रात के नौ बज गए थे। सेठ भोंदूमल ने, जो व्यापारी-समाज के नेता थे, निश्चयात्मक भाव से कहा- मान लिया, पंडितजी ने स्वार्थवश ही यह अनुष्ठान किया है, पर इससे वह कष्ट तो कम नहीं हो सकता, जो अन्न-जल के बिना प्राणी-मात्र को होता है। यह धर्म-विश्व है कि एक ब्राह्मण हमारे ऊपर दाना-पानी त्याग दे और हम पेट भर-भरकर चैन की नींद सोएँ। अगर उन्होंने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, तो उसका दंड उन्हें भोगना पड़ेगा। हम क्यों अपने कर्तव्य से मुँह फेरे।
कांग्रेस के मन्त्री ने दबी हुई आवाज से कहा- मुझे तो जो कुछ कहना था, वह मैं कह चुका। आप लोग समाज के अगुआ हैं, जो फैसला कीजिए, हमें मंजूर है। चलिए, भी आपके साथ चलूँगा । धर्म का कुछ अंश मुझे भी मिल जाएगा, पर एक विनती सुन लीजिए- आप लोग पहले मुझे वहाँ जाने दीजिए। मैं एकान्त में उनसे दस मिनट बातें करना चाहता हूँ। आप लोग फाटक पर रुके रहिएगा। जब मैं वहाँ से लौट आऊँ तो फिर जाइएगा। इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती थी? प्रार्थना स्वीकृत हो गई।
मंत्री जी पुलिस-विभाग में बहुत दिनों तक रह चुके थे, मानव-चरित्र की कमजोरियों को जानते थे। वह सीधे बाजार गये और 5 रु. की मिठाई ली। उसमें मात्रा से अधिक सुगंध डालने का प्रयत्न किया, चाँदी के वरक लगवाए और एक दोने में लिये रूठे हुए ब्रह्मदेव की पूजा करने चले। एक झझर में डंडा पानी लिया और उसमें केवड़े का जल मिलाया। दोनों ही चीजों से खुशबू की लपटें उड़ रही थी। सुगंध में कितनी उत्तेजित शक्ति है, कौन नहीं जानता? इससे बिना भूखे को भूख लग जाती है, भूखे आदमी की तो बात ही क्या?
पंडितजी इस समय भूमि पर अचेत पड़े हुए थे। रात को कुछ नहीं मिला। दस-पाँच छोटी-छोटी मिठाइयों का क्या जिक्र! दोपहर को कुछ नहीं मिला। और इस वक्त भी भोजन की बेला हो गई थी। भूख में अब आशा की व्याकुलता नहीं, निराशा की शिथिलता थी। सारे अंग ढीले पड़ गये थे। यहाँ तक कि आँखें भी न खुलती थीं। उन्हें खोलने की बार चेष्टा करते, पर वे आपकी-आप बंद हो जातीं। होंठ सूख गए थे। जिंदगी का कोई चिह्न था, तो बस, उनका धीरे- धीरे कराहना। ऐसा संकट उनके ऊपर कभी न पड़ा था।
अजीर्ण की शिकायत तो उन्हें महीने में दो-चार बार हो जाती थी, जिसे यह हड़ आदि की फकियों से शान्त कर लिया करते थे, पर अजीर्णावस्था में ऐसा कभी न हुआ था कि उन्होंने भोजन छोड़ दिया हो। नगर-निवासियों को, अमन-सभा को, सरकार को, ईश्वर को, कांग्रेस को और धर्मपत्नी को जी-भरकर कोस चुके थे। किसी से कोई आशा न थी। अब इतनी शक्ति भी न रही थी कि स्वयं खड़े होकर बाजार जा सकें। निश्चय हो गया था कि आज रात को अवश्य प्राण-पखेरू उड़ जाएँगे। जीवन-सूत्र कोई रस्सी तो है वहीं कि चाहे जितने झटके तो भी, टूटने का नाम न ले।
मन्त्री ने पुकारा-शास्त्री जी।
मोटेराम ने पड़े-पड़े आंखें खोल दीं। उनमें ऐसी करुण वेदना भरी हुई थी, जैसे किसी बालक के हाथ से कौआ मिठाई छीन ले गया हो।
मन्त्री जी ने दोने की मिठाई सामने रख दी और झझर पर कुल्हड औंधा दिया। इस काम से सुचित होकर बोले-यहाँ कब तक पड़े रहिएगा?
सुगंध ने पंडितजी की इन्द्रियों पर संजीवनी का काम किया। पंडितजी उठ बैठे और बोले- देखो, कब तक निश्चय होता है।
मन्त्री-यहाँ कुछ निश्चय-विश्चय न होगा। आज दिन-भर पंचायत हुई थी, कुछ तय न हुआ। कल कहीं शाम को लाट साहब आएँगे। तब तक तो आपकी न जाने क्या दशा होगी? आपका चेहरा बिलकुल पीला पड़ गया है।
मोटेराम- यही मरना बदा होगा, तो कौन टाल सकता है? इस दोने में कलाकन्द है क्या?
मन्त्री- हाँ, तरह-तरह की मिठाइयां हैं। एक नातेदार के यहाँ बैना भेजने के लिए विशेष रीति से बनवाई हैं।
मोटेराम- जभी इनमें इतनी सुगन्ध है। जरा दोना खोलिए तो?
मन्त्री ने मुस्कराकर दोना खोल दिया और पंडितजी नेत्रों से मिठाइयां खाने लगे। अन्धा आँखें पाकर भी संसार को ऐसे तृष्णापूर्ण नेत्रों से न देखेगा। मुँह में पानी भर आया। मंत्री जी ने कहा- आपका व्रत न होता, तो दो-चार मिठाइयाँ आपको चखाता। 5 रु. सेर के दाम दिये हैं।
मोटेराम- तब तो बहुत ही श्रेष्ठ होंगी। मैंने बहुत दिन हुए, कलाकन्द नहीं खाया।
मंत्री जी- आपने भी तो बैठे-बैठाए झंझट मोल ने लिया। प्राण ही न रहेंगे तो धन किस काम आएगा?
मोटेराम- क्या करूं, फंस गया। मैं इतनी मिठाइयों का जलपान कर जाता था। (हाथ से मिठाइयों को टटोल कर) भोला की दुकान की होंगी?
मन्त्री- चखिए दो-चार?
मोटेराम- क्या चखूँ, धर्मसंकट में पड़ा हूँ।
मन्त्री- अजी चखिए भी! इस समय जो आनन्द प्राप्त होगा, वह लाख रुपये में भी नहीं मिल सकता। कोई किसी से कहने जाता है क्या?
मोटेराम- मुझे भय किसका है? मैं यहाँ दाना-पाजी बिना मर रहा हूँ और किसी को परवाह ही नहीं। तो फिर मुझे क्या डर? लाओ? इधर दोना बढ़ाओ। जाओ, सबसे कह देना, शास्त्री जी ने व्रत तोड़ दिया। भाड़ में जाए बाजार और व्यापार! यहाँ किसी की चिन्ता नहीं। जब धर्म नहीं रहा, तो मैंने ही धर्म का बीड़ा थोड़े ही उठाया है!
यह कहकर पंडितजी ने दोना अपनी तरफ खींच लिया और लगे बढ़-बढ़कर हाथ मारने। यहाँ तक कि एक पल-भर में आधा दोना समाप्त हो गया। सेठ लोग आकर फटक पर खड़े थे। मंत्री जी ने जाकर कहा- जरा चलकर तमाशा देखिए। आप लोगों को न बाजार खोलना पड़ेगा, न खुशामद करनी पड़ेगी। मैंने सारी समस्याएँ हल कर दीं। यह कांग्रेस का प्रताप है।
चाँदनी छिटकी हुई थी। लोगों ने आकर देखा, पंडितजी मिठाई ठिकाने लगाने में वैसे ही तन्मय हो रहे हैं, जैसे कोई महात्मा समाधि में मग्न हो।
भोंदूमल ने कहा- पंडितजी के चरण छूता हूँ। हम लोग तो आ ही रहे थे, आपने क्यों जल्दी की? ऐसी तरकीब बताते कि आपकी प्रतिज्ञा भी न टूटती और कार्य भी सिद्ध हो जाता।
मोटेराम- मेरा काम सिद्ध हो गया। यह अलौकिक आनन्द है, जो धन के ढेरों से नहीं प्राप्त हो सकता। अगर कुछ श्रद्धा हो, तो इसी दुकान की इतनी ही मिठाई और मंगवा दो।
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हम यह कहना भूल गए कि मन्त्री जी को मिठाई लेकर मैदान में आते समय पुलिस के सिपाही को चार आने पैसे देने पड़े थे। वह नियम-विरुद्ध था, लेकिन मंत्री जी ने इस बात पर अड़ना उचित न समझा।
-लेखक
