Raja Hardaul by Munshi Premchand
Raja Hardaul by Munshi Premchand

बुंदेलखंड में ओरछा पुराना राज्य है। इसके राजा बुंदेले हैं। इन बुंदेलों ने पहाड़ों की घाटियों में अपना जीवन बिताया है। एक समय ओरछे के राजा जुझारसिंह थे। ये बड़े साहसी और बुद्धिमान थे। शाहजहां उस समय दिल्ली के बादशाह थे, जब लोदी ने बलवा किया और वह शाही मुल्क को लूटता-पिटता ओरछे की ओर आ निकला, तब राजा जुझार सिंह ने उससे मोरचा लिया। राजा के इस काम से गुणग्राही शाहजहां बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने तुरन्त ही राजा को दक्खिन का शासन-भार सौंपा। उस दिन ओरछे में बड़ा आनन्द मनाया गया। शाही दूत खिलअत और सनद लेकर राजा के पास आया। जुझारसिंह को बड़े-बड़े काम करने का अवसर मिला। सफर की तैयारियां होने लगीं। तब राजा ने अपने छोटे भाई हरदौल सिंह को बुलाकर कहा, ‘भैया, मैं तो जाता हूं। अब यह राज-पाट तुम्हारे सुपुर्द है। तुम भी इससे जी से प्यार करना। न्याय ही राजा का सबसे बड़ा सहायक है। न्याय की गढ़ी में कोई शत्रु नहीं घुस सकता, चाहे वह रावण की सेना या इन्द्र का बल लेकर आये, पर न्याय वही सच्चा है, जिसे प्रजा भी न्याय समझे। तुम्हारा काम केवल न्याय ही करना न होगा, बल्कि प्रजा को अपने न्याय का विश्वास भी दिलाना होगा और मैं तुम्हें क्या समझाऊं, तुम स्वयं समझदार हो।’

यह कहकर उन्होंने अपनी पगड़ी उतारी और हरदौल सिंह के सिर पर रख दी। हरदौल रोता हुआ उनके पैरों से लिपट गया। इसके बाद राजा अपनी रानी से बिदा होने के लिए रनिवास आये। रानी दरवाजे पर खड़ी रो रही थी। उन्हें देखते ही पैरों पर गिर पड़ी। जुझारसिंह ने उठाकर उसे छाती से लगाया और कहा, ‘प्यारी, यह रोने का समय नहीं है। बुंदेलों की स्त्रियां ऐसे अवसर पर रोया नहीं करतीं। ईश्वर ने चाहा, तो हम-तुम जल्द मिलेंगे। मुझ पर ऐसी ही प्रीति रखना। मैंने राज-पाट हरदौल को सौंपा है, वह अभी लड़का है। उसने अभी दुनिया नहीं देखी है। अपनी सलाहों से उसकी मदद करती रहना।’

रानी की जबान बंद हो गयी। वह अपने मन में कहने लगी, हाय! यह कहते हैं, बुंदेलों की स्त्रियां ऐसे अवसरों पर रोया नहीं करतीं। शायद उनके हृदय नहीं होता, या अगर होता है तो उससे प्रेम नहीं होता है। रानी कलेजे पर पत्थर रखकर आंसू पी गयी और हाथ जोड़कर राजा की ओर मुस्कराती हुई देखने लगी, पर क्या वह मुस्कराहट थी। जिस तरह अंधेरे मैदान में मशाल की रोशनी अंधेरे को और भी अथाह कर देती है, उसी तरह रानी की मुस्कराहट उसके मन के अथाह दुःख को और भी प्रकट कर रही थी।

जुझार सिंह के चले जाने के बाद हरदौल सिंह राज करने लगा। थोड़े ही दिनों में उसके न्याय और प्रजावत्सल्य ने प्रजा का मन हर लिया। लोग जुझार सिंह को भूल गए। जुझार सिंह के शत्रु भी थे और मित्र भी, पर हरदौल का कोई शत्रु न था, सब मित्र ही थे। वह ऐसा हंसमुख और मधुरभाषी था कि उससे जो बातें कर लेता, वह जीवन भर उसका भक्त बना रहता। राज्य भर में ऐसा कोई न था जो उसके पास तक न पहुंच सकता हो। रात-दिन उसके दरबार का फाटक खुला रहता था। ओरछे को कभी ऐसा सर्वप्रिय राजा नसीब न हुआ था। वह उदार था, न्यायी था, विद्या और गुण का ग्राहक था, पर सबसे बड़ा गुण जो उसमें था, यह उसकी वीरता थी। उसका वह गुण हद दर्जे को पहुंच गया था। जिस जाति के जीवन का अवलम्ब तलवार पर है, वह अपने राजा के किसी गुण पर इतना नहीं रीझती जितना उसकी वीरता पर। हरदौल अपने गुणों से अपनी प्रजा के मन का भी राजा हो गया, जो मुल्क और माल पर राज करने से भी कठिन है। इस प्रकार एक वर्ष बीत गया। उधर दक्खिन में जुझार सिंह ने अपने प्रबंध से चारों ओर शाही दबदबा जमा दिया, इधर ओरछे में हरदौल ने प्रजा पर मोहन-मंत्र फूंक दिया।

फागुन का महीना था। अबीर और गुलाल से जमीन लाल हो रही थी। कामदेव का प्रभाव लोगों को भड़का रहा था। रबी ने खेतों में सुनहला फर्श बिछा रखा था और खलिहानों में सुनहले महल उठा दिये थे। संतोष इस सुनहले फर्श पर इठलाता फिरता था और निश्चिंतता इस सुनहले महल में तान अलाप रही थी। इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर डकैत कादिरखां, ओरछे आया। बड़े बड़े पहलवान उसका लोहा मान गये थे। दिल्ली से ओरछे तक सैकड़ों मर्दानगी के मद से मतवाले उसके सामने आये, पर कोई उससे जीत न सका। उससे लड़ना भाग्य से नहीं, बल्कि मौत से लड़ना था। वह किसी ईनाम का भूखा न था। जैसा ही दिल का दिलेर था, वैसा ही मन का राजा था। ठीक होली के दिन उसने धूमधाम से ओरछे में सूचना दी कि ‘खुदा का शेर, दिल्ली का कादिरखां आरेछे आ पहुंचा है। जिसे अपनी जान भारी हो, आकर अपने भाग्य का निपटारा कर ले।’ ओरछे के बड़े-बड़े बुंदेले सूरमा वह घमंड-भरी वाणी सुनकर गरम हो उठे। फाग और डफ की तान के बदले ढोल की वीर ध्वनि सुनायी देने लगी। हरदौल का अखाड़ा ओरछे के पहलवानों और फकैतो का सबसे बड़ा अड्डा था। संध्या को यहां सारे शहर के सूरमा जमा हुए। कालदेव और भालदेव बुंदेलों की नाक थे, सैकड़ों मैदान मारे हुए। ये ही दोनों पहलवान कादिरखां का घमंड चूर करने के लिए गये।

दूसरे दिन किले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए। कैसे-कैसे सजीले अलबेले जवान थे – सिर पर खुशरंग की पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आंखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार, और कैसे-कैसे बूढ़े थे तनी हुई मूंछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बंधी हुई दाढ़ियां देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले। उनकी मर्दाना चाल-ढाल नौजवानों को लजाती थी। हर एक के मुंह से वीरता की बातें निकल रहीं थीं। नौजवान कहते थे – ‘देखे, आज ओरछे की लाज रहती है या नहीं।’ पर बूढ़े कहते थे ‘ओरछे की हार कभी नहीं हुई, न होगी।’ वीरों का यह जोश देखकर राजा हरदौल ने बड़े जोर से कह दिया ‘खबरदार, बुंदेलों की लाज रहे या न रहे, पर उनकी प्रतिष्ठा पर बल न पड़ने पाये। यदि किसी ने औरों को यह कहने का अवसर दिया कि ओरछे वाले तलवार से न जीत सके तो धांधली कर बैठे, वह अपने को जाति का शत्रु समझें।’

सूर्य निकल आया था। एकाएक नगाड़े पर चोट पड़ी और आशा तथा भय ने लोगों के मन को उछालकर मुंह तक पहुंचा दिया। कालदेव और कादिरखां दोनों लंगोट कसे शेरों की तरह अखाड़े में उतरे और गले मिल गये। तब दोनों तरफ से तलवारें निकली और दोनों के बगलों में चली गयी। फिर बादल के दो टुकड़ों से बिजलियां निकलने लगी। पूरे तीन घंटे तक यही मालूम होता रहा कि दो अंगारे हैं। हजारों आदमी खड़े तमाशा देख रहे थे और मैदान में आधी रात का सा सन्नाटा छाया था। हां, जब कभी कालदेव गिरहदार हाथ चलाता या कोई पेंचदार वार बचा जाता, तो लोगों की गर्दन आप-ही-आप उठ जाती, पर किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलता था। अखाड़े के अंदर तलवारों की खींच तान थी, पर देखने वालों के लिए अखाड़े से बाहर मैदान में इसमें भी बढ़कर तमाशा था। बार-बार जातीय प्रतिष्ठा के विचार से मन के भावों को रोकना और प्रसन्नता या दुःख का शब्द मुंह से बाहर न निकलने देना तलवारों के वार बचाने से अधिक कठिन काम था। एकाएक कादिरखां अल्लाह-अकबर चिल्लाया, मानो बादल गरज उठा और उसके गरजते ही कालदेव के सिर पर बिजली गिर पड़ी।

कालदेव के गिरते ही बुंदेलों को सब्र न रहा। हर एक के चेहरे पर निर्बल क्रोध और कुचले हुए घमंड की तस्वीर खिंच गयी। हजारों आदमी जोश में आकर अखाड़े पर दौड़े, पर हरदौल ने कहा – खबरदार! अब कोई आगे न बढ़े। इस आवाज ने पैरों के साथ जंजीर का काम किया। दर्शकों को रोक कर जब वे अखाड़े में गये और कालदेव को देखा, तो आंखों में आंसू भर आये। जख्मी शेर जमीन पर पड़ा तड़प रहा था। उसके जीवन की तरह उसके तलवार के दो टुकड़े हो गए थे।

आज का दिन बीता, रात आयी पर बुंदेलों की आंखों में नींद कहा। लोगों ने करवटें बदलकर रात काटी जैसे दुःखित मनुष्य विकलता से सुबह की बाट जोहता है, उसी तक बुंदेले रह-रहकर आकाश की तरफ देखते और उसकी धीमी चाल पर झुंझलाते थे। उनके जातीय घमंड पर गहरा घाव लगा था। दूसरे दिन ज्यों ही सूर्य निकला, तीन लाख बुंदेलें तालाब के किनारे पहुंचे। जिस समय भालदेव शेर की तरह अखाड़े की तरफ चला, दिलों में दहशत-सी होने लगी। कल जब भालदेव अखाड़े में उतरा था, बुंदेले के हौसले बढ़े हुए थे, पर आज वह बात न थी। हृदय में आशा की जगह डर घुसा हुआ था। कादिरखां कोई चुटीला वार करता तो लोगों के दिल उछलकर होंठों तक आ जाते। सूर्य सिर पर चढ़ा जाता था और लोगों के दिल बैठे जाते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि भालदेव अपने भाई से फुर्तीला और तेज था। उसने कई कर नादिरखां को नीचा दिखलाया, पर दिल्ली का निपुण पहलवान हर बार संभल जाता था। पूरे तीन घंटे तक दोनों बहादुरों में तलवारें चलती रहीं। एकाएक खटाक की आवाज हुई और भालदेव की तलवार के दो टुकड़े हो गए। राजा हरदौल अखाड़े के सामने खड़े थे। उन्होंने भालदेव की तरफ तेजी से अपनी तलवार फेंकी। भालदेव तलवार लेने के लिए झुका ही था कि कादिरखां की तलवार उसकी गर्दन पर आ पड़ी। घाव गहरा न था, केवल एक चरका था, पर उसने लड़ाई का फैसला कर दिया।

हताश बुंदेले अपने-अपने घरों को लौटे। यद्यपि भालदेव अब भी लड़ने को तैयार था, पर हरदौल ने समझाकर कहा कि ‘भाइयों, हमारी हार उसी समय हो गयी जब हमारी तलवार ने जवाब दे दिया। यदि हम कादिरखां की जगह होते तो निहत्थे आदमी पर वार न करते और जब तक हमारे शत्रु के हाथ में तलवार न आ जाती, हम उस पर हाथ न उठाते, पर कादिरखां में यह उदारता कहां? बलवान शत्रु का सामना करने में उदारता को ताक पर रख देना पड़ता है। तो भी हमने दिखा दिया है कि तलवार की लड़ाई में हम उसके बराबर हैं और अब हमको यह दिखाना है कि हमारी तलवार में भी वैसा ही जौहर है।’ इसी तरह लोगों को तसल्ली देकर राजा हरदौल रनिवास को गये।

कुलीना ने पूछा – ‘लाला, आज दंगल का क्या रंग रहा?’

हरदौल ने सिर झुककर जवाब दिया – ‘आज भी वही कल-का-सा हाल रहा।’

कुलीना – ‘क्या भालदेव मारा गया?’

हरदौल – ‘नहीं, जान से तो नहीं पर हार हो गयी।’

कुलीना – ‘तो अब क्या करना होगा?’

हरदौल – ‘मैं स्वयं इसी सोच में हूं। आज तक ओरछे को कभी नीचा न देखना पड़ा था। हमारे पास धन न था, पर अपनी वीरता के सामने का राज और धन कोई चीज न समझते थे। अब हम किस मुंह से अपनी वीरता का घमंड करेंगे। ओरछे की और बुंदेलों की लाज अब जाती है।’

कुलीना – ‘क्या अब कोई आस नहीं है?’

हरदौल – ‘हमारे पहलवानों में वैसा कोई नहीं है जो उससे बाजी ले जाये। भालदेव की हार ने बुंदेलों की हिम्मत तोड़ दी है। आज सारे शहर में शोक छाया हुआ है। सैकड़ों घरों में आग नहीं जली। चिराग रोशन नहीं हुआ। हमारे देश और जाति की वह चीज जिससे हमारा मान था, अब अन्तिम सांस ले रही है। भालदेव हमारा उस्ताद था। उसके हार चुकने के बाद है मेरा मैदान में आना धृष्टता है पर बुंदेलों की साख जाती है, तो मेरा सिर भी उसके साथ जाएगा। कादिरखां बेशक अपने हुनर में एक ही है, पर हमारा भालदेव कभी उससे कम नहीं। उसकी तलवार यदि भालदेव के हाथ में होती तो मैदान जरूर उसके हाथ रहता। ओरछे में केवल एक तलवार है जो कादिरखां की तलवार का मुंह मोड़ सकती है। वह भैया की तलवार हैं। अगर तुम ओरछे की नाक रखना चाहती हो तो उसे मुझे दे दो। यह हमारी अन्तिम चेष्टा होगी। यदि इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जाएगा।

कुलीना सोचने लगी, तलवार इनको दूं या न दूं। राजा रोक गये हैं। उनकी आज्ञा थी कि किसी दूसरे की परछाई भी उस पर न पड़ने पाये। क्या ऐसी दशा में मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूं तो वे नाराज होंगे? कभी नहीं। जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी। बुंदेलों की आन किसको इतनी प्यारी नहीं है? उससे ज्यादा ओरछे की भलाई चाहने वाला कौन होगा? इस समय उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना ही आज्ञा का मानना है। यह सोचकर कुलीना ने तलवार हरदौल को दे दी।

सवेरा होते ही यह खबर फैल गयी कि राजा हरदौल कादिरखां से लड़ने के लिए जा रहे हैं। इतना सुनते ही लोगों में सनसनी-सी फैल गयी और चौंक उठे। पागलों की तक लोग अखाड़े की ओर दौड़े। हर एक आदमी कहता था कि जब तक हम जीते हैं, महाराज को लड़ने नहीं देंगे, पर जब लोग अखाड़े के पास पहुंचे तो देखा कि अखाड़े में बिजलियां-सी चमक रही हैं। बुंदेलों के दिलों पर उस समय जैसी बीत रही थी, उनका अनुमान करना कठिन है। उस समय उस लम्बे चौड़े मैदान में जहां तक निगाह जाती थी, आदमी-ही-आदमी नजर आते थे पर चारों तरफ सन्नाटा था। हर एक आंख अखाड़े की तरफ लगी हुई थी और हर एक का दिल हरदौल की मंगल-कामना के लिए ईश्वर का प्रार्थी था। कादिरखां का एक-एक वार हजारों दिलों के टुकड़े कर देता था और हरदौल की एक-एक काट से मनों में आनन्द की लहरें उठती थी। अखाड़ों में दो पहलवानों का सामना था और अखाड़े के बाहर आशा और निराशा का। आखिर घड़ियाल ने पहला पहर बजाया और हरदौल की तलवार बिजली बनकर कादिर के सिर पर गिरी। यह देखते ही बुंदेलें मारे आनन्द के उन्मत्त हो गए। किसी को, किसी की सुधि न रही। कोई किसी से गले मिलता, कोई उछलता और कोई छलांगें मारता था। हजारों आदमियों पर वीरता का नशा छा गया। तलवारें स्वयं म्यान से निकल पड़ी, भाले चमकने लगे। जीत की खुशी में सैकड़ों जानें भेंट हो गयी। पर जब हरदौल अखाड़े से बाहर आए और उन्होंने बुन्देलों की ओर तेज निगाहों से देखा तो आन की आन में लोग संभल गये। तलवारें म्यान में जा छिपी। ख्याल आ गया। यह खुशी क्यों, यह उमंग क्यों और यह पागलपन किस लिए? बुंदेलों के लिए यह कोई नयी बात नहीं हुई। इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया। हरदौल की इस वीरता ने उसे हर बुंदेले के दिल में मान-प्रतिष्ठा की ऊंची जगह पर बिठाया, जहां न्याय और उदारता भी उसे न पहुंचा सकती थी। वह पहले ही से सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुन्देला दिलवारी का सिरमौर बन गया।

राजा जुझार सिंह ने भी दक्षिण में अपनी योग्यता का परिचय दिया। वे केवल लड़ाई में ही वीर न ये, बल्कि राज्य शासन में भी अद्वितीय थे। उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांतों को बलवान राज्य बना दिया और वर्ष के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वह ओरछे की तरफ चले। ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही। आह ओरछा! वह दिन कब आयेगा कि फिर तेरे दर्शन होंगे। राजा मंजिलें मारते चले आते थे, न भूख थी, न प्यास। ओरछे वालों की मोहब्बत खींचे लिये आती थी। यहां तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुंचे, साथ के आदमी पीछे छूट गए। दोपहर का समय था। धूप तेज थी। वे घोड़े से उतरे और एक पेड़ की छांह में जा बैठे। भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे। सैकड़ों बुंदेला सरदार उनके साथ थे। सब अभिमान के नशे में चूर थे। उन्होंने जुझार सिंह के अकेले बैठे देखा पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास न आये। समझा, कोई यात्री होगा। हरदौल की आंखों ने भी धोखा खाया। वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझार सिंह के सामने आए और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आंख मिल गयी। पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े। राजा ने भी हरदौल को छाती से लगा लिया, पर उस छाती में अब भाई की मोहब्बत न थी। मोहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर उनकी तरफ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की। संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुंचे। राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंभी बजने लगी। हर जगह आनंदोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती में शहर जगमगा उठा।

आज रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया। नौ बजे होंगे। लौंडी ने आकर कहा – ‘महाराज, भोजन तैयार है।’ दोनों भाई भोजन करने गये। सोने के थाल में राजा के लिए भोजन परोसा गया और चांदी के थाल में हरदौल के लिए। कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लायी थी, पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा के सामने। हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया। वह वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था पर जुझार सिंह तिलमिला गये। जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गये और मुंह लाल हो गया। रानी की तरफ घूर कर देखा और भोजन करने लगे। पर ग्रास विष मालूम होता था। दो-बार ग्रास खाकर उठ आए। रानी उनके तेवर देखकर डर गयी। आज कैसे प्रेम से उसने भोजन बनाया था, कितनी प्रतीक्षा के बाद वह शुभ दिन आया था, उसके उल्लास का कोई पारावार न था, पर राजा के तेवर देखकर उसके प्राण सूख गये। जब राजा उठ गये और उसने थाल को देखा, तो कलेजा धक से हो गया और पैरों तले से मिट्टी निकल गयी। उसने सिर पीट लिया – ‘ईश्वर! आज रात कुशलपूर्वक कटे, मुझे शकुन अच्छे दिखाई नहीं देते।’

राजा जुझार सिंह शीश महल में लेटे। चतुर नाइन ने रानी का श्रृंगार किया और वह मुस्कराकर बोली – ‘कल महाराज से इसका इनाम लूंगी।’ यह कहकर वह चली गयी। लेकिन कुलीना वहां से न उठी। वह गहरे सोच में पड़ी हुई थी। उनके सामने कौन-सा मुंह लेकर जाऊं। नाइन ने नाहक मेरा श्रृंगार कर दिया, मेरा श्रृंगार देखकर वे खुश भी होंगे? मुझसे इस समय अपराध हुआ है, मैं अपराधिनी हूं। मेरा उनके पास इस समय बनाव श्रृंगार करके जाना उचित नहीं है। नहीं, आज मुझे उनके पास भिखारिन के वेष में जाना चाहिए। मैं उनसे क्षमा मांगूंगी। इस समय मेरे लिये यही उचित है। यह सोचकर रानी बड़े शीशे के सामने खड़ी हो गयी। वह अप्सरा-सी मालूम होती थी। सुंदरता की कितनी ही तस्वीरें उसने देखी थी, पर उसे इस समय शीशे की तस्वीर सबसे ज्यादा खूबसूरत मालूम होती थी।

सुन्दरता और आत्मरुचि का साथ है। हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती। थोड़ी देर के लिए कुलीना सुंदरता के मद से फूल उठी। वह तनकर खड़ी हो गयी। लोग कहते हैं कि सुन्दरता में जादू है, और वह जादू जिसका को उतार नहीं। धर्म और कर्म, तन और मन सब सुन्दरता पर न्यौछावर हैं। मैं सुन्दर न सही, ऐसी कुरूपा भी नहीं हूं। क्या मेरी सुन्दरता में इतनी भी शक्ति नहीं है कि महाराज मेरा अपराध क्षमा करा सके? ये बाहु-लताएं जिस समय उनके गले का हार होंगी, ये आंखें जिस समय प्रेम के मद से लाल लेकर देखेंगी, तब क्या मेरे सौन्दर्य की शीतलता उनकी क्रोधाग्नि को ठंडा न कर देगी? पर थोड़ी देर में रानी को ज्ञात हुआ। आह! यह मैं क्या स्वप्न देख रही हूं! मेरे मन में ऐसी बातें क्यों आती हैं। मैं अच्छी हूं या बुरी हूं उनकी चेरी हूं। मुझसे अपराध हुआ है, मुझे उनसे क्षमा मांगनी चाहिए। यह श्रृंगार और बनाव इस समय उपयुक्त नहीं है। यह सोचकर रानी ने सब गहने उतार दिये। इतर में बसी हुई रेशम की साड़ी अलग कर दी। मोतियों से भरी मांग खोल दी और वह खूब फूट फूट कर रोयी। हाय! यह मिलाप की रात वियोग की रात से भी विशेष दुःखदायी है। भिखारिन का भेष बजाकर रानी शीश महल की ओर चली। पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था। दरवाजे तक आयी, पर भीतर पैर न रख सकी। दिल धड़कने लगा। ऐसा जान पड़ा मानों उसके पैर थर्रा रहे हैं। राजा जुझार सिंह बोले, ‘कौन है? – कुलीना, भीतर क्यों नहीं आ जाती?’

कुलीना ने जी कड़ा करके कहा – ‘महाराज, कैसे आऊं मैं अपनी जगह क्रोध को बैठा पाती हूं।’

राजा – ‘यह क्यों नहीं कहती कि मन दोषी है, इसलिए आंखें नहीं मिलने देता।’

कुलीना – ‘निस्संदेह मुझसे अपराध हुआ है, पर एक अबला आपसे क्षमा का दान मांगती है।’

राजा – ‘इसका प्रायश्चित करना होगा।’

कुलीना – ‘क्यों कर?’

राजा – ‘हरदौल के खून से।’

कुलीना सिर से पैर तक कांप गयी। बोली – ‘क्या इसलिए कि आज मेरी भूल से ज्योनार के थालों में उलट-फेर हो गया?’