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दिल्ली,
15-12-85
प्यारी बहन
तुमसे बार-बार क्षमा माँगती हूँ, पैरों पड़ती हूँ। मेरे पत्र न लिखने का कारण आलस्य न था, सैर-सपाटे की धुन न थी। रोज सोचती थी कि आज लिखूंगी, पर कोई-न-कोई ऐसा काम आ पड़ता था, ऐसी कोई बात हो जाती थी, कोई ऐसी बाधा आ खड़ी होती थी कि चित्त अशांत हो जाता था और मुँह लपेटकर पड़ रहती थी। तुम मुझे अब देखो तो शायद पहचान भी न सको।
मंसूरी से दिल्ली आये एक महीना हो गया। यहाँ विनोद को तीन सौ रुपये की एक जगह मिल गई है। यह सारा महीना बाजार की खाक छानने में कटा। विनोद ने पूरी स्वाधीनता दे रखी है। मैं जो चाहूँ करूँ, उनसे कोई मतलब नहीं। यह मेहमान हैं। गृहस्थी का सारा बोझ मुझ पर डालकर वह निश्चित हो गए हैं।. ऐसा बेफिक्र मैंने आदमी ही नहीं देखा। हाजिरी की परवाह है, न डिनर की, बुलाया तो आ गए, नहीं तो बैठे हैं। नौकरों से कुछ बोलने की तो मानो इन्होंने कसम ही खा ली है। उन्हें डांटू तो मैं, रखूँ तो मैं, निकालू तो मैं, उनसे कोई मतलब नहीं। मैं चाहती हूँ वह मेरे प्रबंध की आलोचना करें, ऐब निकाले। मैं चाहती हूँ जब मैं बाजार से कोई चीज लाऊँ, तो वह बतायें कि मैं लूट गयी या जीत आयी। मैं चाहती हूं महीने के खर्च का बजट बनाते समय मेरे और उनके बीच में अच्छी बहस हो, पर इन अरमानों में से एक भी पूरा नहीं होता। मैं नहीं समझती, इस तरह कोई स्त्री कहाँ तक गृह-प्रबंध में सफल हो सकती है। विनोद के इस सम्पूर्ण आत्मसमर्पण ने मेरी निज की जरूरतों के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रखी । अपने शौक की बीच खुद खरीदकर लाते बुरा मालूम होता है, कम- से-कम मुझसे नहीं हो सकता। मैं जानती हूँ मैं अपने लिए कोई चीज लाई, तो वह नाराज न होंगे। नहीं, मुझे विश्वास है, खुश होंगे, लेकिन मेरा जी चाहता है, मेरे शौक-सिंगार की चीज वह लाकर दें। उनसे लेने में जो आनन्द है, वह खुद जाकर लाने में नहीं। पिताजी अब भी मुझे 100 रुपये महीना देते हैं और उन रुपयों को मैं अपनी जरूरतों पर खर्च कर सकती हूँ। पर न जाने क्यों, मुझे भय होता है कि कहीं विनोद समझें, में उनके रुपये खर्च किए डालती हूं। जो आदमी किसी बात पर नाराज नहीं हो सकता, वह किसी बात पर खुश भी नहीं हो सकता। मेरी समझ ही में नहीं आता, वह किस बात से खुश और किस बात से नाराज होते हैं। बस, मेरी दशा उस आदमी की-सी है, जो बिना रास्ता जाने इधर-उधर भटकता फिरे। तुम्हें याद होगा, हम दोनों गणित का प्रश्न लगाने के बाद कितनी उत्सुकता से उसका जबाब देखती थी। जब हमारा जवाब किताब से जबाब से मिल जाता था, तो हमें कितना हार्दिक आनन्द मिलता था। मेहनत सफल हुई, इसका विश्वास हो जाता था। जिन गणित की पुस्तकों में प्रश्नों के उत्तर न लिखे होते थे, उनके प्रश्न हल करने की हमारी इच्छा ही न होती थी। सोचते थे, मेहनत अकारथ जाएगी। मैं रोज प्रश्न हल करती हूं पर नहीं जानती कि जवाब ठीक लिखा या गलत। सोचो, मेरे चित की क्या दशा होगी।
एक सप्ताह होता है, लखनऊ की मिस रिंग से भेंट हो गयी। वह लेडी डॉक्टर हैं और मेरे घर बहुत आती-जाती हैं। किसी का सिर भी धमका और मिस रिंग बुलायी हैं। पापा जब मेडीकल कॉलेज में प्रोफेसर थे, तो- उन्होंने इन मिस रिंग को पढ़ाया था। उसका एहसान वह अब तक मानती हैं। यहाँ उन्हें देखकर भोजन का निमंत्रण न देना अशिष्टता की हद होती। मिस रिंग ने मंजूर कर ली। उस दिन मुझे कितनी कठिनाई हुई है, वह बयान नहीं कर सकती। मैंने कभी अंग्रेजों के साथ कभी टेबुल पर नहीं खाया। उनके भोजन के क्या शिष्टाचार हैं, इसका मुझे बिलकुल ज्ञान नहीं। मैंने समझा था, विनोद मुझे सारी बातें बता देंगे। वह बरसों अंग्रेजों के साथ इंग्लैंड रह चुके हैं। मैंने उन्हें मिस रिंग के आने की सूचना भी दे दी, पर उस भले आदमी ने मानो सुना ही नहीं। मैंने भी निश्चय किया, मैं तुमसे कुछ न पूछूंगी, यही न होगा कि मिस रिंग हँसेंगी बला से। अपने ऊपर बार-बार झुंझलाती थी कि कहाँ से जिस रिंग को बुला बैठी। पड़ोस के बँगलों में कई हमीं जैसे परिवार रहते हैं। उनसे सलाह ले सकती थी। पर यही संकोच होता था कि ये लोग मुझे गंवारिन समझेंगे। अपनी इस विवशता पर थोड़ी देर तक आंसू भी बहाती रही। आखिर निराश होकर अपनी बुद्धि से काम लिया। दूसरे दिन मिस रिंग आयी। हम दोनों भी मेज़ पर बैठे। दावत शुरू हुई। मैं देखती थी कि विनोद बार-बार झेंपते थे और मिस रिंग बार-बार नाक सिकोड़ती थी, जिससे प्रकट हो रहा था कि शिष्टाचार की मर्यादा भंग हो रही है। मैं शर्म के मारे मरी जाती थी। खैर, किसी भांति विपत्ति सिर से टली। तब मैंने कान पकड़े कि अब किसी अंग्रेज की दावत न करूंगी। उस दिन से देख रही हूँ विनोद मुझसे कुछ खिंचे हुए हैं। मैं भी नहीं बोल रही हूँ। वह शायद समझते हैं कि मैंने उनकी भद करा दी। मैं समझ रही हूँ कि उन्होंने मुझे लज्जित किया। सच कहती हूँ चंदा, गृहस्थी के इन झंझटों से अब किसी से हँसने-बोलने का अवसर नहीं मिलता। इधर महीनों से कोई पुस्तक नहीं पढ़ सकी। विनोद की विनोद-शीलता भी न जाने कहीं चली गई। अब वह सिनेमा या थियेटर का नाम भी नहीं लेते। हां, मैं चलूँ तो वह तैयार हो जाएंगे। मैं चाहती हूँ प्रस्ताव उनकी ओर से हो, मैं केवल उसका अनुमोदन करूँ। शायद अब यह पहले की आदतें छोड़ रहे हैं। मैं तपस्या का संकल्प उनके मुख पर अंकित पाती हूँ। जान पड़ता है, अपने में गृह-संचालन की शक्ति न पाकर उन्होंने सारा भार मुझ पर डाल दिया है। मंसूरी में यह घर के संचालक थे। दो-ढाई महीने में 15 सौ खर्च किए। कहां से लाये, यह मैं अब तक नहीं जानती। पास तो शायद ही कुछ रहा हो। संभव है, किसी मित्र से ले लिये हों। 300 रु. महीने की आमदनी में थियेटर और सिनेमा का जिक्र ही क्या। 50 रु. तो मकान ही के निकल जाते हैं। मैं इस जंजाल से तंग आ गई हूँ। जी चाहता है, विनोद से कह दूँ कि मेरे चलाए यह ठेला न चलेगा। आप दो-ढाई घंटा यूनिवर्सिटी में काम करके दिन भर चैन करें, खूब टेनिस खेलें, खूब उपन्यास पढ़ें, खूब सोएँ और मैं सुबह से आधी रात तक घर के झंझटों में मरा करूँ। कई बार छेड़ने का इरादा किया, दिल में ठान कर उनके पास गई भी, लेकिन उनका सामीप्य मेरे सारे संयम, सारी ग्लानि, सारी विरक्ति को हर लेता है। उनका विकसित मुख-मंडल, उनके अनुरक्त नेत्र, उनके कोमल शब्द मुझ पुर मोहिनी मंत्र-सा डाल देते हैं। उनके एक आलिंगन में मेरी सारी वेदना विलीन हो जाती है। बहुत अच्छा होता, अगर वह इतने रूपवान, इतने मधुरभाषी, इतने सौम्य न होते। तब कदाचित मैं उनसे झगड़ बैठती, अपनी कठिनाइयां कह सकती। इस दशा में तो इन्होंने मुझे जैसे भेड़ बना लिया है। मगर इस माया को तोड़ने का मौका तलाश कर रही हूं। एक तरह से मैं अपना आत्मसम्मान खो बैठी हूं। मैं क्यों हर एक बात में किसी की अप्रसन्नता से डरती रहती हूं। मुझमें क्यों नहीं वह भाव आता कि जो कुछ मैं कह रही हूँ वह ठीक है। मैं इतनी मुखापेक्षा क्यों करती हूं? इस मनोवृत्ति पर मुझे विजय पाना है, चाहे जो कुछ हो। अब इस वक्त विदा होती हूँ। अपने यहाँ के समाचार लिखना, जी लगा है।
तुम्हारी,
पद्मा
8
काशी,
25-12-25
प्यारी पद्मा,
तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे कुछ दुःख हुआ, हँसी आयी, कुछ क्रोध आया। तुम क्या चाहती हो, यह तुम्हें खुद नहीं मालूम। तुमने आदर्श पति पाया है, व्यर्थ की शंकाओं से मन को अशांत न करो। तुम स्वाधीनता चाहती थी, वह तुम्हें मिल गई। दो आदमियों के लिए 300 रु. कम नहीं होते। उस पर अभी तुम्हारे पापा भी 100 रु. दिये जाते हैं। अब और क्या चाहिए? मुझे भय होता है कि तुम्हारा चित्त कुछ अव्यवस्थित हो गया है। मेरे पास तुम्हारे लिए सहानुभूति का एक शब्द भी नहीं।
मैं 15 तारीख को काशी आ गई। स्वामी स्वयं मुझे बिदा कराने गये थे। घर से चलते समय बहुत रोयी। पहले मैं समझती थी कि लड़कियाँ झूठ-मूठ रोया करती हैं। फिर मेरे लिए तो माता-पिता का वियोग कोई नयी बात न थी। गर्मी, दशहरा और बड़े दिन की छुट्टियों के बाद छह साल से इस वियोग का अनुभव कर रही हूँ। कभी आंखों में आंसू न आते थे। सहेलियों से मिलने की खुशी होती थी। पर अबकी तो ऐसा जान पड़ता था कि कोई हृदय को खींचे लेता है। अम्मा के गले लिपट कर तो मैं इतना रोयी कि मुझे मूर्च्छा आ गई। पिताजी के पैरों पर लेटकर रोने की अभिलाषा मन ही में रह गई। हाय, वह रुदन का आनन्द! उस समय पिता के चरणों पर गिर कर रोने के लिए मैं अपने प्राण भी दे देती। यही रोना आता था कि मैंने उनके लिए कुछ न किया। मेरा पालन-पोषण करने में उन्होंने क्या कुछ कष्ट न उठाया।
मैं जन्म की रोगिणी हूँ। रोज ही बीमार रहती थी। अम्माजी रत-रात भर मुझे गोद में लिये बैठी रह जाती थीं। पिताजी के कंधों पर चढ़कर उचकने की याद अभी तक आती है। उन्होंने कभी मुझे कड़ी निगाह से नहीं देखा। मेरे सिर में दर्द हुआ और उनके हाथों के तोते उड़ जाते थे। 10 वर्ष की उम्र तक तो यों गये। छह साल देहरादून में गुजरे। अब, जब इस योग्य हुई कि उनकी कुछ सेवा करूँ, तो यों पर झाड़ कर अलग हो गई। कुल 8 महीने तक उनके चरणों की सेवा कर सकी और यही 8 महीने मेरे जीवन की निधि हैं। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरा जन्म इसी गोद में हो और फिर इसी अतुल पितृ-स्नेह का आनन्द भोगूं।
संध्या समय गाड़ी स्टेशन से चली। मैं जनाने कमरे में थी और लोग दूसरे कमरे में थे। उस वक्त सहसा मुझे स्वामीजी को देखने की प्रबल इच्छा हुई। सांत्वना, सहानुभूति और आश्रय के लिए हृदय व्याकुल हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था जैसे कोई कैदी काले पानी जा रहा हो।
घंटे भर के बाद गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी। मैं पीछे की ओर खिड़की से सिर निकालकर देखने लगी। उसी वक्त द्वार खुला और किसी ने कमरे में कदम रखा। उस कमरे में एक भी औरत न थी? चौंक कर पीछे देखा तो एक पुरुष। मैंने तुरंत मुँह छिपा लिया और बोली- आप कौन हैं? यह जनाना कमरा है। मरदाने कमरे में जाइए।
पुरुष ने खड़े-खड़े कहा-मैं तो इसी कमरे में बैठूंगा। मरदाने कमरे में भीड़ बहुत है।
मैंने रोष से कहा- नहीं, आप इसमें नहीं बैठ सकते।
‘मैं तो बैठूंगा।’
‘आपको निकलना पड़ेगा! आप अभी चले जाइए, नहीं तो मैं अभी जंजीर खींच दूंगी।’
‘अरे साहब, मैं भी आदमी हूँ कोई जानवर नहीं हूँ। इतनी जगह पड़ी हुई है। आपका इसमें क्या हर्ज है?’
‘गाड़ी ने सीटी दी। मैं और भी घबराकर बोली- आप निकलते हैं या मैं जंजीर खींचूं?’
पुरुष ने मुस्कराकर कहा- आप तो बड़ी गुस्सावर मालूम होती हैं। एक गरीब आदमी पर आपको जरा भी दया नहीं आती?’
गाड़ी चल पड़ी। मारे क्रोध और लज्जा के मुझे पसीना आ गया। मैंने फौरन द्बार खोल दिया और बोली- अच्छी बात है, आप बैठिए, मैं ही जाती हूँ।
बहन, मैं सच कहती हूँ मुझे उस वक्त लेश-मात्र भी भय न था। जानती थी, गिरते ही मर जाऊंगी, पर एक अजनबी के साथ अकेले बैठने से मर जाना अच्छा था। मैंने एक पैर लटकाया ही था कि उस पुरुष ने मेरी बाँह पकड़ ली और अंदर धकेलता हुआ बोला- अब तक तो आपने मुझे काले पानी भेजने का सामान कर दिया था। यहाँ और कोई तो है नहीं, फिर आप इतना क्यों घबराती हैं? बैठिए, जरा हंसिए बोलिए। अगले स्टेशन पर मैं उत्तर जाऊंगा, इतनी देर तक तो कृपा-कटाक्ष से वंचित न कीजिए। आपको देखकर दिल काबू से बाहर हुआ जाता है। क्यों एक गरीब का खून सिर पर लीजिएगा?…
मैंने झटक कर अपना हाथ छुड़ा लिया। सारी देह काँपने लगी। आंखों में आंसू भर आए। उस काल अगर मेरे पास कोई छुरी या कटार होती, तो मैंने जरूर उसे निकाल लिया होता, और मरने-मारने को तैयार हो गई होती। मगर इस दशा में क्रोध से ओठ चबाने के सिवा और क्या करती। आखिर झल्लाना व्यर्थ समझकर मैंने सावधान होने की चेष्टा करके कहा- आप कौन हैं? उसने उसी ढिठाई से कहा- तुम्हारे प्रेम का इच्छुक।
‘आप तो मजाक करते हैं। सच बतलाइए।’
‘सच बता रहा हूँ। तुम्हारा आशिक हूँ।’
‘अगर आप मेरे आशिक हैं, तो कम-से-कम इतनी बात मानिए कि अगले स्टेशन पर उतर जाइए। मुझे बदनाम करके आप कुछ न पाएँगे। मुझ पर इतनी दया कीजिए।’ मैंने हाथ जोड़कर यह बात कही। मेरा गला भी भर आया था। उस आदमी ने द्वार की ओर जाकर कहा- अगर आपका यही हुक्म है,’ तो लीजिए, जाता हूँ। याद रखिएगा।
उसने द्वार खोल लिया और एक पाँव आगे बढ़ाया। मुझे मालूम हुआ वह नीचे कूदने जा रहा है। बहन, नहीं कह सकती कि उस वक्त मेरे दिल की क्या दशा हुई। मैंने बिजली की तरह लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया ओर अच्छी तरफ जोर से खींच लिया।
उसने ग्लानि से भरे स्वर में कहा- क्यों खींच लिया? मैं तो चला जा रहा था।
‘अगला स्टेशन आने दीजिए।’
‘जब आप भगा रही हैं, तो जितनी जल्दी भाग जाऊँ, उतना ही अच्छा’, ‘मैं यह कब कहती हूँ कि आप चलती गाड़ी से कूद पड़े।’
‘अगर मुझ पर इतनी दया है, तो एक बार जरा दर्शन ही दे दो।’
‘अगर आपकी स्त्री से कोई दूसरा पुरुष ऐसी बातें करे, तो आपको कैसा लगती?’
पुरुष ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा- मैं उसका खून पी जाता।
मैंने निःसंकोच कहा- ‘तो फिर आपके साथ मेरे पति क्या व्यवहार करेंगे, यह भी आप समझते होंगे?’
‘तुम अपनी रक्षा आप ही कर सकती हो। प्रिय, तुम्हें पति की मदद की जरूरत ही नहीं। अब आओ, मेरे गले से लग जाओ। मैं ही तुम्हारा भाग्यशाली स्वामी और सेवक हूँ।’
मेरा हृदय उछल पड़ा। एक बार मुँह से निकला- ‘अरे! आप!’ और मैं पीछे हटकर खड़ी हो गई। एक हाथ लम्बा घूंघट खींच लिया। मुँह से एक शब्द न निकला। स्वामी ने कहा- अब यह शर्म और परदा कैसा?’
‘आप बड़े छलिया हैं। इतनी देर तक मुझे रुलाने में क्या मजा आया?’ स्वामी-इतनी देर में मैंने तुम्हें जितना पहचान लिया,. उतना घर के अंदर शायद बरसों में भी न पहचान सकता। यह अपराध क्षमा करो। क्या तुम सचमुच गाड़ी से कूद पड़तीं?
‘अवश्य! ‘
‘बढ़ी खैरियत हुई, मगर यह दिल्लगी बहुत दिनों तक याद रहेगी?
मेरे स्वामी औसत कद के, साँवले,चेचक रूप, दुबले आदमी हैं। उनसे कहीं रूपवान पुरुष देखे हैं; पर मेरा हृदय कितना उल्लसित हो रहा था! कितनी आनन्दमय संतुष्टि का अनुभव कर रही थी, मैं बयान नहीं सकती।
मैंने पूछा- गाड़ी कब तक पहुँचेगी?
शाम को पहुंच जाएंगे।
मैंने देखा, स्वामी का चेहरा कुछ उदास हो गाया है! वह दस मिनट तक चुपचाप बैठे बाहर की तरफ ताकने लगे। मैंने उन्हें केवल बातों में लगाने के लिए यह अनावश्यक प्रश्र पूछा था। पर अब भी जब वह न बोले , तो मैंने फिर न छेड़ा। पानदान खोलकर पान लगाने लगी। सहसा उन्होंने कहा- चंदा एक बात कहूँ!
मैंने कहा- हाँ-हां शौक से कहिए।
उन्होंने सिर झुकाकर शर्माते हुए कहा- मैं जानता कि तुम इतनी रूपवती हो, तो तुमसे विवाह न करता। अब तुम्हें देखकर मुझे मालूम हो रहा है कि मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया है। मैं किसी तरह तुम्हारे योग्य न था।
मैंने पान का बीड़ा देते हुए कहा- ऐसी बातें न कीजिए। आप जैसे हैं, मेरे सर्वस्व हैं। मैं आपकी दासी बनकर अपने भाग्य को धन्य मानती हूँ।
दूसरा स्टेशन आ गया। गाड़ी रुकी। स्वामी चले गए। जब-जब गाड़ी रुकती थी, वह आकर दो-चार बातें कर जाते थे। शाम को हम लोग बनारस पहुँच गए। मकान एक गली में है और मेरे घर से बहुत छोटा है। इन कई दिनों में यह भी मालूम हो रहा है कि सास जी स्वभाव की रूखी हैं। लेकिन अभी किसी के बारे में कुछ नहीं कह सकती। सम्भव है, मुझे भ्रम हो रहा हो। फिर लिखूंगी।
मुझे इसकी चिंता नहीं कि घर कैसा है, आर्थिक दशा कैसी है, सास-ससुर कैसे हैं? मेरी इच्छा है कि यहाँ सभी मुझसे खुश रहें । पतिदेव को मुझसे प्रेम है, यह मेरे लिए काफी है। मुझे और किसी बात की परवाह नहीं। तुम्हारे बहनोई जी का मेरे पास बार-बार आना सास जी को अच्छा नहीं लगता। वह समझती हैं, कहीं यह सिर न चढ़ जाए। क्यों मुझ पर उनकी यह अकृपा है, कह नहीं सकती, पर इतना जानती हूँ कि वह अगर इस बात से नाराज होती हैं, तो हमारे ही भले के लिए। वह ऐसी कोई बात क्यों करेंगी, जिससे हमारा हित न हो। अपनी संतान का अहित कोई माता नहीं कर सकती। मुझमें ही कोई बुराई उन्हें नजर आयी होगी। दो-चार दिन में आप मालूम हो जाएगा। अपने यहाँ के समाचार लिखना। जवाब की आशा एक महीने से पहले तो है नहीं, तुम्हारी खुशी।
तुम्हारी,
चंदा
