राजा – ‘नहीं, इसलिए कि तुम्हारे प्रेम में हरदौल ने उलट-फेर कर दिया।’
जैसे आग की आंच से लोहा लाल हो जाता है, वैसे ही रानी का मुंह लाल हो गया। क्रोध की अग्नि सद्भावों को भस्म कर देती है, प्रेम और प्रतिष्ठा, दया और न्याय सब जल के राख हो जाते हैं। एक मिनट तक रानी को ऐसा मालूम हुआ, मानो दिल और दिमाग, दोनों खौल रहे हैं, पर उसने आत्मदमन की अंतिम चेष्टा से अपने को संभला, केवल इतना बोली – ‘हरदौल को अपना लड़का और भाई समझती हूं।’
राजा उठ बैठे और नर्म स्वर से बोले – ‘नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूं जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया। कुलीना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मुझे तुम्हारे ऊपर घमंड था। मैं समझता था, चांद-सूर्य टल सकते हैं, पर तुम्हारा दिल नहीं टल सकता, पर आज मुझे मालूम हुआ कि वह मेरा लड़कपन था। बड़ों ने सच कहा है कि स्त्री का प्रेम पानी की धार है, जिस ओर ढाल पाता है, उधर ही बह जाता है। सोना ज्यादा गरम होकर पिघल जाता है।
कुलीना रोने लगी। क्रोध की आग पानी बनकर आंखों से निकल पड़ी। जब आवाज वश में हुई, तो बोली – ‘आपके इस सन्देह को कैसे दूर करूं?’
राजा – ‘हरदौल के खून से।’
रानी – ‘मेरे खून से दाग न मिटेगा?’
राजा – ‘तुम्हारे खून से और पक्का हो जायेगा।’
रानी – ‘और कोई उपाय नहीं है?’
राजा – ‘नहीं।’
रानी – ‘यह आपका अन्तिम विचार है?’
राजा – ‘हां, यह मेरा अन्तिम विचार है। देखो, इस पानदान में पान का बीड़ा रखा है। तुम्हारे सतीत्व की परीक्षा यही है कि तुम हरदौल को इसे अपने हाथों खिला दो। मेरे मन का भ्रम उसी समय निकलेगा जब इस घर से हरदौल की लाश निकलेगी।’
रानी ने घृणा की दृष्टि से पान के बीड़े की ओर देखा और वह उलटे पैर लौट आयी।
रानी सोचने लगी – क्या हरदौल के प्राण लूं? निर्दोष, सुचरित्र वीर हरदौल की जान से अपने सतीत्व की परीक्षा दूं? उस हरदौल के खून से अपना हाथ काला करूं जो मुझे बहन समझता है? यह पाप किसके सिर पड़ेगा? क्या एक निर्दोष का खून रंग न लायेगा? आह! अभागी कुलीना तुझे आज अपने सतीत्व की परीक्षा देने की आवश्यकता पड़ी है और वह ऐसी कठिन है? नहीं, यह पाप मुझसे न होगा। यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं, तो समझें, उन्हें मुझ पर संदेह है, तो हो। मुझसे यह पाप न होगा। राजा को ऐसा संदेह क्यों हुआ? क्या केवल थालों के बदल जाने से? नहीं, अवश्य कोई और बात है। आज हरदौल उन्हें जंगल में मिल गया। राजा ने उसकी कमर में तलवार देखी होगी। क्या आश्चर्य है, हरदौल से कोई अपमान भी हो गया हो। मेरा अपराध क्या है? मुझ पर इतना बड़ा दोष क्यों लगाया जाता है? केवल थालों के बदल जाने से? हे ईश्वर! मैं किससे अपना दुःख कहूं, तू ही मेरा साक्षी है। जो चाहे सो हो, पर मुझसे यह पाप न होगा।
रानी ने फिर सोचा – ‘राजा, क्या तुम्हारा हृदय ऐसा ओछा और नीच है? तुम मुझसे हरदौल की जान लेने को कहते हो? यदि तुमसे उसका अधिकार और मान नहीं देखा जाता, तो साफ-साफ ऐसा क्यों नहीं कहते? क्यों मर्दों की लड़ाई नहीं लड़ते? क्यों स्वयं अपने हाथों से उसका सिर नहीं काटते और मुझसे वह काम करने को कहते हो? तुम खूब जानते हो, मैं यह नहीं कर सकती। यदि मुझसे तुम्हारा जी उकता गया है, यदि मैं तुम्हारी जान की जंजाल हो गई हूं तो मुझे काशी या मथुरा भेज दो। मैं बेखटके चली जाऊंगी पर ईश्वर के लिए मेरे सिर पर इतना बड़ा कलंक न लगने दो, पर मैं जीवित ही क्यों रहूं। मेरे लिए अब जीवन में कोई सुख नहीं है। अब मेरा मरना ही अच्छा है। मैं स्वयं प्राण दे दूंगी, पर यह महापाप मुझसे न होमा। विचारों ने फिर पलट खाया। तुमको पाप करना ही होगा। इससे बड़ा पाप शायद आज तक संसार में न हुआ हो, पर यह पाप तुमको करना होगा। तुम्हारे पतिव्रत पर संदेह किया जा रहा है और तुम्हें इस संदेह को मिटाना होगा। यदि तुम्हारी जान जोखिम में होती, तो कुछ हर्ज न था। अपनी जान देकर हरदौल को बचा लेती, पर इस समय तुम्हारे पतिव्रत पर आंच आ रही है इसलिए तुम्हें यह पाप करना ही होगा, और पाप करने के बाद हंसना और प्रसन्न रहना होगा। यदि तुम्हारा चित्त तनिक भी विचलित हुआ, यदि तुम्हारा मुखड़ा जरा भी मद्धिम हुआ, तो इतना बड़ा पाप करने पर भी तुम संदेह मिटाने में सफल न होगी। तुम्हारे जी पर चाहे जो बीते, पर तुम्हें यह पाप करना ही पड़ेगा परन्तु कैसे होगा? क्या मैं हरदौल का सिर उतारूंगी, यह सोचकर रानी के शरीर में कंपकंपी आ गयी। नहीं, मेरा हाथ उस पर कभी नहीं उठ सकता। प्यारे हरदौल, मैं तुम्हें खिला सकती हूं। मैं जानती हूं तुम मेरे लिए आनंद से विष का बीड़ा खा लोगे। हां, मैं जानती हूं तुम ‘नहीं’ न करोगे, पर मुझसे यह महापाप नहीं हो सकता। एक बार नहीं, हजार बार नहीं हो सकता।
हरदौल को इन बातों की कुछ भी खबर न थी। आधी रात को एक दासी रोती हुई उसके पास गयी और उसने सब समाचार अक्षर-अक्षर कह सुनाया। वह दासी पान-दान लेकर रानी के पीछे-पीछे राजमहल के दरवाजे पर गयी थी, और सब बातें सुनकर आई थी। हरदौल राजा का ढंग देखकर पहले ही ताड़ गया था कि राजा के मन में कोई-न-कोई कांटा अवश्य खटक रहा है। दासी की बातों ने उसके संदेह को और भी पक्का कर दिया। उसने दासी से कड़ी मनाही कर दी कि सावधान! किसी दूसरे के कानों में इन बातों की भनक न पड़े और वह मरने को तैयार हो गया।
हरदौल बुंदेलों की वीरता का सूरज था। उसकी भौहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुंदेले मरने-मारने के लिए तैयार हो सकते थे, ओरछा उस पर न्यौछावर था। यदि जुझार सिंह खुले मैदान उसका सामना करते तो अवश्य मुंह की खाते, क्योंकि हरदौल भी बुंदेला था और बुंदेले अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुंह देखी नहीं करते, मारना-मरना उनके जीवन का एक अच्छा दिल-बहलाव है। उन्हें सदा इसकी लालसा रहती है कि कोई उन्हें चुनौती दे, कोई हमें छेड़े। उन्हें सदा खून की प्यास रहती है और यह प्यास कभी नहीं बुझती। पर उस समय एक स्त्री को उसके खून की जरूरत थी और उसका साहस उसके कानों में कहता या कि एक निर्दोष और सती अबला के लिए अपने शरीर का खून देने में मुंह न मोड़ो। यदि भैया को यह संदेह होता कि मैं उनके खून का प्यासा हूं और उन्हें मारकर राज-अधिकार करना चाहता हूं तो कुछ हर्ज न था। राज्य के लिए कत्ल और खून, दगा और फरेब सब उचित समझा गया है परन्तु उनके इस संदेह का निपटारा मेरे मरने के सिवा और किसी तरह नहीं हो सकता। इस समय मेरा धर्म है कि अपने प्राण देकर उनके इस सन्देह को दूर कर दूं। उनके मन में यह दुखाने वाला संदेह उत्पन्न करके भी यदि मैं जीता ही रहूं और अपने मन की पवित्रता जनाऊं, तो मेरी ठिठाई है। नहीं, इस भले काम में अधिक आगा-पीछा करना अच्छा नहीं। मैं खुशी से विष का बीड़ा खाऊंगा। इससे बढ़कर शूर-वीर की मृत्यु और क्या हो सकती है।
क्रोध में आकर मारू के भय बढ़ाने वाले शब्द सुनकर रणक्षेत्र में अपनी जान को तुच्छ समझना इतना कठिन नहीं है। आज सच्चा वीर हरदौल अपने हृदय के बड़प्पन पर अपनी सारी वीरता और प्राण न्यौछावर करने को उद्धत है।
दूसरे दिन हरदौल ने खूब तड़के स्नान किया। बदन पर अस्त्र-शस्त्र सजा मुस्कराता हुआ राजा के पास गया। राजा भी सोकर तुरन्त ही उठे थे, उनकी अलसाई हुई आंखें हरदौल की मूर्ति की ओर लगी हुई थी। सामने संगमरमर की चौकी पर विष मिला पान सोने की तश्तरी में रखा हुआ था। राजा कभी पान की ओर ताकते और कभी मूर्ति की ओर, शायद उनके विचार ने इस विष की गांठ और उस मूर्ति में एक संबंध पैदा कर दिया था। उस समय जो हरदौल एकाएक घर में पहुंचे तो राजा चौंक पड़े। उन्होंने संभल कर पूछा, ‘इस समय कहां चले?’
हरदौल का मुखड़ा प्रफुल्लित था। वह हंसकर बोला, ‘कल आप यहां पधारे हैं, इसी खुशी में मैं आज शिकार खेलने जाता हूं। आपको ईश्वर ने अजित बजाया है, मुझे अपने हाथ से विजय का बीड़ा दीजिए।’
यह कह हरदौल ने चौकी पर से पान-दान उठा लिया और उसे राजा के सामने रखकर बीड़ा लेने के लिए हाथ बढ़ाया। हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देखकर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी। दुष्ट, मेरे घाव पर नमक छिड़कने आया है। मेरे मान और विश्वास को मिट्टी में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा! मुझसे विजय का बीड़ा मांगता है। हां, यह विजय का बीड़ा है, पर तेरी विजय का नहीं, मेरी विजय का।
इतना मन में कहकर जुझार सिंह ने बीड़े को हाथ में उठाया। वे एक क्षण तक कुछ सोचते रहे, फिर मुस्कराकर हरदौल को बीड़ा दे दिया। हरदौल ने सिर डूबकर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया, एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बीड़े को मुंह में रख लिया। एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया। विष हलाहल था, कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुख के पर मुर्दनी छा गयी और आंखें बुझ गयी। उसने एक ठंडी सांस ली, दोनों हाथ जोड़कर जुझार सिंह को प्रणाम किया और जमीन पर बैठ गया। उसके ललाट पर पसीने की बूंदें – बूंदें दिखायी दे रही थी और सांस तेजी से चलने लगी थीं पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखायी देती थी।
जुझार सिंह अपनी जगह से जरा भी न हिले। उनके चेहरे पर ईर्ष्या से भरी हुई मुस्कराहट छायी हुई थी, पर आंखों में आंसू भर आये थे। उजाले और अंधेरे का मिलाप हो गया था।
