baal shikshak
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

रविवार की छुट्टी का दिन। नाश्ता आदि करके अखबार की सुर्खियों को देख ही रहा था कि तभी मेरे पोते रेआंस ने चुपके-चुपके पीछे से आकर मेरी आँखों को अपने नन्हें-नन्हें कोमल हाथों से ढक लिया।

“दादू बताओ कौन?”

मैंने जान-बूझकर छोटे पोते का नाम बोल दिया, निकू…. निकू….”

वह खिलखिलाकर हँसता हुआ ताली बजाने लगा। “निकू नहीं, मैं हूँ…. रेआंस! दादू आप हार गए…. मैं जीत गया!” जानबूझकर हारने का अभिनय करते हुए मैं भी हँसने लगा और अखबार को समेटकर मैंने एक ओर रख दिया।

चलो दादू टीचर-टीचर खेलते हैं, बहुत मजा आएगा। बहुत विनम्रता से उसने प्रस्ताव रखा।

“क्या तुम्हारा होमवर्क पूरा हो गया?”

“अभी-अभी तो किया है। कहो तो निकाल कर दिखा दूँ?”

उसके आत्मविश्वास को देखकर मुझे यकीन हो गया। मेरी चुप्पी को स्वीकृति मानकर वह खेलने की तैयारी करने लगा।

“दादू आज मैं टीचर बनूँगा…. आप स्टूडेंट बनो।” कहकर वह स्वयं ही सोफे पर जा बैठा।

“नहीं-नहीं, तुम हर बार टीचर ही बनते हो। आज मैं टीचर बनूँगा क्योंकि बड़े टीचर बनते हैं और छोटे स्टूडेंट…. और मैं पहले भी टीचर ही रहा हूँ।” मैंने उसकी बात का प्रतिरोध किया।

“अरे दादू, ये तो झूठ-मूठ का खेल है। इसमें तो बच्चे ही टीचर बनते हैं, तभी मजा आता है…. लो आज तो मैं टीचर बन गया।” उसने अपने बैग से लकड़ी का रूल निकालकर हाथ में ले लिया और चार पुस्तकें निकालकर मेरे साथ-साथ रखकर स्टूडेंट्स की संख्या बढ़ा दी। “देखो…. ये अरुण, वरुण, नमिता और कन्नू हैं…. आप इनके साथ झगड़ा नहीं करना। ये बहुत अच्छे बच्चे हैं….”

“ठीक है सर!” मैंने छात्र बनना स्वीकार कर लिया।

“ठीक है, अब आप खड़े हो जाओ। सबसे पहले मॉर्निंग असेंबली होगी….” वह तनिक कड़क आवाज में बोला- “जल्दी से खड़े हो जाओ, बूढ़े हो गए हो क्या….आईज (आँखें) नहीं खोलना, दोनों हाथ जोड़कर प्रार्थना करना…. समझे….”

उसकी बालसुलभ मनमोहक क्रियाओं को देखकर मेरी हँसी छूट गई।

“अनूप तुमको हँसी आ रही है…. बहुत शरारती हो गए हो। प्रिंसिपल मैडम से तुम्हारी शिकायत करनी पड़ेगी…. वो तुम्हें डण्डे से मारेगी तो नानी याद आ जाएगी।”

उसका क्रोधित चेहरा देखकर मेरी हँसी अधिक तेज हो गई। बल्कि ये समझो कि हँसी रोकना मेरे लिए कठिन हो गया।

“ठीक है बेटे, प्रेयर के बाद तुम्हें शर्मा मैम के पास ले जाना पड़ेगा। तब तुम्हारी अकल ठिकाने आएगी। चलो जल्दी से प्रार्थना करो….!”

“सर प्रार्थना तो हमको याद नहीं है।”

“कोई बात नहीं! जैसा मैं बोलता हूँ, मेरे पीछे बोलते रहो….”

“ओम भूर भव: स्व: तत् सवितर वरेणियम”

“भरगो देवस्य धी मही”

“धियो यो न प्रचोदयात…. बोलो….”

“सर इतना बड़ा मंत्र मैं नहीं बोल सकता।”

“ठीक है, छोटा-छोटा बोलो- ओम भूर भव: स्व:।”

“ओम भूर भव: स्व:” – मैं पीछे-पीछे बोलने लगा।

“तत् सवितर वरेणियम”

“तत् सवितर वरेणियम”

“भरगो देवस्य धी मही”

“भरगो देवस्य धी मही”

“धियो यो न प्रचोदयात”

“धियो यो न प्रचोदयात”

“ओम शान्ति….”

“ओम शान्ति….”

मैं भी तुतलाती आवाज में उसके पीछे-पीछे उसी स्वर में अनुसरण करता रहा। हाथ जोड़े, आँखें बंद किए मैं एक आज्ञाकारी बालक की भाँति उसका कहना मान रहा था।

“आँखें खोल लो…. और हाँ! कल घर से प्रार्थना याद करके आना। चलो अब आपकी ड्रेस, नेल्स (नाखून) और दाँत चैक किए जाएँगे… मुँह खोलो और अपने दाँत दिखाओ…. दिखाओ….!”

मैंने अपना मुँह खोल दिया। “कितने गंदे दाँत हैं। शर्म नहीं आती आपको…. डेली ब्रश नहीं करते…. तुम्हारी कॉपी पर नोट चढ़ाना पड़ेगा…. अपनी मम्मी से कहना कि हर रोज टूथ-ब्रश कराके स्कूल भेजें। अरे-अरे तुम्हारा तो एक दाँत भी गायब है। चुहिया ले गई क्या? अपने पापा से कहना कि चुहिया के बिल से दाँत निकालकर तुम्हारे मुँह में गम के साथ चिपका दे… समझे…!”

“जी सर!”

“गुड बॉय! चलो सब बच्चे बैठ जाओ और अपनी इंग्लिश नोटबुक निकालो।”

मैं आज्ञाकारी बालक की भाँति बैठ गया। आठ वर्ष के रेआंस में इतनी भावभंगिमाएँ देखकर मैं आश्चर्यचकित और अभिभूत हुआ जाता हूँ। यह सब देखकर मेरे अंदर से हँसी फूट गई।

“कल वाला लैसन जो लर्न करने को दिया था…. उसे सुनाओ।” रेआंस ने आदेश दिया।

“यस सर!” उसकी आज्ञा का पालन करते हुए मैं उसकी नोटबुक खोल लेता हूँ। मेरी यह भी धारणा है कि इस प्रकार की क्रियाओं से बच्चों में आत्मविश्वास और हौंसला बढ़ता है। मैं इस कार्य में उसका पूरा-पूरा सहयोग देता हूँ।

“सर, आज मैं लैसन याद करके नहीं लाया।

“लैसन याद करके नहीं लाया…” वह मेरी नकल उतारता है और क्रोध से मुझे डाँटता है- “सारे दिन कक्षा में हँसते रहते, खेलते रहते हो। पाठ याद करने में तुम्हारी जान निकलती है… आज ही तुम्हारी शिकायत प्रिंसिपल मैम से करता हूँ। वो तुम्हारी मम्मी को स्कूल में बुलवाएगीं।”

“सर, मेरी मम्मी नहीं आ सकती।”

“क्यों नहीं आ सकती, आना पड़ेगा….।”

“प्लीज सर, सॉरी सर….कल मैं अवश्य लैसन याद करके सुना दूँगा।”

“नहीं!” रेआंस अधिक क्रोध से चिल्लाता है, “तुम्हारी मम्मी को तो बुलवाना ही पड़ेगा।” उसने मेरी कमजोर नस को समझ लिया।

“सर वो तो स्वर्ग में चली गई है।”

“तो स्वर्ग से बुलवाना पड़ेगा।”

“सर मेरा मतलब है वो मर गई है।”

“तो आपके पापा को बुलवाना पड़ेगा”

“सर वो भी मर चुके हैं।”

“तुम झूठ बोलते हो, चलो आज का लैसन नंबर फाइव निकालो।”

“सर मुझे भूख लगी है।” मैंने निवेदन किया।

“अभी नहीं, पहले पाठ पढ़ लो।”

“तो फिर मुझे आपके साथ यह खेल खेलना ही नहीं। आप तो मुझे मेरी पसंद का कुछ भी नहीं करने देते हो।” मैंने उसकी कॉपी बंद करके विरोध प्रकट किया।

“नहीं बेटे अनूप, आप तो अच्छे बच्चे हो।” उसका व्यवहार एकदम बदल गया। “बेटा पहले काम करते हैं, फिर मजे से खाना खाते हैं। आज मैं तुम्हें फाइव स्टार दूँगा।” वह पुनः अपनी नोटबुक उठाकर मेरे हाथ में थमा देता है।

वह नहीं चाहता था कि मैं उसके चुंगल से निकल जाऊँ। टीचर बनना बच्चों को बहुत अच्छा लगता है क्योंकि वे कक्षा में हुए कुण्ठित मन को कहीं न कहीं हल्का करना चाहते हैं। जिस प्रकार यह नन्हा बालक अपने अध्यापक की पूरी नकल कर रहा था, हमने तो कभी इस प्रकार किसी बच्चे को डाँटा नहीं।

“लो अब इस कॉपी में अच्छा-सा काम कर लो। गुड बॉय…. मैं डिक्टेशन बोलता हूँ।”

“यस सर!” कहते हुए मैंने जैसे ही कॉपी खोली तो मैंने देखा कि रेआंस ने ‘आशीर्वाद’ शब्द गलत लिखा था, जिसे उसकी मैडम ने काटकर ठीक किया हुआ था। परन्तु मैडम ने भी आशीर्वाद शब्द गलत लिखा था। मैंने उसे टोक दिया, “सर आपकी नोटबुक में ‘आशीर्वाद’ शब्द गलत लिखा हुआ है।”

“तो क्या हुआ, मैडम ने काटकर ठीक तो कर दिया है।”

“परन्तु सर, आपकी मैडम ने भी गलत लिखा है।”

“ज्यादा मत बोलो”, उसका क्रोध सातवें आसमान पर चढ़ गया, “अपने टीचर की गलतियाँ निकालते हो, शर्म नहीं आती। जानते हो, मेरी मैडम कभी गलत नहीं लिखती। आपको तो कुछ लिखना-विखना आता नहीं। चलो सीधे बैठकर डिक्टेशन लिखो।”

जीवन भर मैं स्कूल में हिन्दी पढ़ाते रहा, हिन्दी आन्दोलन चलाता रहा, मुख्याध्यापक पद से सेवानिवृत्त हुआ और यह मेरा पोता रेआंस आज मुझे गलत और अपनी मैडम को सही मानता है। दूसरी ओर मुझे यह सब अच्छा भी लगा।

यही है एक अध्यापक की गरिमा…. इसीलिए वह राष्ट्र निर्माता है। छात्र अपने शिक्षक की गलती को कभी नहीं स्वीकारता। मैंने भी उसकी श्रद्धा और निष्ठा पर आघात करना ठीक नहीं समझा। पेन्सिल से एक छोटा-सा गोला ‘आशीर्वाद’ शब्द पर लगाकर नोटबुक बंद कर दिया।

तभी किचन से उसकी मम्मी की आवाज सुनाई दी- “रेआंस, चलो पहले खाना खा लो। दादू के साथ बाद में खेलना।”

“जी आया मम्मी!” कहकर वह मुझे बताने लगा, “ठीक है, अब आपका भी लंच हो गया। जाओ अच्छे से वाश-बेसिन में हाथ साफ करके लंच करना और कल अपना लैसन ठीक से याद कर के लाना।”

मुझे आदेश देता हुआ मेरा बाल-शिक्षक किचन की ओर चला गया।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’