Mulla Nasruddin
Mulla Nasruddin

Mulla Nasruddin ki kahaniya: नसरुद्दीन वहाँ जा पहुँचा, जहाँ उसके पहुँचने की कतई उम्मीद नहीं थी । वह इस्तंबूल में पहुँचा।

अमीर का ख़त सुलतान को मिलने के ठीक तीसरे दिन हज़ारों ढिंढोरची इस शानदार बंदरगाह के गाँवों और शहरों में जाकर नसरुद्दीन की मौत का ऐलान कर रहे थे। मस्जिदों में मौलवी ख़त पढ़ते और सुबह-शाम अल्लाह का शुक्र अदा करते।
महल के बाग़ में, फव्वारों की ठंडी फुहारों से भीगे चिनार के बाग में सुल्तान जश्न मना रहे थे। उनके चारों ओर वज़ीरों, आलिमों, शायरों और अन्य मुसाहिबों की भीड़ थी, जो बख़्शीश और इनाम की उम्मीद में खड़े थे। सुराहियाँ, हुक्के और गर्म पकवानों से भरी कश्तियाँ लिए हब्शी भीड़ में घूम रहे थे। सुल्तान आज बहुत खुश थे और महल में थे।
आँखों को दबाते हुए उन्होंने शायरों और आलिमों से पूछा, ‘क्या बात है गर्मी के बावजूद हवा में खुशबूदार और खुशगवार नमी है?’
इसके जवाब में सुल्तान के हाथ में चमड़े के बटुए को लालच भरी नज़रों से ताकते हुए शायरों और आलिमों ने कहा, ‘हमारे अजीमुश्शान शहंशाह की साँसें हवा में खुशगवार नमी पैदा करती हैं। और उसमें खुशबू इसलिए है कि काफ़िर नसरुद्दीन की नापाक रूह ने सारी दुनिया में ज़हर फैलाने वाली अपनी गंदी बदबू फैलाना बंद कर दिया है।’
इस्तम्बूल में अमन कायम रखनेवाला महल के पहरेदारों का सरदार दूर खड़ा देख रहा था कि सारे काम कायदे और कानून से हो रहे हैं या नहीं। बुखारा के अर्सला बेग और उसमें सिर्फ इतना फर्क था कि वह अर्सला बेग के मुक़ाबिले ज़्यादा दुबला-पतला था। लेकिन बेरहमी में उससे बढ़कर था। उसकी लंबी- दुबली गर्दन पर उसका साफ़ेवाला सिर इस तरह टँगा था जैसे बाँस पर जड़ दिया गया हो।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। दावत बदस्तूर जारी थी। किसी भी ख़तरे का अन्देशा नहीं था । महल के गुमाश्ते दरबारियों की भीड़ से बड़ी होशियारी से सरदार की ओर बढ़कर उसके कान में कुछ कहते हुए किसी ने भी नहीं देखा ।

सरदार चौंक पड़ा। उसके चेहरे का रंग बदल गया । फिर वह तेज़ी से बाहर निकल गया।

लेकिन कुछ मिनट बाद ही वह फिर लौट आया। उसका रंग पीला पड़ गया था, मुँह से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी । कोहनी से दरबारियों को हटाते हुए वह सुल्तान के पास पहुँचा और कोर्निश में झुक गया।

‘ऐ शहंशाहे आज़म !’ ‘क्यों? अब क्या मुसीबत है?’ सुल्तान ने चिढ़कर कहा, ‘क्या आज के”
दिन भी तुम हवालात ओर कोड़ों की ख़बर अपने तक नहीं रख सकते? बोलो क्या बात है?’

‘ऐ अजीमुश्शान सुलतान, मेरी जुबान बोलने से इन्कार करती है।’ सुलतान नेपरेशान होकर भौंहें तानीं।

सरदार ने फुस-फुसाकर कहा-
‘ऐ आका, वह इस्तम्बूल में है । ‘
‘कौन ?’ सुलतान ने कड़क कर पूछा। हालाँकि वह समझ गए थे कि सरदार किस आदमी की चर्चा कर रहा है।

‘नसरुद्दीन।’

‘यह नाम सरदार ने बहुत ही धीमी आवाज़ में लिया था, लेकिन दरबारियों के कान बहुत तेज़ थे, उन्होंने सुन लिया। महल के परे मैदान में कानाफूसी फैल गई।
‘नसरुद्दीन इस्तम्बूल में है । ‘
‘तुम्हें कैसे मालू हुआ ?’ अचानक सुलतान ने खोखली आवाज़ में पूछा, ‘तुमसे किसने कहा? यह तो हो नहीं सकता। जबकि बुखारा के अमीर का यह ख़त हमारे हाथ में है, जिसमें उन्होंने शाही यकीन दिलाया है कि नसरुद्दीन अब ज़िंदा नहीं है।’
सरदार ने महल के गुमाश्ते को इशारा किया। वह एक आदमी को लेकर सुल्तान के पास आ गया। उस आदमी की नाक चपटी थी, चेहरा चेचक के दागों से भरा था। आँखें पीली और काईयाँ थीं।
सरदार ने कहा, ‘यह आदमी बुखारा के अमीर के दरबार में बहुत दिनों तक जासूस रहा है। नसरुद्दीन को अच्छी तरह पहचानता है। जब यह इस्तम्बूल में आया था तो मैंने इसे जासूस का काम सौंप दिया था । ‘

‘तूने उसे इस्तम्बूल में देखा है?’ सुलतान जासूस की ओर मुड़े, ‘तूने उसे अपनी आँखों से देखा है?’
जासूस ने हामी भर दी।
‘शायद तूने गलती की है। ‘
जासूस ने यकीन दिलाया, ‘नहीं, इस मामले में वह गलती कर ही नहीं सकता। नसरुद्दीन के साथ एक और भी थी, जो सफ़ेद गधे पर सवार थी। ‘
‘तूने उसे वहीं क्यों नहीं पकड़ा ?’ सुलतान चिल्ला उठे, ‘तूने उसे पकड़कर सिपाहियों को क्यों नहीं सौंप दिया ?’

जासूस ने घुटनों के बल गिरकर कहा, ‘ऐ संजीदा सुल्तान, मैं एक बार बुखारा में नसरुद्दीन के हाथ पड़ गया था। अल्लाह की मेहरबानी से ही मेरी जान बची थी। आज सुबह मैंने जब उसे इस्तम्बूल की सड़कों पर देखा तो डर के मारे मेरी नज़र धुँधली पड़ गई। फिर जब तक मेरे होश – हवास सँभले वह गायब हो चुका था । ‘

सिपाहियों के सरदार को घूरते हुए सुल्तान ने कहा, ‘तो ये हैं तेरे जासूस ? मुजरिम को देखते ही इनके होश उड़ जाते हैं। ‘
ठोकर मारकर सुल्तान ने जासूस को एक ओर हटा दिया और उठकर आरामगाह की ओर चल दिए ।
पीछे-पीछे गुलामों की क़तार चल पड़ी।
वज़ीर, शायर और आलिम बेचैन भीड़ में से बाहर निकलने के रास्ते की ओर भाग छूटे।

कुछ देर बाद सरदार को छोड़कर बाग़ में एक भी आदमी नहीं रहा । मजबूरी में खाली जगह को घूरते हुए सरदार फव्वारे के किनारे बैठ गया । बहुत देर तक वहाँ बैठा रहा। पानी के हँसने और धीरे-धीरे उछलने की आवाज़ सुनता रहा । अचानक वह इतना सूखा और सिकुड़ गया कि अगर इस्तम्बूल के निवासी उसे देख पाते तो भगदड़ मच जाती। वे अपने जूते छोड़कर जिधर मुँह उठता, भाग निकलते ।

इस बीच चेचक के दागों से भरे चेहरेवाला जासूस शहर की गलियों से भागता हुआ तेज़ी से समुद्र की ओर जा रहा था। उसकी साँस फूल रही थी।
उसने बंदरगाह पर खड़े एक जहाज़ को देखा, जो रवाना होनेवाला था। जहाज़ के मालिक को ज़रा भी शक नहीं था कि यह आदमी कोई फरार मुजरिम है। उसे जहाज़ में ले जाने के लिए उसने बहुत ही ज़्यादा किराया माँगा । मोलभाव करने के लिए जासूस नहीं रुका। जल्दी से जहाज़ पर चढ़ गया और एक गंदे कोने में छिपकर धम्म से गिर पड़ा। बाद में जब इस्तम्बूल की पतली मीनारें नीले कोहरे में छिप गईं और ताज़ा हवा से उसके फेफड़े भर गए, वह अँधेरे कोने से निकला और जहाज़ में घूम-घूमकर एक-एक चेहरे को बड़े ध्यान से घूरने लगा। जब उसे यक़ीन हो गया कि नसरुद्दीन जहाज़ पर नहीं है तो उसने चैन की साँस ली।
उसी दिन से वह जासूस भय और आशंका का जीवन बिताता रहा। जिस शहर में भी वह जाता – बुखारा, काहिरा, दमिश्क, तेहरान, कहीं भी तीन महीने से अधिक चैन से न ठहर पाता। क्योंकि नसरुद्दीन हर जगह पहुँच जाता और जासूस उससे मुलाक़ात हो जाने के डर से वहीं से भाग निकलता। नसरुद्दीन उस आँधी के समान था, जो सूखी पत्तियों और घास-फूस को उड़ा ले जाती है।
दूसरे दिन से ही इस्तम्बूल में अनोखी ओर दिलचस्प घटनाएँ होने लगी थीं।

ये कहानी ‘मुल्ला नसरुद्दीन’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Mullah Nasruddin(मुल्ला नसरुद्दीन)