nairaashy-leela by munshi premchand
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पंडित हृदयनाथ अयोध्या के एक सम्मानित पुरुष थे। धनवान तो नहीं, लेकिन खाने-पीने से खुश थे। कई मकान थे, उन्हीं के किराये पर गुजर होता था। इधर किराए बढ़ गए थे, जिससे उन्होंने अपनी सवारी भी रख ली थी। बहुत विचारशील आदमी थे, अच्छी शिक्षा पायी थी, संसार का काफी तर्जुबा था, पर क्रियात्मक शक्ति से वंचित थे, सब-कुछ न जानते थे। समाज उनकी आंखों में एक भयंकर भूत था, जिससे सदैव डरते रहना चाहिए। उसे जरा भी रुष्ट किया, तो फिर जान की खैर नहीं। उनकी स्त्री जागेश्वरी उनका प्रतिबिम्ब थी। पति के विचार उसके विचार और पति की इच्छा उसकी इच्छा थी। दोनों प्राणियों में कभी मतभेद न होता था। जागेश्वरी शिव की उपासक थी, हृदयनाथ वैष्णव थे, पर दान और व्रत में दोनों को समान श्रद्धा थी। दोनों धर्मनिष्ठ थे, उससे कहीं अधिक, जितना सामान्यतः शिक्षित लोग हुआ करते हैं। इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई सन्तान न थी। उसका विवाह तेरहवां वर्ष में हो गया था और माता-पिता को अब यही लालसा थी कि भगवान उसे पुत्रवती करें, तो हम लोग नवासे के नाम अपना सब-कुछ लिख-लिखा कर निश्चिंत हो जाएँ।

किन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। कैलास कुमारी का अभी गौना भी न हुआ था, वह अभी तक यह भी न जानने पाई थी कि विवाह का आशय क्या है, कि उसका सुहाग उठ गया। वैधव्य ने उसके जीवन की अभिलाषाओं का दीपक बुझा दिया।

माता और पिता विलाप कर रहे थे, घर में कुहराम मचा हुआ था, पर कैलास कुमारी भौंचक्की होकर सबके मुँह की ओर ताकती थी। उसकी समझ ही में न आता था कि यह लोग रोते क्यों हैं? माँ-बाप की इकलौती बेटी थी। माँ- बाप के अतिरिक्त वह किसी तीसरे व्यक्ति को अपने लिए आवश्यक न समझती थी। उसकी सुख-कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था। वह समझती थी, स्त्रियाँ पति के मरने पर इसीलिए रोती हैं कि वह उनका और उनके बच्चों का पालन करता है। मेरे घर में किस बात की कमी है? मुझे इसकी क्या चिंता है कि खाएँगे क्या, पहनेंगे क्या? मुझे जिस चीज की जरूरत होगी, बाबूजी तुरन्त ला देंगे, अम्मा से जो चीज मांगूंगी, वह दे देंगी, फिर रोऊँ क्यों? वह अपनी माँ को रोते देखती तो रोती, पति के शोक से नहीं, माँ के प्रेम से। कभी सोचती, शायद यह लोग इसलिए रोते हैं कि कहीं मैं कोई ऐसी चीज न माँग बैठूं जिसे यह दे न सकें। तो मैं ऐसी चीज माँगूँगी ही क्यों? मैं अब भी तो उनसे कुछ नहीं माँगती, वह आप ही मेरे लिए एक-न-एक चीज नित्य लाते रहते हैं। क्या मैं अब कुछ और हो जाऊंगी?

इधर माता का यह हाल था कि बेटी की सूरत देखते ही आँखों से आँसू की झड़ी लग जाती। बाप की दशा और भी करुणाजनक थी। घर में आना-जाना छोड़ दिया। सिर पर हाथ धरे कमरे में अकेले उदास बैठे रहते। उसे विशेष दुःख इस बात का था कि सहेलियाँ भी अब उसके साथ खेलने न आती। उसने उनके घर जाने की माता से आज्ञा माँगी, तो वह फूट-फूटकर रोने लगीं। माता-पिता की यह दशा देखी, तो उसने उनके सामने आना छोड़ दिया, बैठी किस्से-कहानियाँ पढ़ा करती। उसकी एकान्त-प्रियता का माँ-बाप ने कुछ और ही अर्थ समझा। लड़की शोक के मारे घुली जाती है, इस वज्राघात ने उसके हृदय को टुकड़े-टुकड़े कर डाला।

एक दिन हृदयनाथ ने जागेश्वरी से कहा- जी चाहता है, घर छोड़कर कहीं भाग जाऊँ। इसका कष्ट अब नहीं देखा जाता।

जागेश्वरी- मेरी तो भगवान् से यही प्रार्थना है कि मुझे संसार से उठा ले। कहां तक छाती पर पत्थर की सिल रखूँ।

हृदयनाथ- किसी भांति इसका मन बहलाना चाहिए, जिससे शोक-मय विचार आने ही न पाए। हम लोगों को दुःखी और रोते देखकर उसका दुःख और भी दारुण हो जाता है।

जागेश्वरी- मेरी तो बुद्धि काम नहीं करती।

हृदयनाथ- हम लोग यों ही मातम करते रहे तो लड़की की जान पर बन जायेगी। अब कभी-कभी उसे लेकर सैर करने चली जाया करो। कभी थियेटर दिखा दिया, कभी घर में गाना-बजाना करा दिया। इन बातों से उसका दिल बहलता रहेगा।

जागेश्वरी- मैं तो उसे देखते ही रो पड़ती हूँ। लेकिन अब जब्त करूंगी। तुम्हारा विचार बहुत अच्छा है। बिना दिल-बहलाव के उसका शोक न दूर होगा।

हृदयनाथ- मैं भी अब उससे दिल बहलाने वाली बातें किया करूंगा। कल एक सरबीं लाऊंगा, अच्छे-अच्छे दृश्य जमा करूंगा। ग्रामोफोन तो आज ही मँगवाए देता हूँ। बस, उसे हर वक्त किसी-न-किसी काम में लगाए रखना चाहिए। एकान्तवास शोक-ज्वाला के लिए समीर के समान है।

उस दिन से जागेश्वरी ने कैलास कुमारी के लिए विनोद और प्रमोद के सामान जमा करने शुरू किए। कैलासी माँ के पास आती तो उसकी आँखों में आँसू की बूंदें न देखती, होंठों पर हँसी की आभा दिखाई देती। वह मुस्कुराकर कहती- बेटी, आज थियेटर में बहुत अच्छा तमाशा होने वाला है। चलो, देख आएँ। कभी गंगा- स्नान को कहती, वहाँ माँ-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल-विहार करतीं, कभी दोनों संध्या-समय पार्क की ओर चली जातीं। धीरे-धीरे सहेलियाँ भी आने लगीं। कभी सब-की-सब बैठकर ताश खेलतीं, कभी गाती-बजाती। पंडित हृदयनाथ ने भी विनोद की सामग्रियाँ जुटायी। कैलासी को देखते ही मगन होकर बोलते- बेटी आओ, तुम्हें आज काश्मीर के दृश्य दिखाऊँ। कभी कहते, आओ आज स्विट्जरलैंड की अनुपम झाँकी और झरनों की छटा देखें। कभी ग्रामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटों का खूब आनंद उठाती। इतने सुख से उसके दिन कभी न गुजरे थे।

इस भांति दो वर्ष बीत गए। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आदी हो गई कि एक दिन भी थियेटर न जाती, तो बेकली-सी होने लगती। मनोरंजन नवीनता का दास है और समानता का शत्रु। थियेटरों के बाद सिनेमा की सनक सवार हुई। सिनेमा के बाद मिस्मेरिज्म और हिप्नोटिज्म के तमाशों की ग्रामोफोन के नए रिकार्ड आने लगे। संगत का चस्का पड़ गया। बिरादरी में कहीं उत्सव होता तो माँ-बेटी अवश्य जातीं। कैलासी नित्य इसी नशे में डूबी रहती, चलती तो कुछ गुनगुनाती हुई, किसी से बातें करती तो वही थियेटर और सिनेमा की। भौतिक संसार से अब उसे कोई वास्ता न था, अब उसका निवास कल्पना-संसार में था। दूसरे लोक की निवासिनी होकर उसे प्राणियों से कोई सहानुभूति न रही, किसी के दुःख पर जरा भी दया न आती। स्वभाव में उच्छृंखलता का विकास हुआ, अपनी सुरुचि पर गर्व करने लगी। सहेलियों से डींगें मारती, यहाँ के लोग मूर्ख हैं, यह सिनेमा की कद्र क्या करेंगे। इसकी कद्र तो पश्चिम के लोग करते हैं। वहाँ मनोरंजन की सामग्रियाँ उतनी ही आवश्यक हैं, जितनी हवा। तभी तो वे इतने प्रसन्न-चित्त रहते हैं, मानो किसी बात की चिन्ता ही नहीं। यहाँ किसी को इसका रस ही नहीं। जिन्हें भगवान ने सामर्थ्य भी दिया है, यह भी सरेआम से मुँह ढांप कर पड़े रहते हैं। सहेलियाँ कैलासी की यह गर्व पूर्ण बातें सुनती और उसकी और भी प्रशंसा करतीं। वह उनका अपमान करने के आवेग में आप ही हास्यास्पद बन जाती थी।

पड़ोसियों में इन सैर-सपाटों की चर्चा होने लगी। लोक-सम्मति किसी की रियायत नहीं करती। किसी ने सिर पर टोपी टेढ़ी रखी और पड़ोसियों की आँखों में चुभा, कोई जरा अकड़कर चला और पड़ोसियों ने आवाजें कसी। विधवा के लिए पूजा-पाठ है, तीर्थ-व्रत है, मोटा खाना है, मोटा पहनना है। उसे विनोद और विलास, राग और रंग की क्या जरूरत? विधाता ने उसके सुख के द्वार बंद कर दिए हैं। लड़की प्यारी सही, लेकिन शर्म और हया भी तो कोई चीज है! जब माँ-बाप ही उसे सिर चढ़ाए हुए हैं, तो उसका क्या दोष? मगर एक दिन आँखें खुलेंगी अवश्य। महिलाएँ कहतीं, बाप तो मर्द है, लेकिन माँ कैसी है, उसको जरा भी विचार नहीं कि दुनिया क्या कहेगी? कोई उन्हीं की एक दुलारी बेटी थोड़े ही है। इस भांति मन बढ़ाना अच्छा नहीं।

कुछ दिनों तक तो वह खिचड़ी आपस में पकती रही। अंत को एक दिन कई महिलाओं ने जागेश्वरी के घर पदार्पण किया। जागेश्वरी ने उनका बड़ा आदर- सत्कार किया। कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करने के बाद एक महिला बोली- महिलाएँ रहस्य की बातें करने में बहुत अभ्यस्त होती हैं- बहन, तुम मजे में हो कि हंसी-खुशी में दिन काट देती हो। हमें तो दिन पहाड़ हो जाता है। न कोई काम न धंधा, कोई कहाँ तक बातें करे?

दूसरी देवी ने आंखें मटकाते हुए कहा- अरे, तो यह तो बदे की बात है। सभी के दिन हंसी-खुशी में कटे, तो रोए कौन! यहाँ तो सुबह से शाम तक चक्की- चूल्हे ही से छुट्टी नहीं मिलती, किसी बच्चे को दस्त आ रहे हैं, तो किसी को ज्वर चढ़ा हुआ है। कोई मिठाइयों की रट लगा रहा है, तो कोई पैसों के लिए शोर मचाए हुए है। दिन भर हाय-हाय करते बीत जाता है। सारे दिन कठपुतलियों की भांति नाचती रहती हूँ।

तीसरी रमणी ने इस कथन का रहस्यमय भाव से विरोध किया- बदे की बात नहीं, वैसा दिल चाहिए। तुम्हें तो कोई राजसिंहासन पर बिठा दे तब भी तस्कीन न होगी। तब और भी हाय-हाय करोगी।

इस पर एक वृद्धा ने कहा- नौज ऐसा दिल! यह भी कोई दिल है कि घर में चाहे आग लग जाये, दुनिया में कितना ही उपहास हो रहा हो, लेकिन आदमी अपने राग-रंग में मस्त रहे। वह दिल है कि पत्थर! हम गृहिणी कहलाती हैं, हमारा काम है अपनी गृहस्थी में रत रहना। आमोद-प्रमोद में दिन काटना हमारा काम नहीं। और महिलाओं ने इस निर्दय व्यंग्य पर लज्जित होकर सिर झुका लिया। वे जागेश्वरी की चुटकियां लेना चाहती थीं, उसके साथ बिल्ली और चूहे की निर्दय क्रीड़ा करना चाहती थी। आहत को तड़पाना उनका उद्देश्य था। इस खुली हुई चोट ने उनके पर-पीड़न-प्रेम के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ी, किन्तु जागेश्वरी को ताड़ना मिल गई। स्त्रियों के विदा होने के बाद उसने जाकर पति से यह सारी कथा सुनायी। हृदयनाथ उन पुरुषों में न थे, जो प्रत्येक अवसर पर अपनी आत्मिक स्वाधीनता का स्वाँग भरते हैं, हठधर्मी को आत्म-स्वातंत्र्य के नाम से छिपाते हैं। वह सचिंत भाव से बोले- तो अब क्या होगा?

जागेश्वरी- तुम्हीं कोई उपाय सोचो।

हृदयनाथ- पड़ोसियों ने जो आक्षेप किया है, यह सर्वथा उचित है। कैलास कुमारी के स्वभाव में मुझे एक विचित्र अन्तर दिखाई दे रहा है। मुझे स्वयं ज्ञात हो रहा है कि उसके मनबहलाव के लिए हम लोगों ने जो उपाय निकाला है, वह मुनासिब नहीं है। उनका यह कथन सत्य है कि विधवाओं के लिए यह आमोद- विनोद वर्जित है। अब हमें यह परिपाटी छोड़नी पड़ेगी।

जागेश्वरी- लेकिन कैलासी तो इन खेल-तमाशों के बिना एक दिन भी नहीं रह सकती।

हृदयनाथ -उसकी मनोवृत्तियों को बदलना पड़ेगा।