rang-biranga kandeel
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Kids story in hindi: कुप्पू उठा तो दीवाली की खुशनुमा सुबह ने उसका स्वागत किया, “हैलो कुप्पू …!” हवा में हलकी सी ठंड थी और ऐसा प्यारा मौसम कि कुप्पू का दिल हुआ कि अभी चारपाई से कूदे और झटपट पाँच-सात मील की दौड़ लगा आए। अपना यह आइडिया उसे इतना मजेदार लगा कि वह चारपाई पर बैठा-बैठा मुसकरा दिया।

पर तभी उसका ध्यान पूरे घर में फैली गहमागहमी और उत्साह भरी चहल-पहल की ओर गया, “ओह, तो यह बात है…!” कुप्पू के मम्मी- पापा, बड़के भैया नंदू, नीना दीदी सभी दीवाली मनाने की जोरदार तैयारियों में लगे थे और सभी ने अपने-अपने लिए पसंद के काम ढूँढ़ लिए थे।

मम्मी नीना दीदी के साथ घर की सफाई करने में जुटी थीं। उसके बाद उन्हें मिलकर रसोई में दही वड़े, ढोकला और गुलाबजामुन समेत कुछ खास पकवान बनाने थे। इस बीच नीना दीदी आँगन में खूबसूरत रंग-बिरंगी अल्पना सजाने के लिए भी कोई बढ़िया डिजाइन सोच रही थीं। अचानक सिर खुजाते हुए उन्होंने पूछ लिया, “मम्मी… मम्मी, आप भी कोई अच्छा-सा आइडिया बताओ न!”

मम्मी हँसकर बोलीं, “तेरे को तो नीना, आसपास सारे घरों के लोग कलाकार कहते हैं। भला कलाकार को मैं क्या आइडिया दूँ? … पर हाँ नीना, बनाना इस बार भी गणपति ही। पिछली बार तूने बड़े अच्छे गणपति बनाए थे। पड़ोस की रमा आंटी तो तेरी तारीफ करते नहीं थकती थीं।”

“हाँ, सो तो है …!” नीना दीदी कुछ उधेड़बुन में थीं। उन्हें रंगोली सजाने का बड़ा शौक था। पर सोचती थीं, ऐसी हो रंगोली कि लोग कहें, “वाह, कमाल है!”

सचमुच पिछली बार बड़े ही खूबसूरत गणपति बने थे। इतने खुश कि लग रहा था, जैसे हँस रहे हों। नीना ने उन्हें बाकायदा बूंदी के लड्डू खाते हुए दिखाया था। अड़ोस-पड़ोस में कोई ऐसा नहीं था, जिसने आकर तारीफ न की हो। पर इस बार तो कुछ और ही होना चाहिए। नीना दीदी मन ही मन किसी नए आइडिया के बारे में सोच रही थीं। रसोई की सफाई करते-करते बीच में रुककर कुछ सोचने लगतीं। फिर धीरे से मुसकरा देतीं।

नंदू भैया हमेशा की तरह सुंदर, रंग-बिरंगा कंदील बनाने में अपनी पूरी कला लगा देना चाहते थे। पहले वे रंग-रंग के पन्नी कागज का कंदील बनाया करते थे, पर इस बार वे बड़ा ही खूबसूरत पारदर्शी कागज लाए थे, लाल, पीले, हरे और सिलवर, चार रंगों में। दूर से ऐसी चमक मारता, जैसे बिजली चमक रही हो। नंदू भैया ने इस बार हवाई जहाज जैसा डिजाइनदार कंदील बनाने का सोचा था, और फिर उसी को पूरा करने में जुटे थे। हवाईजहाज है तो जगमग करती लाइटें भी होनी चाहिए। उसमें दीया कहाँ रखा जाए और उसे छत पर कहाँ ऊँचाई पर टाँगा जाएगा, यह भी उन्होंने सोच लिया था।

बरामदे में वे अपना पूरा तामझाम फैलाकर बैठे थे। रंग-रंग के चमकीले कागज। कैंची, लेई, ज्यॉमेट्रीकल बॉक्स, एक बड़ा सा स्टील का पैमाना। और हाँ, बाँस की खपचियाँ और उन्हें तराशने के लिए एक चाकू भी।… हालाँकि तीलियों का सुंदर सा ढाँचा तो उन्होंने कल ही तैयार कर लिया था। पर अब सहायक के रूप में कुप्पू की कमी उन्हें महसूस हो रही थी। उन्होंने वहीं बैठे-बैठे आवाज दी, “कुप्पू ओ कुप्पू… अरे, उठा नहीं अब तक? झटपट चाय पी ले, फिर दौड़कर इधर आ। दोपहर तक मेरा कंदील नहीं बना तो दीवाली पर क्या मजा आएगा!”

कुप्पू को पता था कि नंदू भैया के दिमाग में तो हवाई जहाज उड़ रहा है आज। पेपर काटकर चिपकाने में उन्हें मदद की जरूरत थी। सो वहीं से आवाज देकर बोला, “आया भैया, आया अभी…!”

कुप्पू चाय पीकर नंदू भैया के सहायक का पार्ट निभाने के लिए आया, तो देखा, पापा सुबह-सुबह नहा-धोकर और नाश्ता करके बाजार से खरीदारी करने के लिए सामान की लिस्ट फाइनल कर रहे थे। हर साल की तरह कुछ दोस्तों के घर जाकर दीवाली की भेंट भी उन्हें देनी थी। बस, तीन-चार ही तो उनके पक्के दोस्त थे, जिनके घर वे दीवाली पर जरूर जाते थे। पहले मिठाई का डब्बा लेकर जाते थे, पर पिछले कुछ सालों से फल ले जाने लगे। कह रहे थे, “इस बहाने साथ बैठने का सुख मिलता है। आपस में एक-दूसरे के हाल-चाल पता चल जाते हैं।”

खासकर बिज्जी बड़े दिनों से अस्वस्थ थे। फोन पर तो बातचीत होती ही थी। हाल-चाल पता चल जाते थे। पर सोच रहे थे, ‘दीवाली पर भी अगर थोड़ी देर साथ न बैठे और सुख-दुख की बात न की, तो काहे का त्योहार…?’

*

मम्मी मुसकराते हुए कह रही थीं, “मैंने दही वड़े बना लिए हैं। बिज्जी भाई के घर जाना हो तो आप बता देना। एक डिब्बे में डालकर दे दूँगी। अभी कुछ रोज पहले ही तो उनका फोन आया था। कह रहे थे कि भाभी, मुझे पता है, आप तो हर साल दीवाली पर दही वड़े बनाती हैं। आपके हाथों के बने दही वड़े मुझे बहुत अच्छे लगते हैं…!”

इतने में कुप्पू बोला, “अरे मम्मी, सुनो! मैं तो आपको बताना भूल ही गया। आज दीवाली पर मेरे कुछ दोस्त आएँगे। मैंने उन्हें सुबह नाश्ते पर बुलाया है। आपको ज्यादा दिक्कत तो नहीं होगी न! अगर हो तो आप बता देना, मैं मदद के लिए आशु और निक्की को भी बुला लूँगा। वे ही चीजें सर्व करने का पूरा जिम्मा सँभाल लेंगे।… और आप कहें, तो कुछ चीजें मैं बाजार से ले आता हूँ।”

“अरे, यह कैसी बात कर दी कुप्पू तूने?” मम्मी कुछ नाराज हो गईं। बोलीं, “तेरे दोस्त आएँगे, तो इसमें क्या परेशानी है? दीवाली पर तो कोई अजनबी आए तो भी मन होता है कि वह खा-पीकर जाए। फिर वे तो दोस्त हैं तेरे, मुझे क्या खुशी नहीं होगी उन्हें खिलाकर…?”

नंदू भैया भी सुन रहे थे यह वार्तालाप । उन्होंने पूछा, “तेरे कितने दोस्त आने वाले हैं, रे कुप्पू?”

भैया, होंगे कोई दस-ग्यारह, कुछ ज्यादा भी हो सकते हैं।” कुप्पू कुछ सोचता हुआ बोला।

“चल, कोई बात नहीं। मैंने तुझे फ्री किया।” नंदू भैया ने दरियादिली दिखाई, “तू अपने दोस्तों की अच्छी तरह खातिर कर। आज दीवाली पर आ रहे हैं तो अच्छी तरह खिलाना-पिलाना भी चाहिए।”

“भैया, वो लोग ग्यारह बजे आएँगे। अभी डेढ़-दो घंटे तो मैं आपके असिस्टेंट का रोल निभा ही सकता हूँ।” कहकर कुप्पू हँसते हुए कंदील बनाने में नंदू भैया की मदद करने लगा।

मगर मम्मी का पूरा ध्यान तो कुप्पू के दोस्तों के लिए तैयारी करने में था। वे कुछ सोचती हुई सी बोलीं, “तेरे दस-ग्यारह दोस्त आ रहे हैं न? तो कोई बात नहीं कुप्पू! बाहर से कुछ भी लाने की जरूरत नहीं है। दीवाली पर जब हम खुद बाहर की चीजें खाने से बचते हैं, तो क्या उन्हें बाहर का खिलाना ठीक होगा? हाँ, तेरे जो दोस्त आएँगे, अगर उनमें से कुछ बच्चे तेरे साथ-साथ सर्व करने का जिम्मा ले लें, तो मुझे थोड़ी आसानी हो जाएगी।”

“अरे, चिंता न करो मम्मी।” कुप्पू बोला, “मेरे दोस्त बहुत अच्छे हैं। वे सब सँभाल लेंगे, आपको बिलकुल कोई परेशानी नहीं होगी।”

“क्या तेरे ये दोस्त पहले भी कभी घर आए हैं, कुप्पू?” मम्मी ने जानना चाहा।

“न- न मम्मी, पहली बार। पर देखना, आपको बहुत अच्छे लगेंगे वे…!” कुप्पू ने कुछ कहा, कुछ अनकहा छोड़ दिया।

कुप्पू की मम्मी ने उसके दोस्तों के लिए स्वादिष्ट छोले-पूरी बनाने का सोच लिया था। फिर मीठे में गुलाबजामुन तो थे ही। बच्चे मजे मजे में खाएँगे। बस, उन्होंने झटपट तैयारी शुरू कर दी। सफेद चने उन्होंने रात में ही भिगोकर रखे थे। कोई घंटे भर में वे बन सकते थे। तो फिर पूरियों की तैयारी में कितनी देर लगती…? घर में सबको पता था, वे किसी काम में लग जाएँ तो समय से भी ज्यादा तेज भागने लगती हैं।

और वाकई जब बरामदे में टँगी घड़ी ने ग्यारह बजाए, तब तक कुप्पू की मम्मी की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। छोले तो तैयार हो ही चुके थे। गुलाबजामुन भी। बस अभी पूरियाँ बननी बाकी थीं। उन्होंने सोचा, ‘कुप्पू के दोस्त आएँगे तो गरम-गरम पूरियाँ तल लूँगी।’

हालाँकि कुप्पू के ये कैसे दोस्त हैं, जो आज दीवाली पर आएँगे? उन्हें थोड़ा कौतुक तो जरूर था। इसलिए भी कि कुप्पू कह चुका था, मम्मी, वे पहले कभी घर नहीं आए। “चलो, अच्छा है, कुप्पू के दोस्तों का दायरा बढ़ रहा है। यही तो बच्चे के बड़े होने की निशानी है।” वे मुसकराईं।

कुप्पू की मम्मी उत्सुकता से इंतजार कर रही थीं। कुप्पू भी दो-एक बार दरवाजे पर जाकर झाँक आया था।

अभी वह सोच रहा था कि कहीं किसी और चीज की जरूरत तो नहीं, कि इतने में दरवाजे की घंटी बजी। और फिर कुप्पू के बाहर जाते ही एक साथ बहुत से बच्चों की खिल-खिल… खिल-खिल सुनाई दी। फिर एक छोटी बच्ची की आवाज, “कुप्पू भैया, हम आ गए!”

बरामदे में बैठ तनिक सुस्ता रही कुप्पू की मम्मी मुस्कुराईं- लो, आ गए कुप्पू के दोस्त … यानी दीवाली के नन्हे मेहमान!

*

कुप्पू ने सभी को भीतर ड्राइंगरूम में ले जाकर बैठाया। फिर उनके लिए झटपट पानी लेकर गया। तब तक मम्मी भी आ गईं। उन्होंने देखा, कोई दस-बारह बच्चे हैं…पर वे ऐसे बच्चे तो नहीं, जो इस कॉलोनी के लगते हों। बड़े ही साधारण से कपड़े, जिनके रंग भी निकल गए थे। किसी-किसी के कपड़े तो बिलकुल बेढंगे लग रहे थे। ढीलमढाल। जैसे अपने न हों, किसी और के माँग लिए हों। पैरों में सादा सी हवाई चप्पलें। बच्चे थोड़े सकुचाए हुए से लग रहे थे, जैसे इस ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठकर उन्हें शर्म आ रही हो। कुछ तो नीचे देख रहे थे, अपने पैरों की तरफ।

कुप्पू की मम्मी को थोड़ा अटपटा सा लगा। सोचने लगीं, ‘अरे, कुप्पू के ये कैसे दोस्त हैं!”

वे कुछ और सोचतीं, इससे पहले ही कुप्पू बोला, “मम्मी, मेरे दोस्तों से मिलो।… पास ही जे.जे. कॉलोनी है न, वहाँ से आए हैं।”

जे.जे. कॉलोनी, यानी झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनी। कुप्पू की मम्मी को अब और भी ज्यादा हैरानी हुई। झुग्गी-झोंपड़ी कॉलोनी के बच्चों से कुप्पू की दोस्ती…?

पर तब तक कुप्पू ने अपने एक-एक दोस्त का नाम लेकर उनसे मिलवाना शुरू कर दिया, “मम्मी, इनसे मिलो। ये है सत्ते, ये भोला, ये राजू, बिंदा, सोनू… मोंटू, समरेश, चीना, पिंदी, रजनी, तिन्नी…!”

चार लड़कियाँ थीं, बाकी लड़के। सभी ने बड़े आदर और सलीके से हाथ जोड़कर नमस्ते की। कुप्पू की मम्मी ने मुसकराते हुए कहा, “चलो, आज दीवाली पर तुम लोगों से मिलना हो गया। बड़ा अच्छा लगा।”

इस पर साँवले रंग की चीना हँसकर बोली, “आंटी, कुप्पू आपकी बड़ी तारीफ करता है। कहता है, मेरी मम्मी जैसी तो कोई मम्मी नहीं।… तो हम सबका भी मन हुआ, आपसे आकर मिलें। फिर कुप्पू ने ही कहा, आप सब लोग दीवाली पर आओ तो बड़ा मजा रहेगा। बस, हम लोग आ गए।”

यह चीना थी। बहुत बातूनी, चंचल बच्ची। पास ही उसकी बड़ी बहन पिंदी बैठी थी। बोली, “आंटी, कहीं हमारे आने से आप परेशान तो नहीं हो गई? … दीवाली का दिन है, कोई काम हो तो बताएँ। हम झटपट कर देंगे। मैं सारे काम जानती हूँ।”

इस पर कुप्पू की मम्मी कुछ कहतीं, इससे पहले ही चीना चहककर बोली, “हाँ आंटी, ठीक कह रही है पिंदी। सारे काम यह कर लेती है, खूब अच्छे। पर चाय बिलकुल अच्छी नहीं बनाती। आंटी, अगर आपको चाय बनवानी हो तो मैं ही अच्छी बनाती हूँ…!”

सुनकर मम्मी को हँसी आ गई। बोलीं, “अच्छा चीना, तुम और क्या कर लेती हो…?”

“ओह आंटी, इतनी सारी चीजें हैं कि क्या बताऊँ? बताते-बताते थक जाऊँगी।” चीना ने जरा लंबूतरा-सा चेहरा बनाकर कहा, “अच्छा चलो, बता ही देती हूँ। देखो आंटी, घर के कामों और पढ़ाई के अलावा बढ़िया डांस मैं कर लेती हूँ, गाना भी गाती हूँ।… और हाँ, ड्राइंग! ड्राइंग में तो मुझे बहुत मजा आता है। दिल करता है, बस सारे दिन अच्छे-अच्छे चित्र बनाती ही रहूँ। बहुत अच्छी ड्राइंग बनाती हूँ मैं, मम्मी!”

“ओहो, यह तो बड़ी अच्छी बात है!” कुप्पू की मम्मी ने शाबाशी वाली नजरों से उसे देखा। फिर कहा, “पर और बच्चे भी तो बनाते होंगे ड्राइंग…?”

चीना उत्साहित होकर बोली, “हाँ-हाँ आंटी क्यों नहीं? देखो, ड्राइंग तो सत्ते भी बना लेता है।” उसने सामने बैठे ढीले कुरते वाले सत्ते की ओर इशारा करके कहा, “पर आंटी, क्या है कि सत्ते है ना, कबड्डी में ज्यादा होशियार है। ड्राइंग भी बनाता है तो ऐसे, जैसे रंगों से कबड्डी खेल रहा हो….तो बस, ड्राइंग तो इसकी माशा अल्लाह है। हाँ, मैदान में उससे कबड्डी खिलवा लो चाहे जितनी!”

सुनकर सब हँसने लगे। सत्ते बोला, “मैं तो रंगों से कबड्डी खेलता हूँ आंटी, पर जरा चीना से पूछना, यह हाथी को चूहा और चूहे को चींटी जैसा क्यों बना देती है? बेचारे समरेश को फिर ठीक करना पड़ता है।”

सुनकर चीना ने मुँह बिगाड़ लिया। जैसे उसे अच्छा न लगा हो।

मम्मी को भी चीना का चहकना-चहचहाना ही भाता था। इसलिए उसे उत्साहित करते हुए बोलीं, “अच्छा चीना, तुम्हारे यहाँ और कौन-कौन बनाता है ड्राइंग…?”

“सब बनाते हैं, आंटी। सब…!” चीना फिर चहक उठी, “ड्राइंग में तो सबको मजा आता है। पर ये है कि रंग तो आसानी से मिलते नहीं हैं। पर मिलते हैं तो सब टूट पड़ते हैं उन पर। तड़ातड़-तड़ातड़ बढ़िया-बढ़िया चित्र बना डालते हैं। ये रजनी… ये भोला, ये बिंदा… सारे के सारे उस्ताद हैं! पर क्या है आंटी, कि ये गोल-मटोल भोला है न, ये जलेबी का बड़ा शौकीन है। तो जो कुछ भी बनाए, वो अपने आप गोल-गोल जलेबी जैसा बन जाता है। … अच्छा, और ये बिंदा है न, इसके घर के आगे बड़ा सा अमरूद का पेड़ है। तो वह जो कुछ भी बनाए, उसमें अमरूद का पेड़ तो होगा ही। और उसमें चार-पाँच पके अमरूद भी जरूर लटक रहे होंगे।” कहते-कहते वह जोर से हँस पड़ी।

मम्मी को चीना से एक से एक मजेदार सूचनाएँ मिल रही थीं। वे हँस-हँसकर उसकी बतकही का आनंद ले रही थीं। औरों का भी खूब मनोरंजन हो रहा था। और चीना थी कि थकने का नाम ही नहीं ले रही थी।

“अच्छा, यह तो बताओ चीना, कि तुम लोगों में सबसे अच्छी ड्राइंग कौन बनाता है..?” मम्मी ने बात को आगे बढ़ाने के लिए पूछा।

“आंटी, सबसे अच्छा तो हमारे बीच बस समरेश ही है।” चीना बोली, “वैसे तो चुप्पा है एकदम कुछ बोलता नहीं। पर मम्मी, जब चित्र बनाने बैठता है तो इसे सब कुछ याद आ जाता है। अभी कुप्पू भैया के स्कूल का क्या बढ़िया चित्र बनाया इसने। हम सबके चेहरे का जैसे फोटो खींच दिया हो। आंटी, कोई भी चीज ये भूलता नहीं है। फिर जब चित्र बनाता है कि हर कोई हैरान रह जाता है!”

मम्मी ने बड़े कौतुक से समरेश की ओर देखा, जो अपनी तारीफ सुनकर कुछ सिकुड़ सा गया था।

चीना की बातों की रेलगाड़ी अब तेजी से आगे चल पड़ी थी, “और आंटी, ये समरेश है ना, बड़ा होशियार है। देखो, कुछ रोज पहले क्या हुआ मम्मी, कि इसके पड़ोस वाला घर है ना, तो वहाँ एक लड़की है, तब्बू। बिलकुल छोटी सी। एक दिन गलती से उसका हाथ कूलर से छू गया तो बस, वो तो चिपक ही गई। कूलर में करंट था। समरेश ने उसकी मम्मी की चीख सुनी तो एकदम दौड़ा।… झट से मेनस्विच बंद किया। फिर उसी टैम डॉक्टर शर्मा को बुलाकर लाया। बस समझो कि जान बच गई तब्बू की…!”

अभी तक चुप बैठी लंबी और दुबली सी रजनी ने भी इस बात पर सिर हिलाया, “हाँ आंटी, यह बिलकुल ठीक बात है।”

इस पर चीना तिनक उठी, “तो मैं क्या झूठ बोलती हूँ?” फिर खुद ही बोली, “आंटी, मैं झूठ तो नहीं बोलती, पर क्या है कि ज्यादा बकझक करती हूँ। तो मेरी मम्मी भी कभी-कभी तंग आ जाती हैं। अभी थोड़े दिन पहले बोलीं कि चीना, तू बहुत बोलती है, तेरे लिए तो बहुत बोलने वाला दूल्हा ढूँढ़ना पड़ेगा।.. मैंने कहा कि ना जी ना, मम्मी, मैं तो ज्यादा बोलती ही हूँ, वह भी बोलने लगा तो इतनी बकझक … बकझक होगी कि पूरा घर पागल हो जाएगा और पड़ोसी मुफ्त की नुमाइश देखेंगे। क्यों आंटी, ये तो तो ठीक नहीं है न!”

कुप्पू की मम्मी किसी तरह अपनी हँसी दबाकर बोलीं, “हाँ, ये तो वाकई ठीक नहीं है।”

*

पिंदी के लिए अब अपनी हँसी रोकना मुश्किल हो गया। उसकी हँसी किसी बमगोले की तरह फूटकर बाहर आ गई। हँसते-हँसते बोली, “आंटी, इसकी बातों पर ज्यादा ध्यान न दो। इसका न एक पेंच थोड़ा ढीला है। बोलती है तो बोलती जाती है, फिर इसका ब्रेक नहीं लगता। वो क्या बोलते हैं कि दुरंतो ट्रेन है। आप भी सोच रही होंगी, दीवाली वाले दिन ऐसी आफत की नानी…!”

कुप्पू की मम्मी जोर से हँस पड़ीं, “नहीं-नहीं, ऐसी तो कोई बात नहीं। दीवाली तो वैसे भी हँसी-खुशी और मिलने-जुलने का त्योहार है।…ऐसी मजेदार बातें मुझे और कहाँ सुनने को मिलेंगी?” फिर बोलीं, “कुप्पू के और दोस्तों को तो देखा है, पर तुम लोगों से तो पहली बार ही मिल रही हूँ। हालाँकि चीना की बातों से तो लग रहा है कि मैं जाने कब से तुम लोगों को जानती हूँ।”

कुप्पू बोला, “मम्मी, हम लोगों ने भी तो अभी पिछले दो-तीन महीने से ही जे.जे. कॉलोनी जाना शुरू किया है। ये बच्चे स्कूल नहीं जाते न! तो हम लोगों ने सोचा, हम हफ्ते में दो दिन जाकर इन्हें पढ़ाएँगे।”

“अरे, स्कूल नहीं जाते…? पर ये तो काफी होशियार बच्चे हैं।” मम्मी को बड़ा दुख हुआ। बोलीं, “अच्छा है कि तुम लोगों ने यह सोचा। ये लोग भी थोड़ा पढ़-लिख लें तो आगे कोई न कोई तो राह निकलेगी।”

“अभी थोड़ा ही समय हुआ है, मम्मी, पर इतने में ही इन सबने खूब सारा सीख लिया है। और ड्राइंग में तो इन लोगों ने बड़ा कमाल किया। इतने अच्छे-अच्छे चित्र बनाने लगे हैं कि मैं तो देखता ही रह जाता हूँ।” कुप्पू बड़े उत्साह से बता रहा था।

भोला बोला, “पर कुप्पू भैया, सिखाया तो आपने ही है ना! कागज, पेंसिल और रंग भी आप लोगों ने लाकर दिए। नहीं तो चित्र कैसे बनाते हम लोग?”

कुप्पू बोला, “बस थोड़ा-बहुत ही तो सिखाया हम लोगों ने, पर लगता है, तुम लोग तो पहले से ही सीखे-सिखाए थे। खासकर समरेश, रजनी और चीना का तो जवाब ही नहीं। ऐसे अच्छे चित्र बनाते हैं कि बस आँखें चिपक ही जाती हैं।… और तिन्ना! अभी छोटी सी है तिन्ना, पर इसने ऐसा बढ़िया जोकर बनाया कि मैं तो बस देखता ही रह गया। … वैसे सबकी अलग-अलग खासियत है। सोनू और मोंटू चुप बैठे हैं। पर पिछले दिनों बारिशों में इन्होंने कॉलोनी में कुछ लोगों के साथ मिलकर कोई दो-ढाई सौ पौधे लगाए। उनमें से कई आज खूब चल रहे हैं। और राजू…? वो तो सबसे निराला है। एकदम कलाकार। अभी कोयल, तोता, मोर, पपीहा, बाघ, बकरी, लंगूर सबकी आवाजें निकालने लगे, तो ऐसा लगेगा कि हम सच्ची-मुच्ची जंगल में पहुँच गए।”

“अरे, ऐसा…?” मम्मी को हैरानी हुई। पर जब राजू ने उनके कहने पर दो मिनट में ही ट्यों-ट्यों… टिस्टों -टिस्टों… कुहू कुहू… पी-पी… पहु-पिहू… म-एँ-एँ… हुम्म-अ… हुम्म-अ जैसी विचित्र आवाजें निकालनी शुरू कीं तो मम्मी तो हैरान थीं ही, भीतर से नीना दीदी भी दौड़कर आ गईं। अचरज के मारे उनकी आँखें फैल गई थीं। और जब राजू का खेल थमा तो सबने एक साथ तालियाँ बजाकर शाबाशी दी।

नीना दीदी हँसकर बोलीं, “तुम्हारे ये दोस्त तो वाकई कलाकार हैं, कुप्पू!”

मम्मी भी जैसे किसी नई दुनिया में पहुँच गई थीं। बोलीं, “कुप्पू, अब तो मेरा भी मन है, एक दिन इन लोगों की कॉलोनी देखूँ। तुम्हारी क्लास में भी चलकर बैठूं।” फिर पूछा, “क्या बस इतने ही बच्चे हैं तुम्हारी क्लास में…?”

इस पर चीना बोली, “नहीं आंटी, बहुत सारे बच्चे हैं। हममें से कुछ को कुप्पू भैया ने अपने घर बुलाया है। बाकी बच्चे देबू भैया और मीनू दीदी के घर गए हैं। कुल मिलाकर होंगे कोई तीस-चालीस बच्चे।”

सुनकर कुप्पू की मम्मी की आँखों में खुशी के दीये से जल गए। बोलीं, “सच कुप्पू, बड़ा अच्छा किया तूने कि इन्हें घर बुला लिया। इस बहाने सबसे मिलना हो गया। वरना मैं कैसे मिल पाती?”

“हाँ मम्मी, हम लोग तो इनकी कॉलोनी में जाते ही हैं हर बार। हमने सोचा कि ये लोग भी हमारे घर आएँ। और दीवाली पर आएँ तो कितना अच्छा हो।” कुप्पू बोला, “फिर मन में यह बात भी थी कि आपको इस दीवाली पर कुछ सरप्राइज दूँ। तो इसलिए…!”

“अरे पगले, तूने तो एक नई खुशी दे दी।” मम्मी गद्गद होकर बोलीं, “अच्छा, चलो, अब इन लोगों को नाश्ता कराती हूँ। फिर बातें होंगी।”

कुप्पू अंदर आ गया तो उसके साथ सत्ते, समरेश, चीना, पिंदी और भोला भी थे, ताकि अंदर से सारा सामान लाकर बाहर मेज पर सजा सकें। उन्होंने नीना दीदी के साथ मिलकर सारा सामान ला- लाकर मेज पर सजा दिया। मम्मी बोलीं, “अब तुम लोग बैठो। मैं सर्व करती हूँ।”

मम्मी ने प्लेटों में डालकर सबको पूरी-छोले दिए। फिर खुद सामने कुरसी पर बैठ गईं। वे देख रही थीं, किसी चीज की जरूरत हो तो अंदर से और ले आएँ। इस बीच वे कुप्पू के दोस्तों से बातें भी करती जा रही थीं।

बच्चे कुछ संकोच से खा रहे थे। इस पर मम्मी हँसकर बोलीं, “अरे, इस तरह खाओगे, तब तो खाते-खाते सुबह से शाम हो जाएगी। ये चीजें तुम्हारे लिए ही बनाई हैं मैंने। जब तक तुम लोग खा नहीं लोगे, यहाँ से जाने की छुट्टी नहीं मिलने वाली।”

“और क्या, बड़ी सख्त हैड मास्टरनी हैं मेरी मम्मी!” कुप्पू ने डरने की एक्टिंग की।

इस पर सब हँसने लगे। रजनी बोली, “अगर हैड मास्टरनी हैं, तब तो किसी दिन हमें पढ़ाने आओ कुप्पू भैया तो आंटी को भी जरूर ले आना। आंटी आएँगी तो हम लोग सारी चीजें झटपट सीख लेंगे।”

“मेरी मम्मी कहानियाँ बहुत अच्छी सुनाती हैं।” कुप्पू बोला, “बचपन में इतनी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाई थीं कि अभी तक नहीं भूल पाया। इन्हीं में एक थी बिल्लीपुर की महारानी। … ओह, क्या जबरदस्त कहानी थी! और फिर सात बौने और राजकुमारी वाली कहानी, नन्ही खरगोशनी और सरकंडे की साइकिल वाली कहानी… हाथी और पिद्दी वाली कहानी । ऐसी एक से एक बढ़िया कहानियाँ कि सुनते रहो, बस सुनते ही रहो। मन भरता ही नहीं।”

सत्ते उछल पड़ा, “वाह, फिर तो हम आज कहानी सुनकर ही जाएँगे।” मम्मी ने मुसकराते हुए कहा, “तुम लोग आए हो आज पहली बार और मुझे लग रहा है कि मैं जाने कब से तुम लोगों को जानती हूँ। यह भी तो एक कमाल की कहानी है न!” फिर बोलीं, “मैं आऊँगी, पक्का वादा। तुम लोग इतने अच्छे बच्चे हो कि तुम्हें पढ़ाकर खुद मुझे भी अच्छा लगेगा। साथ ही तुम्हारी ड्राइंग भी देखूँगी, तुम्हें नई-नई कहानियाँ भी सुनाऊँगी।”

सबने छोले-पूरी खत्म कर लिए तो नीना दीदी ने सबको प्लेट में दो-दो गुलाब जामुन डालकर दिए। सब लोग खा रहे थे, तभी कुप्पू ने बताया, “ये गुलाब जामुन मम्मी और नीना दीदी ने घर पर बनाए हैं।”

“तब तो मैं एक और खाऊँगा!” भोला ने फरमाइश की। वह अब तक पहले वाले दोनों गुलाबजामुन चट कर चुका था। नीना दीदी ने हँसते हुए एक और गुलाबजामुन उसकी ओर बढ़ाया तो भोला ने उसे पूरा का पूरा मुँह में लपक लिया। फिर गोलगप्पे जैसा मुँह बनाकर हँसते हुए बोला, “ये उन दोनों से ज्यादा मीठा था…!”

*

नीना दीदी देख रही थीं, कितने खिले खिले चेहरे, कितनी खुशी है इनकी आँखों में। बोलीं, “सच्ची कुप्पू, तेरे दोस्त आए तो लग रहा है आज सच्ची दीवाली मनाई।”

जब सब लोग चलने लगे, मम्मी का मन उदास था। बोलीं, “लग रहा है, तुम लोग और थोड़ी देर बैठते।”

“हम फिर आएँगे, आंटी…!” सारे बच्चे एक साथ बोले।

“ठीक है, और खाली तुम ही नहीं, मैं भी आऊँगी। तुम्हारे मम्मी-पापा से भी मिलूँगी। तुम लोग इतने लायक हो तो तुम्हारे मम्मी- पापा भी जरूर अच्छे होंगे!”

“आंटी, आप आएँगी तो बड़ा मजा आएगा। मैं अपनी मम्मी और ममता दीदी को भी ले आऊँगा, आपसे मिलवाने के लिए।” समरेश बोला।

“और हाँ, मैं आऊँगी तो खूब सारी कहानियाँ भी सुनाऊँगी। ठीक है ना?” कुप्पू की मम्मी हँसकर बोलीं, “वो कुप्पू कौन सी कहानी कह रहा था? … हाँ, बिल्लीपुर की महारानी! वह भी सुनाऊँगी।”

कुप्पू अपने दोस्तों को बाहर छोड़ने के लिए जाने वाला था, तब तक नंदू भैया आ गए। उनके हाथ में अभी हाल ही में तैयार हुआ उनका कंदील झूल रहा था। चम चम करता रंग-बिरंगा हवाई जहाज…! मानो सपनों की दुनिया में ले जाने को तैयार हो। हँसते हुए बोले, “अरे, तुम लोग कहाँ चले? आओ बैठो सब लोग इस हवाई जहाज में। यह तुम्हें घर छोड़ आएगा। ‘सुनकर सब हँसने लगे।”

कुप्पू बोला, “नंदू भैया को कंदील बनाने का शौक है। हर साल खुद अपने हाथ से बनाते हैं। कल से इसकी तैयारी में लगे थे। आज ही पूरा हुआ है।”

सब उत्सुकता से देखने लगे। चीना बोली, “अरे, इसमें तो दीया रखने की भी जगह है।”

नंदू भैया बोले, “और क्या…! दीया न रखा जाए तो कंदील कैसा? पर तुमने देखा नहीं, इसमें दीये के चारों ओर एक परकोटा भी है, ताकि तेज हवा में दीया बुझे नहीं।”

सब चकित होकर बोले, “वाह भैया, बड़ा अच्छा है यह कंदील तो…!”

नंदू भैया हँसकर बोले, “तो फिर पकड़ो इसे। मेरी ओर से तुम लोगों को दीवाली का उपहार! कोई अच्छी जगह देखकर टाँग देना। ठीक है ना?”

“पर…नंदू भैया, यह तो आपने अपने लिए बनाया है न!” सत्ते ने हिचकिचाते हुए कहा।

नंदू भैया हँस पड़े, “देखो भाई, यह तो सपनों का कंदील है। इस बार यहाँ नहीं, वहाँ झिलमिल करेगा। पर जहाँ भी यह रहे, प्रकाश तो फैलाएगा ही।” फिर बोले, “मैं अंदर बैठा तुम्हारी बातें सुन रहा था। तुम लोग इतने प्यारे बच्चे हो और आज दीवाली के दिन आए हो, तो दीवाली का कोई उपहार तो तुम्हें मिलना ही चाहिए ना!”

सुनते ही सब बच्चों की आँखों में ऐसी अनोखी चमक आई कि देखकर नंदू भैया निहाल हो गए। बोले, “तुम लोगों को भी अच्छा लगा मेरा कंदील, तो इसका मतलब मैं पास हो गया।”

चीना हँसकर बोली, “नंदू भैया, पास ही नहीं, फर्स्ट क्लास फर्स्ट…!” सुनकर नंदू भैया बाग-बाग। उन्होंने चीना को एक मीठी चपत लगाना जरूरी समझा।

कुछ देर में कुप्पू के साथ उसकी टोली भी मम्मी, नीना दीदी और नंदू भैया से विदा लेकर जा रही थी, तो सबके चेहरे पर एक उत्फुल्ल हँसी थी। और सबसे आगे-आगे था समरेश, जिसने हाथों में बड़ी सावधानी से कंदील की डोरी को पकड़ा हुआ था।

कुप्पू की मम्मी अब भी एकटक उधर ही देखे जा रही थीं। धीरे से बोलीं, “छोटा सा है कुप्पू, पर कितना समझदार…! दीवाली तो हर बार आती है, पर इस बार की दीवाली उसने यादगार बना दी।” और उन नन्हे-मुन्नों की कलाकृतियों को सहेजने लगीं, जिनमें उनके प्यारे चेहरों की हँसी छलछला रही थी।

नीना दीदी ने घोषित कर दिया कि आज वे कुछ अलग ही रंगोली बनाएँगी। इसका शीर्षक भी उन्होंने सोच लिया था, ‘दीवाली के मेहमान’। उस रंगोली में बीचोबीच एक बड़ा सा झिलमिलाता दीया होगा और चारों ओर चाँद जैसे हँसते-मुसकराते, भोले-भाले बच्चे।

और शाम तक उनकी वह रंगोली तैयार भी हो गई। कुप्पू और उसकी मम्मी ने देखा, नीना दीदी की रंगोली में हू-ब-हू वही बच्चे झाँक रहे थे, जो आज सुबह आए थे।… और आश्चर्य, उन बच्चों के चेहरों पर भी दीवाली के दीयों जैसी उजास थी

ये कहानी ‘इक्कीसवीं सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं 21vi Sadi ki Shreshtha Baal Kahaniyan (21वी सदी की श्रेष्ठ बाल कहानियां)