sati by munshi premchand
sati by munshi premchand

दो शताब्दियों से अधिक बीत गए हैं, पर चिंता देवी का नाम चला आता है। बुंदेलखंड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्रों स्त्री-पुरुष चिंता देवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सुहाने गीतों से गूंज उठता है, टीले और टोकरे रमणियों के रंग-बिरंगे वस्त्रों से सुशोभित हो जाते हैं। देवी का मंदिर एक बहुत ऊंचे टीले पर बना हुआ है। इसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी-सी बेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का जीना है। भीड़-भाड़ में धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े, इसलिए जीने की दीवार दोनों तरफ बनी हुई हैं। यही चिंता देवी सती हुई थी पर लोक-रीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ चिता पर नहीं बैठी थी। उनका पति हाथ जोड़े सामने खड़ा था, पर वह उसकी ओर आंखें उठाकर भी न देखती थी। वह पति-शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर न था, उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।

यमुना-तट पर कालपी एक छोटा-सा नगर है। चिंता उसी नगर के एक वीर बुंदेल की कन्या थी। उसकी माता उनकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थी। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्धाओं को कमर खोलने की भी फुरसत न मिलती थी। वे घोड़े की पीठ पर भोजन करते और जमीन पर ही झपकियां ले लेते थे। चिंता का बाल्यकाल पिता के साथ समर-भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह में या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता। चिंता निश्शंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के किले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे थे, उसकी गुड़िया ओढ़नी न ओढ़ती थी। वह सिपाहियों के गुड्डा बनाती और उन्हें रण-क्षेत्र में खड़ा करती थी।

कभी-कभी उसका पिता संध्या समय भी न लौटता, पर चिंता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियां कभी न सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियां और वह भी योद्धाओं के मुंह से सुन-सुनकर आदर्शवादिता बन गई थी।

एक बार तीन दिन तक चिंता को अपने पिता की खबर न मिली। वह एक पहाड़ी की खोह में बैठी मन-ही-मन एक ऐसा किला बना रही थी, जिसे शत्रु किसी भांति जान न सके। दिन-भर वह उसी किले का नक्शा सोचती और रात को उसी किले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन संध्या-समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उनके सामने रोना शुरू किया। चिंता ने विस्मित होकर पूछा – दादाजी कहां है? तुम लोग क्यों रोते हो?

किसी ने इसका उत्तर न दिया। वे जोर से दहाड़े मार-मारकर रोने लगे। चिंता समझ गई कि उसके पिता ने वीर-गति पाई है। उस तेरह वर्ष की बालिका की आंखों से आंसू की एक बूंद भी न गिरी, मुख जरा भी मलिन न हुआ, एक आह भी न निकली। हंसकर बोली – ‘अगर उन्होंने वीर-गति पाई, तो तुम लोग रोते क्यों हो? योद्धाओं के लिए इसे बढ़कर और कौन मृत्यु हो सकती है? इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है? यह रोने का नहीं है, आनंद मनाने का अवसर है।’

एक सिपाही ने चिंतित स्वर में कहा – हमें तुम्हारी चिंता है। तुम अब कहां रहोगी? चिंता ने गंभीर स्वर से कहा – ‘इसकी तुम कुछ चिंता न करो, दादा! मैं अपने बाप की बेटी हूं। जो कुछ उन्होंने किया, वहीं मैं भी करूंगी। अपनी मातृ-भूमि को शत्रुओं के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने अपने प्राण दे दिए। मेरे सामने भी वही आदर्श है। जाकर अपने आदमियों को संभाले। मेरे लिए एक घोड़ा और हथियारों का प्रबंध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे न पाएंगे, लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देखना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अंत कर देना। यही मेरी आपसे विनय है। जाइए, अब विलम्ब न कीजिए।’

सिपाहियों को चिंता के ये वीर-वचन सुनकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ। हां, उन्हें यह संदेह अवश्य हुआ कि क्या कोमल बालिका अपने संकल्प पर दृढ़ रह सकेगी?

पांच वर्ष बीत गए। समस्त प्रांत में चिंता देवी की धाक बैठ गई। शत्रुओं के कदम उखड़ गए। वह विजय की सजीव मूर्ति थी। उसे तीरों और गोलियों के सामने निश्शंक खड़े देखकर सिपाहियों को उत्तेजना मिलती रहती थी। उसके सामने वे कैसे कदम पीछे हटाते? कोमलांगी युवती आगे बढ़े, तो कौन पुरुष पीछे हटेगा। सुन्दरियों के सम्मुख योद्धाओं की वीरता अजेय हो जाती है। रमणी के वचन-बाण योद्धाओं के लिए आत्मसमर्पण के गुप्त संदेश हैं। उसकी एक चितवन कायरों में भी पुरुषत्व प्रवाहित कर देती है। चिंता की छवि-कीर्ति ने मनचले सूरमाओं को चारों ओर से खींच-खींचकर उसकी सेना को सजा दिया – जान पर खेलने वाले और चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मंडराने लगे।

इन्हीं योद्धाओं में रत्नसिंह नाम का एक युवक राजपूत भी था।

यों तो चिंता के सैनिकों में सभी तलवार के धनी थे, बात पर जान देने वाले, उसके इशारे पर आग में कूदने वाले, उसकी आज्ञा पाकर एक बार आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते किंतु रत्नसिंह सबसे बढ़ा हुआ था। चिंता भी हृदय में उसे प्रेम करती थी। रत्नसिंह अन्य वीरों की भांति अक्खड़, मुंहफट या घमंडी न था। और लोग अपनी-अपनी कीर्ति को खूब बढ़ा-बढ़ाकर बयान करते, आत्म-प्रशंसा करते हुए उनकी जबान न रुकती थी। वे जो कुछ करते, चिंता को दिखाने के लिए। उनका ध्येय अपना कर्त्तव्य न था, चिंता थी। रत्नसिंह जो कुछ करता, शांत भाव से। अपनी प्रशंसा करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यों न मार आये, उसकी चर्चा तक न करता। उसकी विनयशीलता और नम्रता, संकोच की सीमा से भिड़ गई थी। औरों के प्रेम में विलास था, पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप। और लोग मीठी नींद सोते थे, पर रत्नसिंह तारे गिर-गिनकर रात काटा था और बस अपने दिल में समझता था कि चिंता मेरी होगी – केवल रत्नसिंह निराश था, और इसलिए उसे किसी से न द्वेष था, न राग। औरों को चिंता के सामने चहकते देखकर उसे उनकी वाक्पटुता पर आश्चर्य होता, प्रतिक्षण उसका निराशांधकार और भी घना हो जाता था। कभी-कभी वह अपने बोदेपन पर झुंझला उठता – क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से वंचित रखा, जो रमणियों के चित्त को मोहित करते हैं? उसे कौन पूछेगा, उसकी मनोव्यथा को कौन जानता है? पर वह मन में झुंझलाकर रह जाता था। दिखावे की उसकी सामर्थ्य ही न थी।

आधी से अधिक रात बीत चुकी थी। चिंता अपने खेमे में विश्राम कर रही थी। सैनिकगण भी कड़ी मंजिल मारने के बाद कुछ खा-पीकर गाफिल पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के उस पार शत्रुओं का एक दल डेरा डाले पड़ा था। चिंता उसके आने की खबर पाकर भागा-भाग चली आ रही थी। उसने प्रातःकाल शत्रुओं पर धावा करने का निश्चय कर लिया था। उसे विश्वास था कि शत्रुओं को मेरे आने की खबर न होगी किंतु यह उसका भ्रम था। उसकी सेना का एक आदमी शत्रुओं से मिला हुआ था। यहां की खबरें वहां नित्य पहुंचती रहती थी। उन्होंने चिंता से निश्चित होने के लिए एक षड्यंत्र रचा रखा था – उसकी गुप्त-हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को नियुक्त कर दिया था। वे तीनों हिंसक पशुओं की भांति दबे पांव जंगल को पार करके आये और वृक्षों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिंता का खेमा कौन-सा है। सारी सेना बे-खबर सो रही थी, इससे उन्हें अपने कार्य की सिद्धि में लेश-मात्र संदेह न था। वे वृक्षों की आड़ से निकले, और जमीन पर मगर की तरह रेंगते हुए चिंता के खेमे की ओर चले।

सारी सेना बेखबर सोती थी, पहरे के सिपाही थककर चूर हो जाने के कारण निद्रा में मग्न हो गए है। केवल एक प्राणी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ हुआ बैठा था। यह रत्नसिंह था। आज उसने यह कोई नई बात न की थी। पड़ावों में उसकी रातें इसी भांति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थी। घातकों की आहट पाकर उसने तलवार निकाल ली और चौंक कर उठ खड़ा हुआ। देखा – तीन आदमी झुके हुए चले आ रहे है। अब क्या करे? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली पड़ जाये, और अंधेरे में लोग एक-दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरें। इधर अकेले तीन जवानों से भिड़ने में प्राणों का भय। अधिक सोचने का मौका न था। उसमें योद्धाओं की अविलम्ब निश्चय कर लेने की शक्ति थी, तुरन्त तलवार खींच ली और उन तीनों पर टूट पड़ा। कई मिनट तक तलवारें छपाछप चलती रही। फिर सन्नाटा छा गया। उधर वे तीनों आहत होकर गिर पड़े, इधर यह भी जख्मों से चूर होकर अचेत हो गया।

प्रातःकाल चिंता उठी, तो चारों जवानों को भूमि पर पड़े पाया। उसका कलेजा धक से हो गया। समीप जाकर देखा – तीनों आक्रमणकारियों के प्राण निकल चुके थे, पर रत्नसिंह की सांस चल रही थी। सारी घटना समझ में आ गई। नारीत्व ने वीरत्व पर विजय पाई। जिन आंखों से पिता की मृत्यु पर आंसू की एक बूंद भी न गिरी थी, उन्हीं आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उसने रत्नसिंह का सिर अपनी जांघ पर रख लिया, और हृदयांगन में रचे हुए स्वयंवर में उसके गले में जयमाला डाल दी।

महीने भर न रत्नसिंह की आंखें खुली, और न चिंता की आंखें बंद हुई। चिंता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं न जाती। न अपने इलाके की परवाह थी, न शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फिक्र। रत्नसिंह पर वह अपनी सारी विभूतियों का बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आंखें खुली। देखा – चारपाई पर पड़ा हुआ है, और चिंता सामने पंखा लिये खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला – चिंता, पंखा मुझे दे दो, तुम्हें कष्ट हो रहा है।

चिंता का हृदय इस समय स्वर्ग के अखंड, अपार सुख का अनुभव कर रहा था। एक महीना पहले जिस जीर्ण शरीर के सिरहाने बैठी हुई वह नैराश्य से रोया करती थी, उसे आज बोलते देखकर आह्लाद का पारावार न था। उसने स्नेह-मधुर स्वर से कहा – ‘प्राणनाथ, यदि यह कष्ट है तो सुख क्या है? मैं नहीं जानती।’ ‘प्राणनाथ’ – इस संबोधन में विलक्षण मंत्र की-सी शक्ति थी। रत्नसिंह की आंखें चमक उठी। जीर्ण मुद्रा प्रदीप्त हो गई, नसों में एक नए जीवन का संचार हो उठा, और वह जीवन कितना स्फूर्तिमय था। उसमें कितना उत्साह, कितना माधुर्य, कितना उल्लास और कितनी करुणा थी। रत्नसिंह के अंग-अंग फड़कने लगे। उसे अपनी भुजाओं में अलौकिक पराक्रम का अनुभव होने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह सारे संसार को पार कर सकता है, उड़कर आकाश पर पहुंच सकता है, पर्वतों को चीर सकता है। एक क्षण के लिए उसे ऐसी तृप्ति हुई, मानों उसकी सारी अभिलाषाएं पूरी हो गई हैं, और अब वह किसी से कुछ नहीं चाहता, शायद शिव को सामने खड़े देखकर भी वह मुंह फेर लेगा, कोई वरदान न मांगेगा। उसे अब किसी सिद्धि की, किसी पदार्थ की इच्छा न थी। उसे गर्व हो रहा था, मानो उससे अधिक सुखी, उससे अधिक भाग्यशाली पुरुष इस संसार में और कोई न होगा।

रत्नसिंह ने उठने की चेष्टा करके कहा – ‘बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती।’

चिंता अभी अपना वाक्य पूरा भी न कर पाई थी कि उसी प्रसंग में बोली – ‘हां, आपको मेरे कारण अलबत्ता दुस्सह यातना भोगनी पड़ी।’

चिंता ने रत्नसिंह को कोमल हाथों से लिटाते हुए कहा – ‘इस सिद्धि के लिए तुमने तपस्या नहीं की थी। झूठ क्यों बोलते हो? तुम केवल एक अबला की रक्षा कर रहे थे। यदि मेरी जगह कोई दूसरी स्त्री होती, तो भी तुम इतने ही प्राणपण से उसकी रक्षा करते, मुझे इसका विश्वास है। मैं तुमसे सत्य कहती हूं मैंने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का प्रण कर लिया था, लेकिन तुम्हारे आत्मोत्सर्ग ने मेरे प्रण को तोड़ डाला। मेरा पालन योद्धाओं की गोद में हुआ है, मेरा हृदय उसी पुरुष सिंह के चरणों पर अर्पण हो सकता है, जो प्राणों की बाजी खेल सकता हो। रसिकों के हास-विलास, गुंडों के रूप-रंग और डकैतों के दांव-घात का मेरी दृष्टि में रत्ती भर भी मूल्य नहीं। उनकी नट-विद्या को मैं केवल तमाशे की तरह देखती हूं। तुम्हारे ही हृदय में मैंने सच्चा उत्सर्ग पाया, और तुम्हारी दासी हो गई – आज से नहीं बहुत दिनों से।’

प्रणय की पहली रात थी। चारों ओर सन्नाटा था। केवल दोनों प्रेमियों के हृदयों में अभिलाषाएं लहरा रही थीं। चारों और अनुरागमयी चांदनी छिटकी हुई थी, और उसकी हास्यमयी छटा में वर-वधू प्रेमालाप कर रहे थे।

सहसा खबर आयी कि शत्रुओं की एक सेना किले की ओर बढ़ी चली आती है। चिंता चौंक पड़ी, रत्नसिंह खड़ा हो गया, और खूंटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।

चिंता ने उसकी ओर कातर-स्नेह की दृष्टि से देखकर कहा – ‘कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या जरूरत है?’

रत्नसिंह ने बंदूक कंधे पर रखते हुए कहा, ‘मुझे भय है कि अबकी वे लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं।’