हिज एक्सेलेंसी वाइसराय बनारस आ रहे थे। सरकारी कर्मचारी छोटे से बड़े तक, उनके स्वागत की तैयारियाँ कर रहे थे। इधर कांग्रेस ने शहर में हड़ताल मनाने की सूचना दे दी थी। इससे कर्मचारियों में बड़ी हलचल थी। एक ओर सड़कों पर झंडियां लगाई जा रही थीं, सफाई हो रही थी, पंडाल बन रहा था, दूसरी ओर फौज और पुलिस के सिपाही संगीने चढ़ाए शहर की गलियों में और सड़कों पर कवायद करते फिरते थे। कर्मचारियों की सिरतोड़-कोशिश थी कि हड़ताल न होने पाए, मगर कांग्रेसियों की धुन थी कि हड़ताल हो, और जरूर हो। अगर कर्मचारियों को पशु-बल का जोर है, तो हमें नैतिक बल का भरोसा, इस बार दोनों की परीक्षा हो जाए कि मैदान किसके हाथ रहता है।
घोड़े पर सवार मजिस्ट्रेट सुबह से शाम तक दुकानदारों को धमकियाँ देता फिरता कि एक-एक को जेल भिजवा दूंगा, बाजार लुटवा दूँगा, यह करूंगा और वह करूंगा दुकानदार हाथ बाँधकर कहते-हुजूर बादशाह हैं, विधाता हैं, जो चाहें कर सकते हैं। पर हम क्या करें? कांग्रेस वाले हमें जीता न छोड़ेंगे। हमारी दुकानों पर धरने देंगे, हमारे ऊपर बाल बढ़ाएंगे, कुएँ में गिरेंगे, उपवास करेंगे। कौन जाने, दो-चार प्राण ही दे दें, तो हमारे मुँह पर सदैव के लिए कालिख पुत जाएगी। हुजूर उन्हीं कांग्रेस वालों को समझाएं, तो हमारे ऊपर बड़ा एहसान करें। हड़ताल न करने से हमारी कुछ हानि थोड़े ही होगी। देश के बड़े-बड़े आदमी आवेंगे, हमारी दुकानें खुली रहेंगी, तो एक के दो लेंगे, महंगे सौदे बेचेंगे, पर करें क्या, इन शैतानों से कोई बस नहीं चलता।
राय हरनंदन साहब, राजा लालचन्द्र और खाँ बहादुर मौलवी, महमूद अली तो कर्मचारियों से भी ज्यादा बेचैन थे। मजिस्ट्रेट के साथ-साथ और अकेले भी कोशिश करते थे। अपने मकान पर बुलाकर दुकानदारों को समझाते, अनुनय- विजय करते, आँखें दिखाते, इक्के-बग्घी वालों को धमकाते, मजदूरों की खुशामद करते, पर कांग्रेस के मुट्ठी-भर आदमियों का कुछ ऐसा आतंक छाया हुआ था कि कोई इनकी सुनता ही न था। यहाँ तक कि पड़ोस की कुंजड़िन ने भी निर्भय होकर कह दिया-हुजूर, चाहे मार डालो पर दुकान न खुलेगी। नाक न कटवाऊंगी। सबसे बड़ी चिंता यह थी कि कहीं पंडाल बनाने वाले मजदूर, बढ़ई, लोहार वगैरह काम न छोड़ दें, नहीं तो अनर्थ हो जाएगा। राय साहब ने कहा- हुजूर, दूसरे शहरों से दुकानदार बुलवाएं और एक बाजार अलग खोलें।
खाँ साहब ने फरमाया- वक्त इतना कम रह गया है कि दूसरा बाजार तैयार नहीं हो सकता। हुजूर कांग्रेस वालों को गिरफ्तार कर लें, या उनकी जायदाद बन्द कर लें, फिर देखिए कैसे काबू में नहीं आते।
राजा साहब बोले- पकड़-धकड़ से तो लोग और झल्लाएँगे। कांग्रेस से हुजूर कहें कि तुम हड़ताल बंद कर दो, तो सबको सरकारी नौकरी दे दी जाएगी। उसमें अधिकांश बेकार लोग भरे पड़े हैं, यह प्रलोभन पाते ही फूल उठेंगे।
मगर मजिस्ट्रेट को कोई राय न जँची। यहाँ तक कि वाइसराय के आने में तीन दिन और रह गए।
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आखिर राजा साहब को एक युक्ति सूझी। क्यों न हम लोग भी नैतिक बल का प्रयोग करें? आखिर कांग्रेस वाले धर्म और नीति के नाम पर ही तो यह तूमार बाँधते हैं। हम लोग भी उन्हीं का अनुकरण करें, शेर को उसकी माँद में पछाड़ें। कोई ऐसा आदमी पैदा करना चाहिए, जो व्रत करे कि दुकानें न खुलीं, तो मैं प्राण दे दूँगा। यह जरूरी है कि वह ब्राह्मण हो और ऐसा, जिसको शहर के लोग मानते हों, आदर करते हों। मध्य सहयोगियों के मन में भी यह बात बैठ गई, उछल पड़े। राय साहब ने कहा- बस, अब पड़ाव मार लिया। अच्छा, ऐसा कौन पण्डित है, पण्डित गदाधर शर्मा?
राजा- जी नहीं, उसे कौन मानता है? खाली समाचार पत्रों में लिखा करता है। शहर के लोग उसे क्या जानें?
राय साहब- दमड़ी ओझा तो है इस ढंग का?
राजा- जी नहीं, कॉलेज के विद्यार्थियों के सिवा उसे और कौन जानता है?
राय साहब- पंडित मोटेराम शास्त्री?
राजा- बस, बस। आपने खूब सोचा। बेशक वह है इस ढंग का। उसी को बुलाना चाहिए। विद्वान है, धर्म-कर्म से रहता है। चतुर भी है। वह अगर हाथ में आ जाए, तो फिर बाजी हमारी है।
राय साहब ने तुरंत पंडित मोटेराम के घर सन्देशा भेजा। उस समय शास्त्री जी पूजा पर थे। यह पैगाम सुनते ही जल्दी से पूजा समाप्त की और चले। राजा साहब ने बुलाया है, धन्य भाग! धर्मपत्नी से बोले- आज चन्द्रमा कुछ बली मालूम होते हैं। कपड़े लाओ, देखूँ क्यों बुलाया है?
स्त्री ने कहा- भोजन तैयार है, करते जाओ। न जाने कब लौटने का अवसर मिले।
किन्तु शास्त्री जी ने आदमी को इतनी देर खड़ा रखना उचित न समझा। जाड़े के दिन थे। हरी बनात की अचकन पहनी, जिस पर लाल शंजाफ लगी हुई थी। गले में एक खरी दुपट्टा डाला। फिर सिर पर बनारसी साफा बाँधा। लाल चौड़े किनारे की रेशमी धोती पहनी और खड़ाऊं पर चले। उनके मुख से ब्रह्म-तेज टपकता था। दूर ही से मालूम होता था कि कोई महात्मा आ रहे हैं। रास्ते में जो मिलता, सिर झुकाता। कितने ही दुकानदारों ने खड़े होकर पैलगी की। आज काशी का नाम इन्हीं की बदौलत चल रहा है, वहीं तो और कौन रह गया है? कितना नम्र स्वभाव है। बालकों से हँसकर बातें करते हैं। इस ठाट से पंडितजी राजा साहब के मकान पर पहुंचे। तीनों मित्रों ने खड़े होकर उनका सम्मान किया। खाँ बहादुर बोले- कहिए पंडितजी, मिज़ाज तो अच्छे हैं? अल्लाह आप नुमाइश में रखने के काबिल आदमी हैं। आपका वजन तो दस मन से कम न होगा?
राय साहब- एक मन इल्म के लिए दस मन अक्ल चाहिए। उसी क़ायदे से एक मन अक्ल के लिए दस मन का जिस्म जरूरी है, नहीं तो उसका बोझा कौन उठाए?
राजा साहब- आप लोग इसका मतलब नहीं समझ सकते। बुद्धि एक प्रकार का नजला है, जब दिमाग में नहीं समाती, तो जिस्म में आ जाती है।
खाँ साहब- मैंने तो बुजुर्गों की जबानी सुना है कि मोटे आदमी अक्ल के दुश्मन होते हैं।
राय साहब- आपका हिसाब कमजोर था, वरना आपकी समझ में इतनी बात जरूर आ जाती कि अक्ल और जिस्म में 1 और 10 की निस्बत है, तो जितना ही मोटा आदमी होगा, उतना ही उसकी अक्ल का वजन भी ज्यादा होगा।
राजा साहब- इससे यह साबित हुआ कि जितना ही मोटा आदमी, उतनी ही मोटी उसकी अक्ल।
मोटेराम- जब मोटी अक्ल की बदौलत राज-दरबार में पूछ होती है, तो मुझे पतली अक्ल लेकर क्या करना है?
हास-परिहास के बाद राजा साहब ने वर्तमान समस्या पंडितजी के सामने उपस्थित की और उसके निवारण का जो उपाय सोचा था, वह भी प्रकट किया। बोले- बस, यह समझ लीजिए कि इस साल आपका भविष्य पूर्णतया अपने हाथों में है। शायद किसी आदमी को अपने भाग्य-निर्णय का ऐसा महत्त्वपूर्ण अवसर न मिला होगा। हड़ताल न हुई, तो और तो कुछ नहीं कह सकते, आपको जीवन- भर किसी के दरवाजे जाने की जरूरत न होगी। बस, ऐसा कोई व्रत ठानिए कि शहर वाले थर्रा उठें। कांग्रेस वालों ने धर्म की आड़ लेकर इतनी शक्ति बढ़ाई है। बस, ऐसी कोई युक्ति निकालिए कि जनता के धार्मिक भावों को चोट पहुँचे।
मोटेराम ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया- यह तो कोई ऐसा कठिन काम नहीं है। मैं तो ऐसे-ऐसे अनुष्ठान कर सकता हूँ कि आकाश से जल की वर्षा करा दूं, मरी के प्रकोप को भी शान्त करा दूं। अन्न का भाव घटा-बढ़ा दूँ? कांग्रेस वालों को परास्त कर देना तो कोई बड़ी बात नहीं। अंग्रेजी पढ़े-लिखे महानुभाव समझते हैं कि जो काम हम कर सकते हैं, वह कोई नहीं कर सकता। पर गुप्त विद्याओं का उन्हें ज्ञान ही नहीं।
खाँ साहब- तब तो जनाब, यह कहना चाहिए कि आप दूसरे खुदा हैं। हमें क्या मालूम था कि आप में कुदरत है, नहीं तो इतने दिनों तक क्यों परेशान होते?
मोटेराम- साहब, मैं गुप्त-धन का पता लगा सकता हूँ। पितरों को बुला सकता हूँ केवल गुणग्राहक चाहिए। संसार में गुणियों का अभाव नहीं, गुणज्ञों का ही अभाव हैं- गुन ना हिरानो, गुनगाहक हिरानो है।
राजा- भला, इस अनुष्ठान के लिए आपको क्या भेंट करना होगा?
मोटेराम- जो कुछ आपकी श्रद्धा हो।
राजा- कुछ बतला सकते हैं कि यह कौन-सा अनुष्ठान होगा?
मोटेराम- अनशन-व्रत के साथ मंत्रों का जप होगा। सारे शहर में हलचल न मचा दूँ तो मोटेराम नहीं।
राजा- तो फिर कब से?
