मोटेराम- आज ही हो सकता है। हां, पहले देवताओं के आवाहन के निमित्त थोड़े से रुपये दिला दिजिए।
रुपये की कमी ही क्या थी? पंडितजी को रुपये मिल गये और वह खुश- खुश घर आये। धर्मपत्नी को सारा समाचार कहा। उसने चिंतित होकर कहा- तुमने नाहक यह रोग अपने सिर लिया! भूख न बरदाश्त हुई, तो? सारे शहर में भद्द हो जाएगी, लोग हँसी उड़ायेंगे। रुपये लौटा दो।
मोटेराम ने आश्वासन देते हुए कहा- भूख कैसे न बर्दाश्त होगी? मैं ऐसा मूर्ख थोड़े ही हूँ कि यों ही जा बैठूंगा। पहले मेरे भोजन का प्रबंध करो। इमरतियां, लड्डू, रसगुल्ले मंगाओ। पेट-भर भोजन कर लूँ फिर आध सेर मलाई खाऊंगा, उसके ऊपर आध सेर बादाम की तह जमाऊंगा। बची-खुची कसर मलाई वाले दही से पूरी कर लूंगा। फिर देखूँगा, भूख क्यों कर पास फटकती है? तीन दिन तक तो साँस ही न ली जाएगी, भूख की कौन चलावे। इतने में तो सारे शहर में खलबली मच जाएगी। भाग्यसूर्य उदय हुआ है, इस समय आगा-पीछा करने से पछताना पड़ेगा। बाजार न बंद हुआ, तो समझ लो मालामाल हो जाऊंगा, नहीं तो यहाँ गाँठ से क्या जाता है! सौ रुपये तो हाथ लग ही गए।
इधर तो भोजन का प्रबंध हुआ, उधर पंडित मोटेराम ने डोंडी पिटवा दी कि संध्या-समय टाउनहाल के मैदान में पंडित मोटेराम देश की राजनीतिक समस्या पर व्याख्यान देंगे, लोग अवश्य आएँ। पंडितजी सदैव राजनीतिक विषयों से अलग रहते थे। आज वह इस विषय पर कुछ बोलेंगे, सुनना चाहिए। लोगों को उत्सुकता हुई। पंडितजी का शहर में बड़ा मान था। नियत समय पर कई हजार आदमियों की भीड़ लग गई। पंडितजी घर से अच्छी तरह तैयार होकर पहुँचे। पेट इतना भरा था कि चलना कठिन था। ज्यों ही यह वहाँ पहुँचे दर्शकों ने खड़े होकर उन्हें साष्टांग दंडवत-प्रणाम किया।
मोटेराम बोले- नगरवासियों, व्यापारियों, सेठों और महाजनों! मैंने सुना है, तुम लोगों ने कांग्रेस वालों के कहने में आकर बड़े लाट साहब के शुभागमन के अवसर पर हड़ताल करने का निश्चय किया है? यह कितनी बड़ी कृतघ्नता है? वह चाहें, तो आज तुम लोगों को तोप के मुँह पर उड़वा दें, सारे शहर को खुदवा डालें। राजा हैं, हंसी-ठ्ट्ठा नहीं। वह तर्क देते जाते हैं, तुम्हारी दीनता पर दया करते हैं और तुम गायों की तरह हत्या के बल खेत चरने को तैयार हो। लाट साहब चाहें तो आज रेल बंद कर दें। तब बताओ, क्या करोगे? तुम उनसे भागकर कहां जा सकते हो? है कहीं ठिकाना? इसलिए जब इस देश में और उन्हीं के अधीन रहना है, तो इतना उपद्रव क्यों फैलाते हो? याद रखो, तुम्हारी जान उनकी मुट्ठी में है! ताऊन के कीड़े फैला दें, तो सारे नगर में हाहाकार मच जाए। तुम झाडू से आँधी को रोकने चले हो? खबरदार, जो किसी ने बाजार बंद किया, नहीं कहे देता हूँ अन्न-जल बिना प्राण दे दूँगा।
एक आदमी ने शंका की-महाराज, आपके प्राण निकलते-निकलते महीने भर से कम न लगेगा। तीन दिन में क्या होगा?
मोटेराम ने गरजकर कहा- प्राण शरीर में नहीं रहता, ब्रह्मांड में रहता है। मैं चाहूँ तो योग बल से अभी प्राण त्याग कर सकता हूँ। मैंने तुम्हें चेतावनी दे दी, अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। मेरा कहना मानोगे, तो तुम्हारा कल्याण होगा। न मानोगे, हत्या लगेगी, संसार में कहीं मुँह न दिखा सकोगे। बस, यह लो, मैं यहीं आसन जमाता हूँ।
शहर में यह समाचार फैला, तो लोगों के होश उड़ गए। अधिकारियों की इस नई चाल ने उन्हें हतबुद्धि-सा कर दिया। कांग्रेस के कर्मचारी तो अब भी कहते थे कि यह सब पाखंड है। राजभक्तों ने पंडित को कुछ दे-दिलाकर यह स्वाँग खड़ा किया है। जब और कोई बस न चला, फौज, पुलिस, कानून सभी युक्तियों से हार गए, तो यह नई माया रची है। यह और कुछ नहीं, राजनीति का दिवाला है। नहीं, पंडितजी ऐसे कहां के देशसेवक थे, जो देश की दशा से दुःखी होकर व्रत ठानते? इन्हें भूखों मरने दो, दो दिन में बोल जाएँगे। इस नई चाल की जड़ अभी से काट देनी चाहिए! कहीं यह चाल सफल हो गई, तो समझ लो, अधिकारियों के हाथ में एक नया अस्त्र आ जाएगा और वह सदैव इसका प्रयोग करेंगे। जनता समझदार इतनी तो है नहीं कि इन रहस्यों को समझे। गीदड़-भभकी में आ जाएगी।
लेकिन नगर के बनिए-महाजन, जो प्रायः धर्म-भीरु होते हैं, ऐसे घबरा गए कि उन पर इन बातों का कुछ असर ही न होता था। वे कहते थे- साहब, आप लोगों के कहने से सरकार के बुरे बने, नुकसान उठाने को तैयार हुए, रोजगार छोड़ा, कितनों के दिवाले हो गए, अफसरों को मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। पहले जाते थे, अधिकारी लोग ‘आइए सेठजी’ कहकर सम्मान करते थे, अब रेलगाड़ियों में धक्के खाते हैं, पर कोई नहीं सुनता। आमदनी चाहे कुछ हो या न हो, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है। यह सब सहा, और सहेंगे, लेकिन धर्म के मामले में हम आप लोगों का नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकते। जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्यों कर भोजन करके टाँगें फैलाकर सोएँ? कहीं मर गया, तो भगवान के सामने क्या जवाब देंगे?
सारांश यह कि कांग्रेस वालों की एक न चली। व्यापारियों का एक डेपुटेशन 9 बजे रात को पंडितजी की सेवा में उपस्थित हुआ। पंडितजी ने आज भोजन तो खूब डटकर किया था, लेकिन डटकर भोजन करना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी। महीने में प्रायः 20 दिन वह अवश्य ही न्यौता पाते थे और निमंत्रण में डटकर भोजन करना एक स्वाभाविक बात है। अपने सहभोजियों की देखा देखी, लागडाँट की धुन में, या गृहस्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है। पंडितजी की जठराग्नि ऐसी परीक्षाओं में उत्तीर्ण होती रहती थी। अतएव इस समय भोजन का समय आने से उनकी नीयत कुछ डावाँडोल हो रही थी। यह बात नहीं कि वह भूख से व्याकुल थे। लेकिन भोजन का समय आ जाने पर अगर पेट अफरा हुआ न हो, अजीर्ण न हो गया हो, तो मन में एक प्रकार की भोजन की चाह होने लगती है।
शास्त्री जी की इस समय यही दशा हो रही थी। जी चाहता था, किसी खोमचे वाले को पुचकार कर कुछ ले लेते, किन्तु अधिकारियों ने उनकी शरीर-रक्षा के लिए वहाँ कई सिपाहियों को तैनात कर दिया था। वे सब हटने का नाम न लेते थे। पंडितजी की विशाल बुद्धि इस समय यही समस्या हल कर रही थी कि इन यमदूतों को कैसे टालूं? खामख्वाह इन पाजियों को यहाँ खड़ा कर दिया। मैं कोई कैदी तो हूं नहीं कि भाग जाऊंगा।
अधिकारियों ने शायद यह व्यवस्था इसलिए कर रखी थी कि कांग्रेस वाले जबरदस्ती पंडितजी को वहाँ से भगाने की चेष्टा न कर सकें। कौन जाने, वे क्या चाल चलें। ऐसे अनुचित और अपमानजनक व्यवहारों से पंडितजी की रक्षा करना अधिकारियों का कर्तव्य था।
वह अभी इस चिंता में थे कि व्यापारियों का डेपुटेशन आ पहुंचा। पंडितजी कुहनियों के बल लेटे हुए थे, संभल बैठे । नेताओं ने उनके चरण छूकर कहा- महाराज, हमारे ऊपर आपने क्यों यह कोप किया है? आपकी जो आज्ञा हो, वह हम शिरोधार्य करते हैं। आप उठिए, अन्न-जल ग्रहण कीजिए। हमें नहीं मालूम था कि आप सचमुच यह व्रत ठानने वाले हैं, कहीं तो हम पहले ही आपसे विनती करते। आप कृपा कीजिए, दस बजने का समय है। हम आपका वचन कभी न टालेंगे।
मोटेराम- ये कांग्रेस वाले तुम्हें मटियामेट करके छोड़ेंगे! आप तो डूबते ही हैं, तुम्हें भी अपने साथ ले डूबेगें? बाजार बंद रहेगा, तो इसके तुम्हारा ही टोटा होगा, सरकार को क्या? तुम नौकरी छोड़ दोगे, आप भूखों मरोगे, सरकार को क्या? तुम जेल जाओगे, आप चक्की पीसोगे, सरकार को क्या? न जाने इन सबको क्या सनक सवार हो गई है कि अपनी नाक काटकर दूसरों का असगुन मनाते हैं। तुम इन कुपन्थियों के कहने में न आओ। क्यों दुकानें खुली रखोगे?
सेठ- महाराज, जब तक शहर-भर के आदमियों की पंचायत न हो जाए, तब तक हम इसका बीमा कैसे ले सकते हैं। कांग्रेस वालों ने कहीं लूट मचवा दी, तो कौन हमारी मदद करेगा? आप उठिए, भोजन खाइए। हम कल पंचायत करके आपकी सेवा में जैसा कुछ होगा, डाल देंगे।
मोटेराम- तो फिर पंचायत करके आना।
डेपुटेशन जब निराश होकर लौटने लगा, तो पंडितजी ने कहा- किसी के पास सुँघनी तो नहीं है?
एक महाशय ने डिबिया निकालकर दे दी।
