dadi maa ka chashma Motivational story
dadi maa ka chashma Motivational story

कुप्पू की दादी भी बड़े कमाल की हैं। वैसे तो उन्हें दुनिया भर की चीजें याद रहती हैं। और कहानी – किस्से तो बेशुमार। सुनाने पर आएँ तो समय का कुछ पता ही नहीं चलता। पर दादी को याद नहीं रहता तो बस अपना चश्मा। अकसर वे अपना चश्मा कहीं रखकर भूल जाती हैं। फिर कुप्पू को आवाज लगाकर कहती हैं, “बेटा कुप्पू, जरा मेरा चश्मा तो ढूँढ़ना। पता नहीं कहाँ रख दिया मैंने? मिल ही नहीं रहा।” सुनकर कुप्पू के होंठों पर बड़ी चौड़ी मुसकान आ जाती है। हँसकर कहता है, “चिंता न करो दादी। बस, अभी ढूँढ़कर लाया।” कहते हुए कुप्पू को अच्छी तरह पता होता है कि कहाँ मिलेगा दादी का चश्मा। या तो फ्रिज के ऊपर, जहाँ से दादी कभी दूध, दही या कोई फल लेने के लिए जाती हैं।

या फिर बालकनी के कोने में, जहाँ वे अपनी आरामकुर्सी पर बैठ अखबार पढ़ने के बाद धूप खाते हुए थोड़ा सुस्ताती हैं। या फिर मंदिर में, जहाँ से रोज रामचरित मानस निकालकर वे गुन-गुन करके कोई घंटे भर तक चौपाइयाँ पढ़ती हैं और रामकथा की सजीव झाँकी पेश कर देती हैं। या फिर कभी-कभी साथ वाले कमरे में टी.वी. के पास भी उनका चश्मा विराजमान होता है, जहाँ समाचार सुनने या फिर अपना पसंदीदा सीरियल देखने के लिए दादी को चश्मे की जरूरत पड़ती है। फिर वे वहाँ से उठती हैं तो चश्मा वहीं कहीं रखकर भूल जाती हैं। जब भी दादी की आवाज आती है, कुप्पू इधर देखता है, उधर देखता है और फिर झटपट फ्रिज, बालकनी या मंदिर के आसपास रखा उनका चश्मा उठाकर ले आता है। कभी-कभी उनका चश्मा सीढ़ियों के पास गमले के ऊपर भी रखा मिलता है। वहाँ दादी अकसर कबूतरों के लिए दाना-पानी रखती हैं। फिर उनके आने पर ऐसे प्यार से भरकर उनसे बातें करती हैं, जैसे वे इस घर के सबसे खास मेहमान हों। जब भी दादी को सब्जी काटनी होती, अखबार पढ़ना होता या फिर डायरी लिखनी होती, तो वे कुप्पू से अपना चश्मा मँगवातीं। और कुप्पू सारे काम छोड़कर दादी का चश्मा ढूँढ़ – ढाँढ़कर ले आता। दादी खुश होकर कहतीं, “वाह, मेरा कुप्पू तो बड़ा सयाना है।” कुप्पू हँसकर कहता, “हाँ दादी, बिल्कुल आपकी तरह!” और फिर दादी और कुप्पू एक साथ हँस पड़ते। एक बार कुप्पू ने पूछ लिया, “अच्छा दादी, कब से आप चश्मा पहन रही हो? बहुत साल हो गए होंगे….!” “हाँ रे, बहुत साल…! कोई तीस बरस तो जरूर ही हो गए होंगे। तब मुझे न पास की चीजें ठीक नजर आती थीं, न दूर की।

और तब…!” कहते-कहते दादी पुरानी यादों में खो गईं। “तो दादी, चश्मा पहनकर सब ठीक-ठीक नजर आने लगा?” “हाँ, बिल्कुल…!” नाक पर चश्मा ठहराते हुए दादी बोलीं। “अच्छा दादी, आप चश्मा पहनकर देखती हो तो मैं कैसा लगता हूँ? बिल्कुल ऐसा ही, या कुछ बड़ा – बड़ा…?” कुप्पू ने जानना चाहा। “चश्मा पहनकर देखूँ तो…?” दादी नाक चढ़ाकर बोलीं, “तब तो तू बिल्कुल डब्बे का भूत लगता है, जैसे इस समय लग रहा है।” कहकर दादी पोपली हँसी हँसने लगीं। बड़ी ही मीठी। तो भला कुप्पू कैसे न हँसता? यों चश्मा दादी और कुप्पू का खेल बन गया था। बड़ा ही मजेदार खेल। * एक दिन की बात, कुप्पू ने सोचा, ‘अरे भई, जरा मुझे भी तो पहनकर देखना चाहिए, दादी का चश्मा। देखूँ, भला चश्मा पहनकर कैसा लगता है? लेकिन क्या दादी देंगी मुझे पहनने को? बोलेंगी, रहने दे कुप्पू, टूट जाएगा!’ ‘करना होगा कुछ न कुछ, वरना कैसे पता चलेगा कि दादी के चश्मे में क्या जादू है? क्यों दिन भर वे चश्मे के लिए पुकार लगाती रहती हैं?’ कुप्पू ने सोचा। लेकिन दादी का चश्मा मिलेगा कैसे? कुप्पू एक पल के लिए ऊहापोह में पड़ गया। फिर अचानक उसके चेहरे पर बाँकी मुसकान आ गई। मन ही मन बोला, ‘हाँ, यह ठीक है। दादी को पता भी नहीं चलेगा और…!’ अगले दिन दोपहर के समय, दादी बाहर धूप में बैठी मम्मी से बातें कर रही थीं। सर्दियों की खिली-खिली गुनगुनी धूप थी। जरूर दादी को अच्छी लग रही होगी। तभी तो खुश होकर उन्होंने गुजरे जमाने के किस्से सुनाने शुरू कर दिए थे, जो उनका प्रिय टॉपिक था। कुप्पू ने देखा, चश्मा उनका मेज पर पड़ा था। दादी को अखबार पढ़ते-पढ़ते कुछ याद आया, तो चश्मा वहीं रखकर बाहर मम्मी के पास चली आई थीं और कोई बात बता रही थीं। फिर मगन होकर उन्होंने एक पुराना किस्सा सुनाना शुरू कर दिया था, जब वे एक बार अकेली रेलगाड़ी से यात्रा कर रही थीं और किसी गलत स्टेशन पर पहुँच गई थीं।

फिर वे बड़े अजब-गजब तरीके से अपने शहर नवाँशहर में वापस पहुँचीं। कुप्पू को लगा, किस्सा अभी लंबा चलेगा। उधर दादी का चश्मा चुपके-चुपके कह रहा था, “अरे कुप्पू, जरा मुझे पहनकर तो देखो। फिर तुम्हें पता चलेगा मेरा कमाल!” सुनते ही कुप्पू तो उछल पड़ा। मन ही मन बोला, ‘अरे वाह! यह तो बढ़िया आइडिया है। इस समय मजे में चश्मा पहनकर टहलता हूँ। भला दादी को क्या पता चलेगा? आखिर मुझे भी तो देखना चाहिए, दादी के चश्मे में ऐसी क्या खासियत है कि जरा देर को चश्मा न मिले तो वे अकुला उठती हैं।’ कहते हुए कुप्पू ने मजे में दादी का चश्मा पहना और गर्व से सिर उठाकर इधर-उधर देखा। लेकिन यह क्या? यह तो अजीब चक्कर पर चक्कर शुरू हो गया। चश्मा पहनते ही कुप्पू को बड़े अजब – अजब दृश्य नजर आने लगे थे। बहुत कुछ जो साफ था, धुँधला नजर आने लगा। जैसे सब ओर बादल ही बादल हों! और धुँधले – धुँधले बादलों के बीच न जाने क्या-क्या दिखाई दिया। बाप रे बाप, यह चश्मा तो बड़ा गजब है! कुप्पू सोचने लगा, ‘अरे, पता नहीं, दादी कैसे पहनती हैं इसे? इसमें तो बड़ी अजीबोगरीब शक्लें नजर आती हैं।’ चश्मा पहने हुए कुप्पू इन्हीं खयालों में गुम था। इतने में दृश्य बदला। सामने टीन का टोप पहने दो कद्दावर सैनिक नजर आए। वे भी शायद उस धुंधलके में से निकलकर आए थे। उनकी बड़ी-बड़ी मूँछें थीं। हाथों में तलवारें। देखते ही देखते वे आपस में भिड़ गए और लड़ाई के पैंतरे दिखाने लगे। वे उछल-उछलकर तलवारें चला रहे थे। नाच – नाचकर तलवारें चला रहे थे। यहाँ तक कि तलवार चलाते हुए वे कभी आसमान में उछलते तो कभी फिर जमीन पर आ जाते और कलामुंडियाँ खाने लगते। फिर एक बार तो हालत यह हुई कि सैनिक पीछे रह गए और तलवारें खुद तलवारों से लड़ रही थीं। अजीब दृश्य था। चारों ओर कोहरा ही कोहरा। मगर उसके बीच लड़ाई का यह घमासान देखकर कुप्पू के तो रोंगटे खड़े हो गए। फिर अचानक लड़ते-लड़ते वे सैनिक गायब हो गए। उनकी जगह मुँह खोले, गरजते हुए शेर आ गए। एक नहीं, सैकड़ों शेर नीचे दस शेर एक गोल घेरे में खड़े थे। उनके ऊपर नौ खड़े हुए, फिर ऊपर आठ। ऐसे वे आसमान तक सीढ़ी बनाते गए, जैसे सचमुच आसमान को छू ही लेंगे! फिर उसके बाद सर्कस के जोकर आ गए और अपना टोप उछाल-उछालकर नाचने लगे। अब तो दादी का यह जादू वाला चश्मा पहने कुप्पू की हालत खराब हो गई। सोचने लगा, ‘बाप रे बाप, यह मैं कहाँ आ गया? टीन के सिपाही, शेर, तलवारें…! अरे, दादी के चश्मे में तो न जाने क्या कुछ अटरम-पटरम भरा हुआ है।’ दौड़कर वह दादी के पास गया। घबराकर बोला, “दादी-दादी, लो अपना चश्मा! इसे पहनकर मैं तो बड़ी आफत में आ गया। इसमें तो बड़ा ऊटपटाँग सिनेमा-सा है। अभी इसमें से निकलकर लोहे के टोप वाले दो सैनिक आए, बड़ी देर तक तलवारें चमकाते रहे। फिर मार तमाम शेर निकले।

कोई सौ तो जरूर होंगे। आसमान तक सीढ़ी बना रहे थे। ऐसा अजीब सर्कस मैंने पहले तो कभी नहीं देखा। बस, तुम्हारे इस निराले चश्मे में ही देखा। ….” फिर कुछ रुककर उसने धीरे से कहा, “दादी, तुम इसे कैसे पहनती हो! इतने शेरों और तलवारों की झन-झन से परेशान नहीं होतीं?” सुनकर दादी हँसने लगीं। बोलीं, “अरे बुद्धू, न तो इस चश्मे में लोहे के टोप वाले सैनिक हैं और न शेर या बबर शेर। तूने इसे पहना तो सब कुछ धुँधला-धुँधला नजर आया। धुँधली कोहरे जैसी शक्लें नजर आईं। फिर लोहे के टोप वाले सैनिक और शेरों की कहानी तो तूने खुद बना ली। जरूर तूने ऐसी कोई कहानी किसी किताब या पत्रिका में पढ़ी होगी। बोल, पढ़ी है न!” सुनकर कुप्पू भी हँसने लगा। वाकई ऐसी एक कहानी उसने पिछले दिनों बच्चों की एक पत्रिका में पढ़ी थी। दादी माँ बोलीं, “अच्छा, सुन कुप्पू! तू एक डायरी में ये सब बातें क्यों नहीं लिखता? कुछ बड़ा हो जाए तो पढ़ना। तुझे अच्छा लगेगा। मेरा तो खयाल है कि तू बड़ा होकर लेखक बन सकता है। पता नहीं, कैसे तुझे पापा इंजीनियर बनाने की सोच रहे हैं! लोहे का टोप, शेरों का सर्कस…. वाह-वाह, क्या आइडिया है!” कहते-कहते दादी माँ हँसी तो साथ ही कुप्पू भी हँसने लगा। बोला, “ठीक है दादी, आज ही मैं अपनी डायरी में लिखूँगा, दादी के चश्मे का यह मजेदार किस्सा!” और सचमुच कुप्पू ने लिखा यह अजब – गजब किस्सा तो पढ़कर दादी माँ ही नहीं, मम्मी- पापा, शोभिता दीदीए सब हँसे पेट पकड़कर और बोले, “वाह रे कुप्पू, वाह! याद रहेगा तेरा यह नायाब किस्सा।”