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काशी
5-2-26
बहन,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई उपन्यास पढ़कर उठी हूं। अगर तुम उपन्यास लिखो, तो विश्वास है, उसकी धूम मच जाए। तुम आप उसकी नायिका बन जाना। तुम ऐसी-ऐसी बातें कहां सीख आई, मुझे यही आश्चर्य है। उस बंगाली के साथ तुम अकेली कैसे बैठी बातें करती रहीं, मेरी तो समझ न नहीं आता। मैं तो कभी नहीं कर सकती? तुम विनोद को जलाना चाहती हो, उनके चित्त को अशांत करना चाहती हो! हाय! उस गरीब के साथ तुम कितना भयंकर अन्याय कर रही हो! तुम यह क्यों समझती हो कि विनोद तुम्हारी उपेक्षा कर रहे हैं, अपने विचारों में इतने मग्न हैं कि उन्हें तुम्हारी परवाह ही नहीं। यह क्यों नहीं समझती कि उन्हें कोई मानसिक चिंता सताया करती है, उन्हें कोई ऐसी फिक्र घेरे हुए है कि जीवन के साधारण व्यापारों में उनकी रुचि ही नहीं रही। संभव है, वह कोई दार्शनिक तत्त्व खोज रहे हों, कोई थीसिस लिख रहे हों, किसी पुस्तक की रचना कर रहे हों। कौन कह सकता है? तुम जैसी रूपवती स्त्री पाकर यदि कोई मनुष्य चिंतित रहे, तो समझ लो कि उसके दिल पर कोई बड़ा बोझ है। उनको तुम्हारी सहानुभूति की जरूरत है, उनका बोझ हलका कर सकती हो। लेकिन तुम उलटे उन्हीं को दोष देती हो। मेरी समझ में यही आता है कि तुम एक दिन क्यों विनोद से दिल खोलकर बातें नहीं कर लेती? संदेह को जितनी जल्द हो सके, निकाल डालना चाहिए। सन्देह वह चोट है, जिसका उपचार जल्द न हो, तो नासूर बन जाता है, और फिर अच्छा नहीं होता। क्यों दो-चार दिनों के लिए यहाँ नहीं चली आतीं! लेकिन मैं स्वतंत्र नहीं हूँ बिना सास-ससुर के कोई काम नहीं कर सकती। तुम्हें तो कोई बंधन नहीं है।
बहन, आजकल मेरा जीवन हर्ष और शोक का विचित्र मिश्रण हो रहा है। अकेली होती हूँ तो रोती हूं, आनन्द आ जाते हैं, तो हँसती हूँ। जी चाहता है, यह हरदम मेरे सामने बैठे रहते। लेकिन रात बारह बजे के पहले उनके दर्शन नहीं होते। एक दिन दोपहर को आ गए, तो सास जी ने ऐसा डाँटा कि कोई बच्चे को क्या डांटे।मुझे ऐसा भय हो रहा है कि सास जी को मुझसे चिढ़ है। बहन, मैं उन्हें भरसक प्रसन्न रखने की चेष्टा करती हूँ। जो काम कभी न किए थे, वह उनके लिए करती हूँ, उनके स्नान के लिए पानी गर्म करती हूं। उनकी पूजा के लिए चौकी बिछाती हूँ। वह स्नान कर लेती हैं तो उनकी धोती छाँटती हूँ, वह लेटतीं हैं, तो उनके पैर दबाती हूँ, जब वह सो जाती हैं तो उन्हें पंखा झलती हूँ। वह मेरी माता हैं। उन्हीं के गर्भ से यह रत्न उत्पन्न हुआ है, जो मेरा प्राणाधार है। मैं उनकी सेवा कर सकूं, इससे बढ़कर मेरे लिए सौभाग्य की और क्या बात होगी? मैं केवल इतना ही चाहती हूँ कि मुझसे हँसकर बोलें, मगर न जाने क्यों वह बात-बात पर मुझे कोसा करती हैं। मैं जानती हूं कि दोष मेरा ही है। हां, मुझे मालूम वहीं, वह क्या है! मगर मेरा यही अपराध है कि मैं अपनी दोनों ननदों से रूपवती क्यों हूं, पढ़ी-लिखी क्यों हूँ, आनन्द क्यों मुझे इतना चाहते हैं, तो बहन, यह मेरे बस की बात नहीं। मेरे प्रति सास जी का यह व्यवहार देखकर ही कदाचित आनन्द माताजी से खिंचे रहते हैं। सास जी को भ्रम होता होगा कि मैं ही आनन्द को भरमा रही हूँ। शायद वह पछताती हैं कि क्यों मुझे बहू बनाया! उन्हें भय होता है कि कहीं मैं उनके बेटे को उनसे छीन न लूँ। दो-एक बार मुझे जादूगरनी कह चुकी हैं। दोनों बहने अकारण ही मुझसे जलती रहती हैं। बड़ी ननद जी तो विधवा हो गई हैं, उनका जलना समझ में आता है। लेकिन छोटी ननद जी तो अभी कलोर हैं, उनका जलना मेरी समझ में नहीं आता। मैं उनकी जगह होती, तो अपनी भावज से कुछ सीखने की, कुछ पढ़ने की कोशिश करती, उनके चरण धो- धोकर पीती। पर इस छोकरी को मेरा अपमान करने ही में आनंद आता है। मैं जानती हूँ थोड़े दिनों में दोनों ननदें लज्जित होंगी ही अभी ये मुझसे हिचकती हैं। मैं अपनी तरफ से तो उन्हें अप्रसन्न होने का अवसर नहीं देती।
मगर रूप को क्या करूँ! क्या जानती थी कि एक दिन इस रूप के कारण मैं अपराधिनी करायी जाऊंगी। मैं सच कहती हूँ बहन, यहाँ मैंने सिंगार करना एक तरह से छोड़ ही दिया है। मैली-कुचैली बनी बैठी रहती हूं। इस भय से कि कोई मेरे पढ़ने-लिखने पर नाक न सिकोड़े, पुस्तकों को हाथ नहीं लगाती। घर से पुस्तकों का एक गट्ठर बाँध लायी थी। उसमें कई पुस्तकें बड़ी सुन्दर हैं। उन्हें पढ़ने के लिए बार-बार जी चाहता है, मगर डरती हूँ कि कोई ताना न दे बैठे। दोनों ननदें मुझे देखती रहती हैं कि मैं क्या करती हूँ, कैसे बैठती हूँ, कैसे बोलती हूँ मानो दो-दो जासूस मेरे पीछे लगा दिए गए हों? इन दोनों महिलाओं को मेरी बंदगोई में क्यों इतना मजा आता है, नहीं कह सकती। शायद आजकल इसके सिवा दूसरा काम ही नहीं। गुस्सा तो ऐसा आता है कि एक बार झिड़क दूँ लेकिन मन को समझाकर रोक लेती हूँ। यह दशा बहुत दिनों नहीं रहेगी! एक नए आदमी से कुछ हिचक होना स्वाभाविक ही है, विशेषकर जब वह नया आदमी शिक्षा और विचार-व्यवहार में हमसे अलग हो। मुझी को अगर किसी फ्रेंच लेडी के साथ रहना पड़े, तो शायद मैं भी उसकी हर एक बात को आलोचना और कुतूहल की दृष्टि देखने लगूं। यह काशी-वासी लोग पूजा-पाठ बहुत करते है। सासजी तो गंगास्नान करने जाती है। बड़ी ननदजी भी उनके साथ जाती है। मैंने कभी पूजा नहीं की। याद है, हम और तुम पूजा करने वालों को कितना बनाया करती थी। अगर मैं पूजा करने वालों का चरित्र कुछ उन्नत पाती, तो शायद अब तक मैं भी पूजा करती होती। लेकिन मुझे तो कभी ऐसा अनुभव प्राप्त नहीं हुआ। पूजा करने वालियाँ भी उसी तरह दूसरों की निंदा करती हैं, उसी तरह आपस में झगड़ती हैं, जैसे वे कभी पूजा नहीं करतीं। खैर, अब मुझे धीरे-धीरे पूजा से श्रद्धा होती जा रही है। मेरे ददिया ससुर जी ने एक छोटा-सा ठाकुर-द्वारा बनवा दिया था। वह मेरे घर के सामने ही है। मैं अकसर सास जी के साथ वहाँ जाती हूं और अब यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उन विशाल मूर्तियों के दर्शन से अपने अंतस्तल में एक ज्योति का अनुभव होता है। जितनी श्रद्धा से में राम कृष्णा के जीवन- की आलोचना किया करती थी, वह कुछ मिट चुकी है। लेकिन रूपवती होने का दंड यहीं तक बस नहीं है। ननदें अगर मेरे रूप को देखकर जलती हैं, तो वह स्वाभाविक है। लेकिन दुख इस बात का है कि यह दंड मुझे उस तरफ से भी मिल रहा है, जिधर से इसकी कोई सम्भावना न होनी चाहिए, मेरे आनन्द बाबू भी इसका दंड दे रहे हैं। हां, उनकी दंड-नीति एक निराले ही ढंग की है। वह मेरे पास नित्य ही कोई-न-कोई सौगात लाते रहते हैं। वह जितनी देर मेरे पास रहते हैं, उनके मन में वह संदेह होता रहता है कि मुझे उनका रहना अच्छा नहीं लगता! वह समझते हैं कि मैं उनसे जो प्रेम करती हूं, वह केवल दिखावा है, कौशल है। वह मेरे सामने कुछ ऐसे दबे-दबाए, सिमटे-सिमटाए रहते हैं कि मैं मारे लज्जा के मरी जाती हूँ। उन्हें मुझसे कुछ कहते हुए ऐसा संकोच होता है, मानो वह कोई अनाधिकार चेष्टा कर रहे हों। जैसे मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए कोई आदमी उज्ज्वल वस्त्र पहनने वालों से दूर ही रहना चाहता है, यही दशा इनकी है। वह शायद समझते हैं कि किसी रूपवती स्त्री को रूपहीन पुरूष से प्रेम हो ही नहीं सकता। शायद वह दिल में पछताते हैं कि क्यों इससे विवाह किया। शायद उन्हें अपने ऊपर ग्लानि होती है। वह मुझे कभी रोते देख लेते हैं, तो समझते हैं, मैं अपने भाग्य को रो रही हूं। कोई पत्र लिखते देखते हैं, तो समझते हैं, मैं इनकी रूप-हीनता ही का रोना रो रही हूं। क्या कहूँ बहन, यह सौंदर्य मेरी जान का गाहक हो गया। आनन्द के मन से इस शंका को निकालने और उन्हें अपनी ओर से आश्वासन देने के लिए मुझे ऐसी-ऐसी बातें करनी पड़ती हैं, ऐसे-ऐसे आचरण करने पड़ते हैं, जिन पर मुझे घृणा होती है। अगर पहले से यह दशा जानती, तो ब्रह्मा से कहती कि मुझे कुरूप ही बनाना। बड़े असमंजस में पड़ी हूँ। अगर सास जी की सेवा नहीं करती, बड़ी ननद जी का ध्यान नहीं रखती, तो उनकी आँखों से गिरती हूँ। अगर आनन्द बाबू को निराश करती हूँ तो- कदाचित् मुझसे विरक्त ही हो जाएँ। मैं तुमसे अपने मन की बात कहती हूँ। बहन, तुमसे क्या पर्दा रखना है। मुझे आनन्द बाबू से उतना ही प्रेम है, जितना किसी स्त्री को पुरुष से हो सकता है। उनकी जगह अब अगर इंद्र भी सामने आ जाएं, तो मैं उनकी ओर आँख उठाकर न देखूँ। मगर उन्हें कैसे विश्वास दिलाऊँ? मैं देखती हूँ वह किसी-न-किसी बहाने से बार-बार घर में आते हैं और दबी हुई, ललचायी हुई नजरों से मेरे कमरे के द्वार की ओर देखते हैं, तो जी चाहता है, जाकर उनका हाथ पकड़ लूँ और अपने कमरे में खींच ले आऊँ। मगर एक तो डर होता है किसी की नजर पड़ गई, तो छाती पीटने लगेगी, और इससे भी बड़ा डर यह कि कहीं आनन्द इसे भी कौशल ही न समझ बैठें। अभी उनकी आमदनी बहुत कम है, लेकिन दो-चार रुपये सौगातों में रोज उड़ाते हैं। अगर प्रेमी उपहार स्वरूप वह धेले की कोई चीज दें, तो मैं उसे आँखों से लगाऊँ, लेकिन वह कर स्वरूप देते हैं, मानो उन्हें ईश्वर ने यह दंड दिया है। क्या करूँ, अब मुझे भी प्रेम का स्वांग करना पड़ेगा। प्रेम-प्रदर्शन से मुझे चिढ़ है। तुम्हें याद होगा, मैंने एक बार कहा था कि प्रेम या तो भीतर ही रहेगा या बाहर ही रहेगा। समान रूप से वह भीतर और बाहर दोनों जगह नहीं रह सकता। स्वाँग वेश्याओं के लिए हैं, कुलवती तो प्रेम को हृदय ही में संचित रखती है। बहन, पत्र बहुत लंबा हो गया, तुम पढ़ते-पढ़ते ऊब गई होगी। मैं भी लिखते- लिखते थक गई। अब शेष बातें कल लिखूंगी। परसों यह पत्र तुम्हारे पास पहुँचेगा।
बहन, क्षमा करना, कल पत्र लिखने का अवसर नहीं मिला। रात एक ऐसी बात हो गई, जिससे चित्त अशांत हो उठा। बड़ी मुश्किलों से यह थोड़ा-सा समय निकाल सकी हूँ। मैंने अभी तक आनन्द से घर के किसी प्राणी की शिकायत नहीं की थी। अगर सास जी ने कोई बात कह दी या ननद जी ने कोई ताना दे दिया, तो इसे उनके कानों तक क्यों पहुंचाऊं। इसके सिवा कि गृह-कलह उत्पन्न हो, इससे और क्या हाथ आएगा। इन्हीं जरा-जरा-सी बातों को पेट में न डालने से घर बिगड़ते हैं। आपस में वैमनस्य बढ़ता है। मगर-संयोग की बात, कल अनायास ही मेरे मुँह से एक बात निकल गयी, जिसके लिए मैं अब भी अपने को कोस रही हूँ और ईश्वर से मनाती हूँ कि यह आगे न बढ़े। बात यह हुई कि आनन्द बाबू बहुत देर करके मेरे पास आये। मैं इनके इंतजार में बैठी एक पुस्तक पढ़ रही थी। सहसा सास जी ने आकर पूछा- क्या अभी तक बिजली जल रही है? क्या वह रात भर न आएँ तो रात भर बिजली जलाती रहोगी?
मैंने उसी वक्त बत्ती बंद कर दी। आनन्द बाबू थोड़ी देर में आये, तो कमरा अँधेरा पड़ा था, न जाने उस वक्त मेरी मति कितनी मंद हो गयी थी। अगर मैंने उनकी आहट पाते ही बत्ती जला दी होती, तो कुछ न होता। मगर मैं अंधेरे में पड़ी रही। उन्होंने आकर पूछा- क्यों, सो गयी, यह अंधेरा क्यों पड़ा हुआ है?
हाय! इस वक्त भी यदि मैंने कह दिया होता कि मैंने अभी बत्ती गुल कर दी है, तो बात बन जाती। मगर मेरे मुँह से निकला-सास जी का हुक्म हुआ कि बत्ती गुल कर दो, गुल कर दी। तुम रात भर न आओ तो क्या रात भर बत्ती जलती रहे?
तो अब जला दो। मैं रोशनी के सामने से आ रहा हूँ मुझे तो कुछ सूझता ही नहीं।
मैंने अब बटन को हाथ से छूने की कसम खा ली। जब जरूरत पड़ेगी, तो मोम की- बत्ती जला लिया करूंगी। कौन मुफ्त में घुड़कियां सहे।
आनन्द ने बिजली का बटन दबाते हुए कहा- और मैंने कसम खा ली कि रात भर बत्ती जलेगी, चाहे किसी को बुरा लगे या भला। सब कुछ देखता हूँ अंधा नहीं हूँ। दूसरी बहू आकर इतनी सेवा करेगी तो देखूँगा। तुम हो नसीब की खोटी कि ऐसे प्राणियों के पाले पड़ीं। किसी दूसरी सास की तुम इतनी खिदमत करतीं, तो यह तुम्हें पान की तरह फेरती, तुम्हें हाथों पर लिये रहती, मगर यहाँ चाहे कोई प्राण ही दे दे, किसी के मुँह से सीधी बात न निकलेगी।
मुझे अपनी भूल साफ मालूम हो गई। उनका क्रोध शांत करने के इरादे से बोली- गलती तो मेरी ही थी कि व्यर्थ आधी रात तक बत्ती जलाए बैठी रही। अम्माजी ने गुल करने को कहा, तो क्या बुरा कहा। मुझे समझाना, अच्छी सीख देना उनका धर्म है! मेरा भी धर्म यही है कि यथाशक्ति उनकी सेवा करूँ और उनकी शिक्षा को गिरह बाँधूं।
आनन्द एक क्षण द्वार की ओर ताकते रहे। फिर बोले-मुझे मालूम हो रहा है कि इस घर में मेरा अब गुजर न होगा! तुम नहीं कहतीं, मगर मैं। सब कुछ सुनता रहा हूँ। सब समझता हूँ। तुम्हें मेरे पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ रहा है। मैं खुद अम्माजी से साफ-साफ कह दूंगा-अगर आपका यही व्यवहार है तो आप अपना घर लीजिए, मैं अपने लिए कोई दूसरी राह निकाल लूँगा।
मैंने हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हुए कहा- नहीं, नहीं। कहीं? ऐसा गजब भी न करना। मेरे मुँह में आग लगे, कहाँ से बत्ती का जिक्र कर बैठी। मैं तुम्हारे दोनों चरण छूकर कहती हूँ मुझे न सास जी से कोई शिकायत है न ननद जी से। दोनों मुझसे बड़ी हैं, मेरी माता के तुल्य हैं। अगर एक बात कड़ी भी कह दें, तो मुझे सब्र करना चाहिए। तुम उनसे कुछ न कहना, नहीं तो मुझे बड़ा दुःख होगा।
आनन्द ने रुंधे कंठ से कहा- तुम्हारी जैसी बहू पाकर भी अम्माजी का कलेजा नहीं पसीजता, अब क्या कोई-स्वर्ग की देवी घर में आती? तुम डरो मत, मैं खामख्वाह लडूंगा नहीं। मगर हां, इतना अवश्य कह दूंगा कि जरा अपने मिजाज़ को काबू में रखें। आज अगर मैं दो-चार सौ रुपये घर में लाता होता, तो कोई चूं न करता। कुछ कुछ कमाकर नहीं लाता, यही उसका दंड है। सच पूछों तो मुझे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं था। मुझ-जैसे मंदबुद्धि को जो कमा नहीं सकता, अपने साथ किसी महिला को डुबाने क्या हक था? बहनजी को न जाने क्या सूझी है कि तुम्हारे पीछे पड़ी रहती हैं; ससुराल का सफाया कर दिया, अब यहाँ भी आग लगाने पर तुली हुयी हैं। बस, पिताजी का लिहाज करता हूँ, नहीं तो इन्हें तो एक दिन में ठीक कर देता।
बहन, उस वक्त तो मैंने किसी तरह उन्हें शांत किया, पर नहीं कह सकती कि कब वह उबल पड़े। मेरे लिए वह सारी दुनिया से लड़ाई मोल ले लेंगे। मैं जिन परिस्थतियों मैं हूं,उनका तुम अनुमान कर सकती हो। मुझ पर कितनी ही मार पड़े, मुझे रोना न चाहिए, जबान तक न हिलाना चाहिए। मैं रोयी और घर तबाह। आनन्द फिर कुछ न सुनेंगे, कुछ न देखेंगे। कदाचित् इस उपाय से यह वह अपने विचार में मेरे हृदय में अपने प्रेम का अंकुर जमाना चाहते हों। आज मुझे मालूम हुआ कि वह कितने क्रोधी हैं। अगर मैंने जरा-सा पुचारा दे दिया होता, तो रात को यह सास जी की खोपड़ी पर जा पहुँचते। कितनी ही युवतियाँ इसी अधिकार गर्व में अपने को भूल जाती हैं। मैं तो बहन, ईश्वर ने चाहा तो कभी न भूलूंगी। मुझे इस बात का डर नहीं है कि आनन्द अलग घर बना लेंगे, तो गुजर कैसे होगी। मैं उनके साथ सब कुछ झेल सकती हूँ। लेकिन घर तो तबाह हो जाएगा।
बस, प्यारी पद्मा, आज इतना ही। पत्र का जवाब जल्द देना।
तुम्हारी,
चंदा
