Neem ke Beez
Neem ke Beez

 Hindi Kahani: “रागिनी! पिताजी का फ़ोन आया है, मां का देहांत हो गया है। मैं घर आ रहा हूं, तुम भी घर पहुंचो! हमें अभी ही गांव चलना होगा।” -अभय ने रागिनी को फ़ोन करके कहा।
      “अभी!…अभी कैसे जा सकती हूं। थोड़ी ही देर बाद तो ऑफिस की एनवल मीटिंग है। इतने दिनों से इस मीटिंग की तैयारी कर रही हूं, यदि मीटिंग में नहीं रहूंगी तो बहुत बड़ा नुक़सान हो जायेगा। पता नहीं अगले वर्ष ये मौक़ा मिले या न मिले और फ़िर बच्चें भी अभी स्कूल गए हैं। उनकी भी छुट्टी करवाना। सब गड़बड़ हो जायेगी। ना बाबा ना! मैं तो नहीं जा सकती।” -रागिनी ने स्पष्ट कह दिया।
       “तो फ़िर ठीक है, तुम यहीं रहो! मैं अकेले ही गांव चला जाता हूं। वैसे भी इस सब्जेक्ट पर और ज़्यादा डिस्कस का टाईम नहीं है।” -अभय ने कहा और फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।
       अभय चार्टर्ड एकाउंटेड हैं। उनकी पत्नी रागिनी एक बड़ी कम्पनी में मैनेजर। अभय अपने माता-पिता की एकमात्र संतान है। वें पढ़ाई में बहुत होनहार रहे। उच्च शिक्षा के लिए माता-पिता ने उन्हें शहर भेज दिया। यहीं रहकर सी.ए. की पढ़ाई की। बहुत सी कंपनियों के लिए उन्हें काम करना होता। तभी उनका परिचय रागिनी से हुआ। परिचय, मुलाक़ातों में बदला और मुलाक़ात प्रेम में। उन्होंने विवाह कर लिया। अब दो बच्चें भी हैं। विवाह के बाद अभय क़भी भी अपने गांव नहीं गएं। हां…..अपने माता-पिता से फ़ोन पर बात अवश्य कर लिया करते थे।
       रागिनी ने तो क़भी अपने सास-ससुर से बात भी नहीं की। उसे अपने कैरियर और स्टेटस की चिंता हमेशा बनी रहती। कहीं ऐसा करने पर कैरियर पर कोई विपरीत असर न पड़ जाय। कहीं वैसा करने पर स्टेटस में कोई कमीं न हो जाय, रात-दिन उसे यही चिंता बनी रहती। अपने स्टेटस को बचाने के लिए वो कुछ भी कर सकती थी। कीमती गहनें पहनने का शौक़ तो उसे नहीं था लेकिन पुराना सोना रखना उसे बहुत पसंद था। वो अपने दोनों बच्चों के बाद, सोने को ही बहुत पसंद करती।


        अभय अपने ऑफिस से सीधे ही गांव चले गए। उनकी मां के अंतिम संस्कार की पूरी तैयारियां गांववालों ने पहले से ही कर दी थीं। सिर्फ़ अभय के आने का इंतज़ार किया जा रहा था। बहुत दिनों के बाद अभय अपने गांव लौटे थे। कुछ भी तो नहीं बदला था गांव में। वैसे ही ऊबड़-खाबड़ (ऊंचे-नीचे) रास्तें। पांढर मिट्टी से बने खपरैलवाले मकान। वही पाठशाला। हां!…इतना ज़रूर बदला था कि उनके आंगन में अब एक बड़ा सा नीम का पेड़ लहलहा रहा था। उसकी छाया ने आंगन का एक बड़ा हिस्सा घेर लिया था। उनके पहुंचते ही मां की अंतिम यात्रा प्रारंभ हुई। स्थानीय मुक्तिधाम पर मां का अंतिम संस्कार किया गया। रीति-रिवाज के अनुसार मुखाग्नि अभय ने दी थी।
         “अभी तुम्हें पंद्रह दिन गांव में ही रुकना होगा अभय! अंतिम संस्कार के बाद भी कुछ पूजा-पाठ और श्राद्ध कर्म होते हैं।” -पंडितजी ने अभय से कहा। अभय ने भी किसी आज्ञाकारी बालक की तरह सिर हिलाकर सहमति दे दी।
         अभय ने अपनी मां की आत्मशांति के लिए किए गए सभी श्राद्ध-पूजन भली-भांति किए। पन्द्रह दिन बीत गए। सोहलवें दिन जब उन्होंने वापस शहर जाने की बात की तो उनके पिताजी फफककर रो पड़े। अपनी पत्नी के जाने का उन्हें उतना दुःख नहीं हुआ जितना कि बेटे के शहर चले जाने का हो रहा था। पत्नी की मृत्यु के बाद वें अकेले पड़ चुकें थे। अभय इस बात को समझ गए। उन्होंने पिताजी को भी अपने साथ ले जाने का निर्णय लिया।
         अलसुबह अभय ने रागिनी को फ़ोन किया- “रागिनी! मैं पिताजी को लेकर आ रहा हूं। तुम नीचे वाले कमरे को व्यवस्थित करवाकर रखना! पिताजी अब वहीं रहेंगे।
          “क्या?…तुम पिताजी को यहां ला रहे हो! यहां कैसे रख पाएंगे हम उन्हें? नीचेवाला कमरा तो गेस्ट के लिए है। फ़िर मेरी ऑफिस से यदि कोई आते हैं तो उन्हें कहां बैठाएंगे?”
          “रागिनी कुछ दिनों की तो बात है। एक कमरा और बनवा लेंगे। जैसा कहा, वैसा ही करो! मैं पिताजी को गांव में अकेला तो नहीं छोड़ सकता हूं।” -अभय ने समझाते हुए कहा।
          “ठीक है जैसा तुम चाहो! लेकिन पिताजी के यहां आने से बहुत गड़बड़ी होगी।” -इतना कहकर रागिनी ने फ़ोन काट दिया।
           अगली सुबह रागिनी बालकनी में बैठी थी। उसने देखा धोती-कुर्ता और काले रंग की टोपी पहने एक बुज़ुर्ग अभय के साथ हैं। कार की डिक्की से एक जंग लगी संदूक उतारी जा रही है। रागिनी पहचान गई कि ये बुज़ुर्ग ही पिताजी (ससुरजी) हैं। वो बालकनी से ही देखती रही। दोनों बच्चें दौड़कर नीचे जा पहुंचे थे। अभय ने बच्चों को बताया कि ये उनके दादाजी हैं। बच्चें उनकी वेशभूषा को बड़े आश्चर्य से देख रहे थे।
          ससुरजी  से अधिक रूचि रागिनी को उस सन्दूक में हुई।
          “हो सकता है उसमे पुराना सोना हो!” -वो सोचती रही।
          दिन बीतते गए। अभय, रागिनी और बच्चें ऊपरवाले कक्षों में और ससुरजी नीचे के कक्ष में रहते।  रागिनी ने अपने ससुर से क़भी कोई संवाद नहीं किया। हां…..बच्चें अपने दादाजी से अवश्य घुल-मिल गए थे। स्कूल के बाद उनका अधिकतर समय दादाजी के साथ ही कटता।
           एक दिन रागिनी ने बच्चों से पूछा- “दादाजी के उस संदूक में क्या है?”
           “उसमें…..उसमें तो दादाजी के कपड़ें हैं और कागज़ की एक पुड़िया। उसे वें बहुत संभालकर रखते हैं।”
           “क्या है उस पुड़िया में?” -रागिनी ने पुनः पूछा।
           “दादाजी कहते हैं, उसमें बहुत क़ीमती सामान है। समय आने पर ही बताऊंगा।” -छोटे बेटे ने कहा।
           “तो ज़रूर उसमें सोने के मोती होंगे।” -रागिनी ने विचार किया। इस जिज्ञासा ने उसे बेचैन कर दिया था। वो पुड़िया खोलकर देखना चाहती थी। किसी अवसर की प्रतीक्षा में थी और आख़िर उसे ऐसा मौका भी मिल भी गया। एक दिन ससुरजी घर के बगीचे में बैठें थे। घर में कोई और नहीं था। रागिनी ने चुपके से जाकर संदूक खोला। कपड़ों के बीच पुड़िया को ढूंढ ही रही थी कि बाहर अचानक बारिश होने लगी। बारिश से बचने को ससुरजी कमरे में लौट आएं। रागिनी को कमरे में पाकर और संदूक को खुला देखकर सबकुछ समझ गए।
          “तुम ये जानना चाहती हो न बहू कि पुड़िया में क्या है? मैं स्वयं भी सबको बताना चाहता हूं। अभय के शहर आ जाने के बाद तुम्हारी सासूमां और मैं अकेले रह गए थे। तब हमनें नीम का पौधा रोपा। उसे अपने पुत्र की तरह पाला-पोसा-सींचा। कुछ वर्षों बाद ही एक घना वृक्ष बन गया। अभय के साथ शहर आते समय उस वृक्ष को तो अपने साथ ला नहीं सकता था, हां…..उसके कुछ बीज अपने साथ ले आया। इस पुड़िया में वही है- नीम के बीज। इंतज़ार मानसून का था। अब इन बीजों को बोने का समय आ गया है।” -ससुरजी ने पुड़िया खोलकर दिखाते हुए कहा।
         रागिनी अपने किए पर शर्मिंदा होते हुए वहां से चली गई। मानसून ने दस्तक दे दी थी। ससुरजी ने बगीचे में बीज बो दिएं। बादलों से बरसे अमृत ने अपना काम किया। कुछ ही दिनों में पौधे भी निकल आएं। उनमें से एक पौधा ही पनप सका, उसे ससुरजी ने बगीचे के मध्य में रोप दिया।
         समय बीतता गया। कुछ वर्षों के बाद बगीचे में एक बड़ा सा पेड़ अपनी हरियाली लिए था -नीम का पेड़। ससुरजी सारा दिन उसी पेड़ के नीचे कुर्सी लगाकर बैठें रहते। पेड़ पर बहुत से पक्षी और गिलहरियां आ गई थीं। उनके शोर, निम्बोलियों और पत्तों से पड़ोसियों को परेशानी होने लगी।
         एक दिन पड़ोसी मिताली ने रागिनी को फोन करके कहा- “रागिनी! तुम्हारा ए.सी. काम नहीं कर रहा है क्या? तुम्हारे ससुरजी सारा दिन पेड़ के नीचे ही बैठें रहते हैं और ये पक्षियों का शोर, पत्तियाँ…..। यहीं तक होता सब ठीक था लेकिन आज एक बड़ा सा गिरगिट पेड़ की शाख से कमरे में घुस आया, बड़ी मुश्किल से उसे बाहर निकाला। कैसे सहती हो तुम इतना?”
          “तुम ठीक कहती हो! मैं भी परेशान हूं। इस पेड़ को काटने के लिए सरकारी दफ़्तर को कईं बार एप्लिकेशन मेल की है, लेकिन कोई आया नहीं। आज दोपहर ख़ुद ही जाकर शिकायत करूंगी।” -रागिनी ने उत्तर दिया।
          “आज…..अरे! अभी नहीं जाना! तुम्हें नहीं पता शहर में गंदगी से कोई बीमारी फैली है। लोग बीमार हो रहे हैं। सरकारी दफ़्तर भी बंद हैं।” -मिताली ने कहा।
          “ओह! मुझे पता ही नहीं था। ऑफिस के काम से फुर्सत हो तो ख़बरें पढ़ूं ना।” -रागिनी ने कहा और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।
          अभय आज जल्दी घर लौट आए थे। उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। आते ही बिस्तर पर लेट गए। जूतें भी नहीं उतारे थे। उनके चेहरे पर दानें निकल आए थे। ऐसी हालत देखकर रागिनी घबरा गई। उसने फैमिली डॉक्टर को फोन किया लेकिन फोन नहीं लगा। घबराकर ससुरजी को आवाज़ दी। ससुरजी आयुर्वेद के अच्छे जानकार थे। उन्होंने तुरंत कोई काढ़ा बनाकर अभय को पिलाया। कुछ घंटों के अंतराल से वही काढ़ा बार-बार पिलाया। उनके स्वास्थ्य में सुधार होने लगा। दो-तीन दिन में अभय बिल्कुल स्वस्थ हो गएं।
         अभय के स्वस्थ होने की ख़बर कॉलोनी में फैल गई। ऐसी ही बीमारी मिताली के बेटे को भी हो गई, कुछ अन्य पड़ोसियों को भी। सभी रागिनी के ससुरजी से इलाज करने का रिक्वेस्ट करने लगें। ससुरजी ने सभी को काढ़ा बनाकर दिया। कुछ दिनों में सभी स्वस्थ हो गए।
         अब ससुरजी कॉलोनी के नायक बन गए थे। सभी उन्हें सम्मान देने लगे। एक दिन मिताली कॉलोनी वासियों के साथ उनसे मिलने आईं।
         सबने पूछा- “वो काढ़ा किस चीज़ का था?”
         “नीम की पत्तियों का।” -ससुरजी ने उत्तर दिया।
         “तो फिर हमें भी नीम के बीज दीजिए!” -सब एक स्वर में बोलें।
         रागिनी की दृष्टि अब बदल चुकी थी, अपने ससुर और नीम के पेड़ के प्रति।