do saakhiyaan by Munshi Premchand
do saakhiyaan by Munshi Premchand

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गोरखपुर 1-9-25

प्यारी पद्मा,

तुम्हारा पत्र पढ़कर चित्त को बड़ी शांति मिली। तुम्हारे न आने से ही मैं समझ गई थी कि विनोद बाबू तुम्हें हर ले गए, मगर यह न समझी थी कि तुम मंसूरी पहुंच गयीं। अब उस आमोद-प्रमोद में भला, गरीब चंदा तुम्हें क्यों याद आने लगी अब मेरी समझ में आ रहा है कि विवाह के नए और पुराने आदर्श में क्या अंतर है। तुमने अपनी पसंद से काम लिया, सुखी हो। मैं लोक-लाज की दासी बनी रही, नसीब को रो रही हूँ।

अच्छा, अब मेरी बीती सुनो । दान-दहेज के टंटे से तो कुछ मतलब नहीं। पिताजी जे बड़ा ही उदार-हृदय पाया है। खूब दिल खोलकर दिया होगा। मगर द्वार पर बारात आते ही मेरी अग्नि-परीक्षा शुरू हो गई? कितनी उत्कंठा थी वर- दर्शन की, पर देखूँ कैसे! कुल की नाक न कट जाएगी। द्वार पर बारात आई। सारा जमाना वर को घेरे हुए था। मैंने सोचा, छत पर से देखूँ। छत पर गई, पर वहाँ से भी कुछ न दिखाई दिया। हां, इस अपराध के लिए अम्मा जी की घुड़कियां सुननी पड़ी। मेरी जो बात इन लोगों को अच्छी नहीं लगती, उसका दोष शिक्षा के माथे मढ़ा जाता है। पिताजी बेचारे मेरे साथ बड़ी सहानुभूति रखते हैं। मगर किस-किस का मुँह पकड़े। द्वार-चार तो यों गुजरा और भांवरों की तैयारियाँ होने लगीं। जनवासे से गहनों और कपड़ों का थाल आया। बहन, सारा घर-स्त्री-पुरुष- सब उस पर कुछ इस तरह टूट पड़े, मानो उन लोगों ने कभी कुछ ऐसा देखा नहीं। कोई कहता है, कंठा तो लाये ही नहीं, मानो मैं डुबा दी गई। वर-पक्ष वालों की दिल खोलकर निंदा होने लगी। मगर मैंने गहनों, कपड़ों की तरफ आंख उठाकर भी नहीं देखा। हां, जब वर के विषय में कोई बात करता था, तो तन्मय होकर सुनने लगती थी। मालूम हुआ, दुबले-पतले आदमी हैं। रंग साँवला है, आँखें बड़ी-बड़ी हैं, हँसमुख हैं। इन सूचना से दर्शनोत्कंठा और भी प्रबल होती थी। भाँवरों का मुहूर्त ज्यों- ज्यों समीप आता था, मेरा चित्त व्यग्र होता जाता था। अब तक यद्यपि मैंने उनकी झलक भी न देखी थी, पर मुझे उनके प्रति एक अभूतपूर्व प्रेम का अनुभव हो रहा था। इस वक्त यदि मुझे मालूम हो जाता कि उनके दुश्मनों को कुछ हो गया है तो मैं बावली हो जाती। अभी तक मेरा उनसे साक्षात नहीं हुआ है, मैंने उनकी बोली तक नहीं सुनी है, लेकिन संसार का सबसे रूपवान पुरुष भी, मेरे चित्त को आकर्षित नहीं कर सकता। अब यही मेरे सर्वस्व हैं।

आधी रात के बाद भांवरें हुई। सामने हवन-कुंड था, दोनों ओर विप्रगण बैठे हुए थे, दीपक जल रहा था। कुल-देवता की मूर्ति रखी हुई थी। वेद- मंत्र का पाठ हो रहा था। उस समय मुझे ऐसा मालूम हुआ कि सचमुच देवता विराजमान हैं। अग्नि, वायु, दीपक, नक्षत्र-सभी मुझे उस समय देवत्व की ज्योति से प्रदीप्त जान पड़ते थे। मुझे पहली बार आध्यात्मिक विकास का परिचय मिला। मैंने जब-अग्नि के सामने मस्तक झुकाया, तो यह कोई रस्म की पाबंदी न थी, मैं अग्निदेव को अपने सम्मुख मूर्तिमान, स्वर्गीय आभा से तेजोमय देख रही थी। आखिर भाँवरें भी समाप्त हो गई, पर पतिदेव के दर्शन न हुए।

अब अंतिम आशा यह थी कि प्रातःकाल जब पतिदेव कलेवा के लिए बुलाए जाएँगे, उस समय देखूँगी। तब उनके सिर पर मौर न होगा, सखियों के साथ मैं भी जा बैठूंगी और खूब जी भरकर देखूंगी। पर क्या मालूम था कि विधि कुछ और ही कुचक्र रच रही है। प्रातःकाल देखती हूँ तो जनवासे के खेमे उखड़ रहे हैं। बात कुछ न थी। बारातियों के नाश्ते के लिए जो सामान भेजा गया था, वह काफी न था। शायद घी भी खराब था। मेरे पिताजी को तुम जानती ही हो। कभी किसी से दबे नहीं, जहाँ रहे शेर बनकर रहे। बोले- जाते हैं, तो जाने दो, मनाने की कोई जरूरत नहीं। कन्या-पक्ष का धर्म है बारातियों का सत्कार करना, लेकिन सत्कार का यह अर्थ नहीं कि धमकी और रोब से काम लिया जाय, मानो किसी अफसर का पड़ाव हो। अगर वह अपने लड़के की शादी कर सकते हैं, तो मैं भी अपनी लड़की की शादी कर सकता हूँ।

बरात चली गई और मैं पति के दर्शन न कर सकी। सारे शहर में हलचल मच गई। विरोधियों को हँसने का अवसर मिला। पिताजी ने बहुत सामान जमा किया था। वह सब खराब हो गया, घर में जिसे देखिए, मेरी ससुराल की निंदा कर रहा हैं- उजड्ड हैं, लोभी हैं। मुझे जरा भी बुरा नहीं लगता। लेकिन पति के विरुद्ध मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहती। एक दिन अम्मा जी बोलीं- लड़का भी बेसमझ है। दूध-पीता बच्चा नहीं, कानून पढ़ता है, मूंछ-दाढ़ी जम गई है। उसे अपने बाप को समझाना चाहिए था कि आप लोग क्या कर रहे हैं। मगर वह भी भीगी बिल्ली बना रहा। मैं सुनकर तिलमिला उठी। कुछ बोली तो नहीं.. पर अम्मा जी को मालूम जरूर हो गया कि इस विषय में मैं उनसे सहमत नहीं। मैं तुम्हीं से पूछती हूँ बहन, जैसी समस्या उठ यही हुई थी, उसमें उनका क्या धर्म था? अगर वह अपने पिता और अन्य सम्बन्धियों का कहना न मानते, तो उनका अपमान न होता? उस वक्त उन्होंने वही किया, जो उचित था। मगर मुझे विश्वास है कि जरा मामला ठंडा होने पर वह आएँगे। मैं अभी से उनकी राह देखले लगी हूँ। डाकिया चिट्ठियां लाता है, तो दिल में धड़कन होने लगती है-शायद उनका पत्र भी हो। जी में बार-बार आता है, क्यों न मैं ही एक खत लिखूँ मगर संकोच में पड़ कर रह जाती हूँ। शायद मैं कभी न लिख सकूंगी। मान नहीं है, केवल संकोच है। पर हां, अगर दस-पाँच दिन और उनका पत्र न आया, या वह खुद न आये, तो संकोच मान का रूप धारण कर लेगा।

क्या तुम उन्हें एक चिट्ठी नहीं लिख सकतीं? सब खेल बन जाए। क्या मेरी खातिर इतना भी न करोगी? मगर ईश्वर के लिए उस खत में कहीं यह न लिखना कि चंदा ने प्रेरणा की है। क्षमा करना, ऐसी भद्दी गलती की, तुम्हारी ओर से शंका करके मैं तुम्हारे साथ अन्याय कर रही हूँ, मगर मैं समझदार थी ही कब?

तुम्हारी,

चंदा

5

मंसूरी

20-9-25

प्यारी चंदा,

मैंने तुम्हारा खत पाने के दूसरे ही दिन काशी खत लिख दिया था। उसका जवाब भी मिल गया। शायद बाबूजी ने तुम्हें खत लिखा हो। कुछ पुराने खयाल के आदमी हैं। मेरी तो उनसे एक दिन भी न निभती। हां, तुमसे निभ जाएगी। यदि मेरे पति ने मेरे साथ यह बर्ताव किया होता-अकारण मुझसे रूठे होते-मैं जिंदगी भर उनकी सूरत न देखती। अगर कभी आते भी तो कुत्तों की तरह दुत्कार देती। पुरुष पर सबसे बड़ा अधिकार उसकी स्त्री का है। माता-पिता को खुश रखने के लिए वह स्त्री का तिरस्कार नहीं कर सकता। तुम्हारे ससुराल वालों ने बड़ा घृणित व्यवहार किया। पुराने खयाल वालों का गजब का कलेजा है, जो ऐसी बातें सहते हैं। देखो न, उस प्रथा का फल, जिसकी तारीफ करते तुम्हारी जबान नहीं थकती। वह दीवार सड़ गई है। टीपटाप करने से काम न चलेगा। उसी जगह नए सिरे से दीवार बनाने की जरूरत है।

अच्छा, अब कुछ मेरी भी कथा सुन लो। मुझे ऐसा संदेह हो रहा है कि विनोद ने मेरे साथ दगा की है। इनकी आर्थिक दशा वैसी नहीं, जैसी मैंने समझी थी। केवल मुझे ठगने के लिए इन्होंने सारा स्वाँग भरा था। मोटर माँगे की थी, बँगले का किराया अभी तक नहीं दिया गया, फर्नीचर किराए के थे। यह सच हे कि उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से मुझे धोखा नहीं दिया। कभी अपनी दौलत की डींग नहीं हांकी, लेकिन ऐसा रहन-सहन बना लेना, जिससे दूसरों को अनुमान हो कि वह कोई बड़े धनी आदमी हैं, एक प्रकार का धोखा ही है। यह स्वाँग इसलिए भरा गया था कि कोई शिकार फंस जाए।

अब देखती हूँ कि विनोद मुझसे अपनी असली हालत को छिपाने का कितना प्रयत्न किया करते हैं। अपने खत मुझे नहीं देखने देते। कोई मिलने आता हैं, तो वह चौंक पड़ते हैं और घबराई हुई आवाज में बैरा से पूछते हैं, कौन हैं? तुम जानती हो, मैं धन की लौंडी नहीं। मैं केवल विशुद्ध हृदय चाहती हूँ। जिसमें पुरुषार्थ है, प्रतिभा है, वह आज नहीं तो कल अवश्य ही धनवान होकर रहेगा। मैं इस कपट-लीला से जलती हूँ। अगर विनोद अपनी कठिनाइयां कह दें, तो मैं उनके साथ सहानुभूति करूंगी, उन कठिनाइयों को दूर करने में उनकी मदद करूंगी। यों मुझसे परदा करके वह मेरी सहानुभूति और सहयोग ही से हाथ नहीं धोते, मेरे मन में अविश्वास, द्वेष और क्षोभ का बीज बोते हैं। यह चिंता मुझे मारे डालती है। अगर इन्होंने अपनी दशा साफ-साफ बता दी होती, तो मैं यहाँ मंसूरी आती ही क्यों? लखनऊ में ऐसी गरमी नहीं पड़ती कि आदमी पागल हो जाए। यह हजारों रुपये पर क्यों पानी पड़ता? सबसे कठिन समस्या जीविका की है। कई विद्यालयों में आवेदन-पत्र भेज रखे हैं। जवाब का इंतजार कर रहे हैं। शायद इस महीने के अंत तक कहीं जगह मिल जाए। पहले तीन-चार सौ मिलेंगे। समझ में कहीं आता, कैसे काम चलेगा। 150 रुपये तो पापा मेरे कॉलेज का खर्च देते थे। अगर दस- पाँच महीने जगह न मिली तो क्या करेंगे, यह फिक्र और भी खाए डालती है। मुश्किल यही है कि विनोद मुझसे परदा रखते हैं। अगर हम दोनों बैठकर परामर्श कर लेते, तो सारी गुत्थियाँ सुलझ जातीं। मगर शायद यह मुझे इस योग्य नहीं समझते। शायद, इनका खयाल है कि मैं केवल रेशमी गुड़िया हूं। जिसे भांति- भांति के आभूषणों, सुगंध, और रेशमी वस्त्रों से सजाना ही काफी है। थियेटर में कोई नया तमाशा है, तो दौड़े हुए आकर मुझे खबर देते हैं। कहीं कोई जलसा हो, कोई खेल हो, कहीं सैर करना हो, उसकी शुभ सूचना मुझे अविलम्ब दी जाती है, और बड़ी प्रसन्नता के साथ, मानो मेरे हृदय में गंभीर अंश है ही नहीं। यह मेरा अपमान है, घोर अपमान, जिसे मैं अब नहीं सह सकती। मैं अपने संपूर्ण अधिकार लेकर ही संतुष्ट हो सकती हूँ। बस, इस वक्त इतना ही। बाकी फिर। अपने यहाँ का हाल-चाल विस्तार से लिखना। मुझे अपने लिए जितनी चिंता है, उससे कम तुम्हारे लिए नहीं है। देखो, हम दोनों के डोंगे कहां लगते हैं। तुम अपनी स्वदेशी, पाँच हजार वर्षों की पुरानी जर्जर नौका पर बैठी हो, मैं नए द्रुतगामी मोटर-वोट पर। अवसर, विज्ञान और उद्योग मेरे साथ हैं। लेकिन कोई दैवीय विपत्ति आ जाए, तब भी इसी मोटर-बोट पर डूबूं। साल में लाखों आदमी रेल की टक्करों से मर जाते हैं, पर कोई बैलगाड़ी पर यात्रा नहीं करता। रेलों का विस्तार बढ़ता ही जाता है। बस।

तुम्हारी,

पद्मा

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गोरखपुर

25-9-25

प्यारी पद्मा,

तुम्हारा खत मिला, आज जवाब लिख रही हूँ। एक तुम हो कि महीनों रटाती हो। इस विषय में तुम्हें मुझसे उपदेश लेना चाहिए। विनोद बाबू पर तुम व्यर्थ ही आरोप लगा रही हो। तुमने क्यों पहले ही उनकी आर्थिक दशा की जांच-पड़ताल नहीं की? बस, एक सुंदर, रसिक, वाणी-मधुर युवक को देखकर फूल उठी। अब भी तुम्हारा ही दोष है। तुम अपने व्यवहार से, रहन-सहज से सिद्ध कर दो कि तुममें गंभीर अंश भी हैं, फिर देखूँ कि विनोद बाबू कैसे तुमसे परदा रखते हैं। और वहम, वह तो मानवीय स्वभाव है। सभी चाहते हैं कि लोग हमें संपन्न समझें। इस स्वांग को अंत तक निभाने की चेष्टा की जाती है और जो इस काम में सफल हो जाता है, उसी का जीवन सफल समझा जाता है। जिस युग में धन ही सर्वप्रधान हो, मर्यादा, कीर्ति, यश-यहाँ तक कि विद्या भी धन से खरीदी जा सके, उस युग में स्वाँग भरना एक लाजिमी बात हो जाती है। अधिकार योग्यता का मुँह ताकते हैं। यही समझ लो कि इन दोनों में फल और फूल का सम्बन्ध है। योग्यता का फूल लगा, और अधिकार का फल आया।

इस ज्ञानोपदेश के बाद अब तुम्हें हार्दिक धन्यवाद देती हूँ। तुमने पतिदेव के नाम जो पत्र लिखा था, उसका बहुत अच्छा असर हुआ। उसके पाँचवें ही दिन स्वामी का कृपा-पत्र मुझे मिला। बहन, वह खत पाकर मुझे कितनी खुशी हुई, इसका तुम अनुमान कर सकती हो। मालूम होता था, अंधे को आँखें मिल गई हैं। कभी कोठे पर जाती थी, कभी नीचे आती थी। सारे घर में खलबली मच गई। तुम्हें वह पत्र अत्यन्त निराशाजनक जान पड़ता, मेरे लिए वह संजीवनी-मंत्र था, आशा-दीपक था। प्राणेश ने बारातियों की उद्दण्डता पर खेद प्रकट किया था, पर बड़ों के सामने वह जबान कैसे खोल सकते थे। फिर जनातियों ने भी, बारातियों का जैसा आदर-सत्कार करना चाहिए था, वैसा नहीं किया। अंत में लिखा था- ‘ प्रिय, तुम्हारे दर्शनों की कितनी उत्कंठा है, मैं लिख नहीं सकता। तुम्हारी कल्पित मूर्ति नित आँखों के सामने रहती है। पर कुल-मर्यादा का पालन करना मेरा कर्तव्य है। जब तक माता-पिता का रुख न पाऊं, आ नहीं सकता। तुम्हारे वियोग में चाहे प्राण ही निकल जाएं, पर पिता की इच्छा की उपेक्षा नहीं कर सकता। हां, एक बात का दृढ़ निश्चय कर चुका हैं- चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाए, कपूत कहलाऊं, पिता के कोप का भागी बनूं, घर छोड़ना पड़े, पर अपनी दूसरी शादी न करूंगा। मगर जहाँ तक मैं समझता हूं मामला इतना न खींचेगा। ये लोग थोड़े दिनों में नर्म पड़ जाएँगे और तब मैं आऊंगा। और अपनी हृदयेश्वरी को आँखों पर बिठाकर लाऊंगा।’

बस, अब मैं संतुष्ट हूँ बहन। मुझे और कुछ न चाहिए। स्वामी मुझ पर इतनी कृपा रखते है, इससे अधिक और वह क्या कर सकते हैं। प्रियतम, तुम्हारी चंदा सदा तुम्हारी रहेगी, तुम्हारी- इच्छा ही उसका कर्तव्य है। वह जब तक जिएगी, तुम्हारे पवित्र चरणों से लगी रहेगी। उसे विसारना मत।

बहन, आंखों में आँसू भर जाते हैं, अब नहीं लिखा जाता, जवाब जल्दी देना।

तुम्हारी,

चंदा