हो? तुम झूठा आदमी। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं तुम दो ले जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता। (गौरा की ओर इशारा करके) इसको हमारे कोठी पर पहुंचा दो।

मंगरू ने सिर-से-पैर तक काँपते हुए कहा- ऐसा नहीं हो सकता।

मगर साहब आगे बढ़ गया था, उसके कान में बात न पहुँची। उसने हुक्म दे दिया था और उसकी तामील करना जमादार का काम था।

शेष मार्ग निर्विघ्न समाप्त हुआ। आगे मजूरों के रहने के मिट्टी के घर थे। द्वारों पर स्त्री-पुरुष जहाँ-तहाँ बैठे हुए थे। सभी इन दोनों स्त्रियों की तरफ घूरते थे और आपस में इशारे करते और हंसते थे। गौरा ने देखा, उसमें छोटे-बड़े का लिहाज नहीं है, न किसी की आँखों में शर्म है।

एक भदैसल औरत ने हाथ पर चिलम पीते हुए अपनी पड़ोसिन से कहा- चार दिन की चाँदनी फिर अँधेरा पाख ।

दूसरी अपनी चोटी गूंथती हुई बोली- कलोर हैं न।