laal riban vaalee nanhee paree Motivational story
laal riban vaalee nanhee paree Motivational story

कुप्पू स्कूल से आकर सीधे अच्छन बाबू की बगिया की ओर भागा। वही तो था उसका खेल का मैदान, जहाँ कबड्डी, छुपमछुपाई, गेंदतड़ी और चकरी फेंकने से लेकर पता नहीं, कौन-कौन से नए-पुराने खेल चलते ही रहते थे। बच्चों का मेला – सा जमा रहता था। पर इधर कुछ दिनों से कुप्पू का मन तो बस बैडमिंटन में ही रमा हुआ था। धीरे-धीरे उसका हाथ सधता जा रहा था। फिर इस खेल में उसका जोड़ीदार था देबू। वही देबू घोषाल, जो पूरे मोहल्ले में बैडमिंटन का उस्ताद था।

कुप्पू को भी उसने बढ़िया सर्विस से लेकर, कलाई के घुमाव के साथ कलात्मक शॉट्स लगाने का तरीका सिखा दिया। सामने वाले खिलाड़ी को यहाँ वहाँ दौड़ाने और छकाने के एक से एक लाजवाब गुर भी सिखाए। कुप्पू को आजकल उस सबकी प्रैक्टिस में मजा आता था। इसलिए स्कूल से आते ही खाने के दो-चार ग्रास गले में डालकर सीधे अच्छन बाबू की बगिया की ओर दौड़ पड़ता था। पर आज बादलों वाला दिन था। थोड़ी देर पहले बादल खूब बरस चुके थे। अब भी मैदान पूरी तरह सूखा नहीं था। शायद इसीलिए कुप्पू का दोस्त देबू नहीं आया था। ‘या फिर हो सकता है, वह किसी काम में लग गया हो।’ कुप्पू ने सोचा। यों कभी-कभी देबू की मम्मी उसे इसी समय साइकिल पर पापा के ऑफिस में गरमागरम पकौड़े या फिर कोई और स्पेशल पकवान ले जाने के लिए भेज देती थीं। और फिर देबू की पूरी शाम इसी चक्कर में निकल जाती थी।

कुप्पू बोर होकर सोच रहा था, ‘ओह, मौसम कितना अच्छा है! एकदम खुशनुमा। और अब तो बूँदें भी नहीं पड़ रहीं। पता नहीं, देबू क्यों नहीं आया? उसने पहले बताया भी नहीं। अब मैं किससे खेलूँ?’ वह मन मारकर रैकिट कंधों पर रखे, इधर-उधर टहल रहा था। इतने में लाल रिबन वाली एक छोटी सी बच्ची आई। प्यार से बोली, “कुप्पू भैया, मैं खेलूँ तुम्हारे साथ?” कुप्पू ने ध्यान से देखा, लड़की छोटी-सी थी, पर थी बड़ी समझदार। उसने लाल बुंदकियों वाला बड़ा सुंदर पीला फ्रॉक पहना हुआ था। देखने में चुस्त। बातें भी खूब अच्छी करती थी। कुप्पू को हैरानी हुई, यह जरा-सी लड़की क्या बैडमिंटन खेलती होगी? इसके साथ खेल तो जरा भी नहीं जमेगा। उलटे बोरियत ही होगी। पर भला वह मना भी कैसे करे? “अच्छा, तो… तुम्हें ठीक से खेलना आता है न!” कुप्पू ने बड़े अनमने ढंग से पूछा। “यह मैं क्या बताऊँ? मेरे साथ खेलोगे तो खुद ही जान जाओगे!” कहकर वह छोटी-सी लड़की फिर से हँसी। फिर बोली, “मेरा नाम टुलटुल है। बड़ा अजीब है न! आओ खेलें!” कुप्पू को हँसी आ गई। बोला, “टुलटुल अजीब नाम तो नहीं है। हाँ, पर कुछ अनोखा – सा है। छोटा-सा, सुंदर नाम।” और फिर थोड़ी देर में खेल शुरू हो गया। बल्कि शुरू क्या हुआ, अच्छा-खासा जम गया। कुप्पू ने देखा, टुलटुल खेल में ज्यादा होशियार तो नहीं थी, पर एकदम बुद्धू भी नहीं थी। उसे अपने बढ़िया कलात्मक शॉट्स से छकाना कोई मुश्किल नहीं था। फिर देबू ने जो उस्तादी सिखाई थी, वह भला कब काम आती? थोड़ी देर में ही टुलटुल नेट पर आगे-पीछे और एक छोर से दूसरे छोर तक दौड़ते बेहाल हो गई। यों उसने भी कुछ अच्छे शॉट्स लगाए थे, पर कुप्पू के लिए उनकी काट क्या मुश्किल थी। कुप्पू ने बात की बात में उसे हरा दिया। इस पर टुलटुल उदास हो गई। बेहद उदास। रोंआसी होकर बोली, “मैं शायद बुद्धू हूँ। एकदम बुद्ध! है न कुप्पू? मुझे अच्छा खेलना नहीं आता। मुझे… मुझे शायद तुमसे खेलना ही नहीं चाहिए था। घर के लोग भी कहते हैं कि टुलटुल बुद्धू है, इसे कोई भी काम ठीक से नहीं आता!” “अच्छा, ऐसा कहते हैं!” सुनकर कुप्पू को थोड़ा दुख हुआ। उसकी जीत की खुशी एकदम काफूर हो गई। “अब तो तुम मेरे साथ नहीं खेलोगे न!” टुलटुल ने उदास होकर कहा। कुप्पू को डर लगा, कहीं अभी – अभी यह पगली लड़की रोना न शुरू कर दे। “अरे वाह, खेलूँगा क्यों नहीं? जरूर खेलूँगा। तुम तो इतना अच्छा खेलती हो। जीत-हार से क्या होता है!” कुप्पू उसे तसल्ली देता हुआ बोला।

पता नहीं क्यों, उसे टुलटुल बहुत अच्छी लगने लगी थी। उसने सोचा, ‘भला मुझे खेल में ऐसी उस्तादी दिखाने की क्या जरूरत थी? खैर, अब मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे टुलटुल का हौसला बढ़े।’ अबके कुप्पू फिर से टुलटुल के साथ खेला, पर उसने एक के बाद एक बड़ी बेवकूफी वाली गलतियाँ कीं और फिर आखिर हार गया। टुलटुल खुश थी। बोली, “अरे वाह, मैंने तुम्हें हरा दिया! … मुझे यकीन नहीं होता कि मैंने सचमुच तुम्हें हरा दिया। कुप्पू भैया, तुम तो अच्छे खिलाड़ी हो। सब लोग तुम्हारी तारीफ करते हैं। कहते हैं, बैडमिंटन में कुप्पू का कोई जवाब नहीं। इसका मतलब, मैं भी कोई इतनी बुद्धू या कच्चड़ नहीं हूँ!” “नहीं – नहीं! तुम बिल्कुल कच्चड़ नहीं हो। किसने कह दिया? … तुम तो बहुत अच्छा खेलती हो।” कुप्पू ने कहा तो टुलटुल का चेहरा खिल गया। “सच्ची कह रहे हो ना? चलो, फिर खेलें।” टुलटुल उत्साह से भरकर बोली। खुशी के मारे उसकी गरदन अजब ढंग से हिल रही थी और साथ ही सिर पर बँधा लाल रिबन भी। इस बार भी कुप्पू जान-बूझकर ऐसे खेला कि टुलटुल जीती और वह हार गया। टुलटुल बड़ी खुश हुई। बोली, “अरे वाह कुप्पू भैया! मैंने तुम्हें हरा दिया। मैं इतनी खुश हूँ, इतनी खुश कि बता नहीं सकती।” “तुम तो वाकई अच्छी खिलाड़ी हो। चाहो तो कुछ दिनों में बैडमिंटन की चैंपियन हो सकती हो!” कुप्पू ने उसकी हिम्मत बढ़ाई। “सच…?” खुशी के मारे टुलटुल की चीख निकल गई। अब तो टुलटुल रोज कुप्पू के साथ बैडमिंटन खेलती। और सचमुच इतनी होशियार हो गई कि कुप्पू बहुत सँभलकर खेलता, तो भी मुश्किल से उसका मुकाबला कर पाता था। वह मन ही मन कहता, वाकई टुलटुल में खेलने की लगन है। बस थोड़ा-सा हौसला देने की जरूरत है। फिर तो…! फिर एक दिन शहर के मशहूर झूला पार्क में बैडमिंटन की प्रतियोगिता रखी गई। दूर-दूर से बच्चों की टीमें उसमें हिस्सा लेने आईं। टुलटुल खूब जमकर खेली और लड़कियों में अव्वल आई। उसकी चुस्ती, उसकी फुर्ती, तेज शॉट्स और सामने वाले खिलाड़ी को उलझाए रखने की कला, हर चीज बेजोड़ थी। जीतने के बाद उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था। इनाम में मिला बड़ा-सा चाँदी का कप लेकर वह कुप्पू के पास आई। बोली, “थैंक्यू कुप्पू, अब घर के लोग भी मुझे प्यार करने लगे हैं। वो कहते हैं, टुलटुल तो वाकई बड़ी होशियार है, हमें तो पता ही नहीं था। तुम्हारे साथ खेलकर ही मुझमें इतनी हिम्मत आ गई कि अब बिल्कुल डर नहीं लगता। थोड़ा अपने आप पर भरोसा हो गया है।” “यही तो सबसे बड़ी बात है टुलटुल, यही तो… जो हर खिलाड़ी में होनी चाहिए।” कहते-कहते कुप्पू का चेहरा दमकने लगा। जैसे यह चाँदी का बड़ा सा कप टुलटुल को नहीं, खुद उसी को मिला हो। “चाहो तो ऐसे ही तुम जीवन के हर फील्ड में आगे बढ़ सकती हो।” कुप्पू ने उसे बढ़ावा दिया, “तुम तो होशियार हो, वाकई होशियार!” “तो मैं बुद्ध नहीं हूँ न?” कहते हुए टुलटुल ने अजब ढंग से गरदन हिलाई। “बिल्कुल नहीं!” कुप्पू हँसा तो साथ ही टुलटुल भी हँस दी। अब वह खुश रहती थी और खूब हँसती थी। कुप्पू ने उसका नाम ‘लाल रिबन वाली नन्ही परी’ रख दिया था। और उसने यह तो बिल्कुल नहीं बताया कि शुरू-शुरू में वह जान-बूझकर हार जाता था, ताकि टुलटुल के मन में जमकर खेलने और जीतने की इच्छा पैदा हो। अब टुलटुल खेलती नहीं थी, खेल में उसकी कलाई जैसे नाचती थी और सामने वाले को नचाती थी। उसके बेहतरीन शॉट्स देखकर सभी दंग रह जाते। उसका खेल देखने के लिए भीड़ लग जाती। ऐसे क्षणों में टुलटुल का चेहरा आत्मविश्वास से दमक रहा होता था। कुप्पू उसे देखकर कभी – कभी अपने आप से कहता था, “हार भी तो कितनी बड़ी जीत होती है, यह मैंने उस नन्ही सी परी टुलटुल से सीखा है।”