Mulla Nasruddin ki kahaniya: शाम के सूरज की किरणें बुखारा शरीफ़ के अमीर के महल के कंगूरों और मस्जिदों की मीनारों को चूमकर अलविदा कह रही थीं। रात के क़दमों की धीमी आवाज़ दूर से आती सुनाई देने लगी थी।
मुल्ला नसरुद्दीन ऊँटों के विशाल कारवाँ के पीछे-पीछे अपने सुख-दुख के एकमात्र साथी गधे की लगाम पकड़े पैदल आ रहा था। उसने हसरत-भरी निगाह बुखारा शहर की विशाल चारदीवारी पर डाली, उसने उस खूबसूरत मकान को देखा, जिसमें उसने होश की आँखें खोली थीं, जिसके आँगन में खेल-कूदकर बड़ा हुआ था। किंतु एक दिन अपनी सच्चाई, न्यायप्रियता, ग़रीबों तथा पीड़ितों के प्रति उमड़ती बेपनाह मुहब्बत और हमदर्दी के कारण उसे अमीर के शिकारी कुत्तों जैसे खूँखार सिपाहियों की नज़रें बचाकर भाग जाना पड़ा था।
जिस दिन से उसने बुखारा छोड़ा था, न जाने वह कहाँ-कहाँ भटकता फिर रहा था- बगदाद, इस्तम्बूल, तेहरान, बख्शी सराय, तिफलिस, दमिश्क, तबरेज और अखमेज और इन शहरों के अलावा और भी दूसरे शहरों तथा इलाकों में।कभी उसने अपनी रातें चरवाहों के छोटे से अलाव के सहारे – ऊँघते हुए गुज़ारीं थीं और कभी किसी सराय में, जहाँ दिन भर के थके-हारे ऊँट सारी रात धुँधलके में बैठे,अपने गले में बँधी घंटियो की रुनझुन के बीच जुगाली करने,अपने बदन को खुजाने, अपनी थकान मिटाने की कोशिश किया करते थे। कभी धुएँ और कालिख से भरे कहवाख़ानों में, कभी भिश्तियों, खच्चर और गधे वाले ग़रीब मजदूरों और फ़क़ीरों के बीच, जो अधनंगे बदन और अधभरे पेट लिए नई सुबह के आने की उम्मीद में सारी रात सोते-जागते गुज़ार देते थे और पौ फटते ही जिनकी आवाज़ों से शहर की गलियाँ और बाज़ार फिर से गूँजने लगते थे।
नसरुद्दीन की बहुत-सी रातें ईरानी रईसों के शानदार हरम में नर्म, रेशमी गद्दों पर भी गुज़री थीं उनकी वासना की प्यासी बेगमें किसी भी मर्द की बाँहों में रात गुज़ारने के लिए बेबसी से हरम के जालीदार झरोखों में खड़ी किसी अजनबी की तलाश करती रहती थीं।
पिछली रात भी उसने एक अमीर के हरम में ही बिताई थी। वह अपने सिपाहियों के साथ दुनिया के सबसे बड़े आवारा, बदनाम और बागी मुल्ला ‘नसरुद्दीन की तलाश में सरायों और कहवाख़ानों की खाक छानता फिर रहा था ताकि उसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दे और बादशाह से इनाम और पद प्राप्त कर सके।
जालीदार खूबसूरत झरोखों से आकाश के पूर्वी छोर पर सुबह की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सुबह की सूचना देनेवाली हवा धीरे-धीरे ओस से भीगे पेड़-पौधों को सुलाने लगी थी। महल की खिड़कियों पर चहचहाती हुई चिड़ियाँ चोंच से अपने पंखों को सँवारने लगी थीं। आँखों की नींद का खुमार लिए अलसायी हुई बेगम का मुँह चूमते हुए मुल्ला नसरुद्दीन ने कहा, ‘वक्त हो गया, अब मुझे जाना चाहिए।’
‘अभी रुको।’ अपनी मरमरी बाहें उसकी गर्दन में डालकर बेगम ने आग्रह किया।
‘नहीं दिलरुबा, मुझे अब जाने दो। अलविदा!’
‘क्या तुम हमेशा के लिए जा रहे हो? सुनो, आज रात को जैसे ही अँधेरा फैलने लगेगा, मैं बूढ़ी नौकरानी को भेज दूँगी । ‘
‘नहीं, मेरी मलिका । मुझे अपने रास्ते जाने दो। देर हो रही है।’ नसरुद्दीन ने उसकी कमलनाल जैसी बाहों को अपने गले में से निकालते हुए कहा, ‘एक ही मकान में दो रातें बिताना कैसा होता है, मैं एक अरसे से भूल चुका हूँ। बस मुझे भूल मत जाना। कभी-कभी याद कर लिया करना । ‘
‘लेकिन तुम जा कहाँ रहे हो ? क्या किसी दूसरे शहर में कोई ज़रूरी काम है?’
‘पता नहीं।’ नसरुद्दीन ने कहा, ‘मेरी मलिका, सुबह का उजाला फैल चुका है। शहर के फाटक खुल चुके हैं। कारवाँ अपने सफ़र पर रवाना हो रहे हैं। उनके ऊँटों के गले में बँधी घंटियों की आवाज़ तुम्हें सुनाई दे रही है ना? घंटियों की आवाज़ों को सुनते ही जैसे मेरे पैरों में पंख लग गए हैं। मैं अब नहीं रुक
सकता।’
‘तो फिर!’ अपनी लंबी-लंबी पलकों में आँसू छिपाने की कोशिश करते हुए बेगम ने नाराज़ी के साथ कहा, ‘लेकिन जाने से पहले अपना नाम तो बताते जाओ।’
‘मेरा नाम ?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने उसकी आँसू भरी नज़रों में नज़रें डालते हुए कहा, ‘सुनो, तुमने यह रात मुल्ला नसरुद्दीन के साथ बिताई थी । मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ। अमन में खलल डालने वाला, बगावत और झगड़े फैलाने वाला – मैं ही मुल्ला नसरुद्दीन हूँ, जिसका सिर काटकर लाने वाले को भारी इनाम देने की घोषणा की गई है। कल अमीर के सिपाही मुझे पकड़ने वाले को तीन हज़ार तूमान देने का लालच दे रहे थे। मेरा जी चाहा था कि इतनी बड़ी क़ीमत पर मैं खुद अपना सिर इनके हवाले कर दूँ।’
मुल्ला नसरुद्दीन की इस बात को सुनते ही बेगम खिल-खिलाकर हँस पड़ी।
‘तुम हँस रही हो मेरी नन्हीं बुलबुल ?’ मुल्ला नसरुद्दीन ने दर्द भरी आवाज़ में कहा, ‘लाओ, आख़िरी बार अपने इन गुलाबी होठों को चूम लेने दो । जी तो चाहता था कि तुम्हें अपनी कोई निशानी देता जाऊँ – कोई ज़ेवर । लेकिन ज़ेवर मेरे पास है नहीं। निशानी के रूप में पत्थर का यह सफ़ेद टुकड़ा दे रहा हूँ। इसे सँभालकर रखना और इसे देखकर मुझे याद कर लिया करना । ‘
इसके बाद मुल्ला ने अपनी फटी खलअत पहन ली, जो अलाव की चिंगारियों से कई जगह से जल चुकी थी।
उसने एक बार फिर बेगम का चुंबन लिया और चुपचाप दरवाज़े से निकल आया । दरवाज़े पर महल के ख़ज़ाने का रखवाला, आलसी और मूर्ख खोजा लंबा पग्गड़ बाँधे, सामने से ऊपर की ओर मुड़ी जूतियाँ पहने खर्राटे भर रहा था ।
सामने ही गलीचों और दरियों पर नंगी तलवारों का तकिया लगाए पहरेदार सोए पड़े थे।
मुल्ला नसरुद्दीन बिना कोई आवाज़ किए बाहर निकल आया। हमेशा की तरह सकुशल । फिर वह सिपाहियों की नज़रों से छूमंतर हो गया ।
एक बार फिर उसके गधे की तेज़ टापों से सड़क गूंजने लगी थी। धूल उड़ने लगी थी और नीले आकाश पर सूरज चमकने लगा था। मुल्ला नसरुद्दीन बिना पलकें झपकाए उनकी ओर देखता रहा ।
एक बार भी पीछे मुड़कर देखे बिना, अतीत की यादों की किसी भी कसक के बिना और भविष्य में आने वाले संकटों से निडर वह अपने गधे पर सवार हो आगे बढ़ता चला गया।
लेकिन अभी-अभी वह जिस कस्बे को छोड़कर आया है, वह उसे कभी भूल नहीं पाएगा। उसका नाम सुनते ही अमीर और मुल्ला क्रोध से लाल-पीले होने लगते थे। भिश्ती, ठठेरे, जुलाहे, गाड़ीवान, जीनसाज़ रात को कहवाख़ानों में इकट्ठे होकर उसकी वीरता की कहानियाँ सुना-सुनाकर अपना मनोरंजन करते; और वे कहानियाँ कभी भी समाप्त न होतीं। उसकी प्रसिद्धि और ज़्यादा दूर तक फैल जाती । अमीर के हरम में अलसायी हुई बेगम बार-बार सफ़ेद पत्थर के उस टुकड़े को देखती और जैसे ही उसके कानों से पति के क़दमों की आवाज़ टकराती, वह उस सीप को पिटारी में छिपा देती ।
जिरहवख़्तर की खिलअत को उतारता, हाँफता – काँपता मोटा अमीर कहता, ओह, इस कमबख़्त आवारा मुल्ला नसरुद्दीन ने हम सबकी नाकों में दम कर रखा है। पूरे देश को उजाड़कर गड़बड़ फैला दी है। आज मुझे अपने पुराने मित्र खुरासान के सबसे बड़े अधिकारी का पत्र मिला था। तुम समझती हो ना? उसने लिखा है कि जैसे ही यह आवारा उसके शहर में पहुँचा अचानक लुहारों ने टैक्स देना बंद कर दिया और सरायवालों ने बिना क़ीमत लिए सिपाहियों को खाना खिलाने से इनकार कर दिया। और सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि वह चोर, वह बदमाश हाकिम के हरम में घुसने की गुस्ताखी कर बैठा। उसने हाकिम की सबसे अधिक चहेती बेगम को फुसला लिया। विश्वास करो, दुनिया ने ऐसा बदमाश आज तक नहीं देखा। मुझे इस बात का अफ़सोस है कि उस दो कौड़ी के आदमी ने मेरे हरम में घुसने की आजतक कोशिश नहीं की। अगर मेरे हरम में घुस आता तो उसका सिर बाज़ार के चौराहे पर सूली पर लटका दिखाई देता । ‘
उसकी बेगम मन-ही-मन मुस्कुराती हुई ख़ामोश बैठी रहती ।
और मुल्ला नसरुद्दीन के गाने और उसके गधे के तेज़ खुरों की आवाज़ों से सड़कें गूँजती रहतीं, धूल उड़ती रहती ।
वह इन वर्षों में अनेक नगरों में घूम आया था। वह जहाँ भी जाता था, अपनी एक-न-एक ऐसी याद छोड़ जाता था, जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता था। और अब वह अपने वतन, अपने शहर बुखारा लौट रहा था। पवित्र बुखारा – जहाँ वह अपना नाम बदलकर कुछ दिन इधर-उधर भटकने से छुट्टी पाकर आराम करना
चाहता था।
वह व्यापारियों के एक काफ़िले के पीछे-पीछे चल पड़ा था। उसने बुखारा की सरहद पार कर ली। आठवें दिन गर्द की धुंध में उसे इस बड़े और मशहूर नगर की ऊँची-ऊँची मीनारें दिखाई दीं।
प्यास और गर्मी से निढाल ऊँट वालों ने फटे गलों से आवाजें लगाईं। ऊँट और भी तेज़ी से आगे बढ़ने लगे। सूरज डूब रहा था। फाटक बंद होने से पहले बुखारा में दाख़िल होने के लिए तेज़ी ज़रूरी थी । मुल्ला नसरुद्दीन कारवाँ में सबसे पीछे था – धूल के मोटे और भारी बादलों में लिपटा हुआ । यह धूल उसके अपने वतन की धूल थी – पवित्र धूल, जिसकी खुशबू उसे दूर देशों की मिट्टी की खुशबू कहीं अधिक अच्छी लग रही थी।
छींकता, खाँसता वह अपने गधे से कहता चला जा रहा था – ‘अच्छा ले, हम लोग पहुँच ही गए। आखिर अपने वतन में पहुँच ही गए। खुदा ने चाहा तो खुशियाँ और सफलताएँ यहाँ हमारा इंतज़ार कर रही होंगी । ‘
जब कारवाँ शहर के परकोटे तक पहुँचा तो पहरेदार फाटक बंद कर चुके थे।
‘खुदा के लिए हमारा इंतज़ार करो ।’ कारवाँ का सरदार सोने का सिक्का दिखाते हुए दूर से चिल्लाया।
लेकिन तब तक फाटक बंद हो गए। साँकलें लग गईं। परकोटे के ऊपर बनी बुर्जियों में लगी तोपों के पास पहरेदार आकर खड़े हो गए। तेज हवा चलने लगी। धुंध भरे आकाश पर फैली गुलाबी रोशनी रात के धुँधलकों में दबकर गायब हो गई। दूज का नाजुक चाँद आकाश से झाँकने लगा। रात के फैलते झुटपुटे की ख़ामोशी में अनगिनत मस्जिदों की मीनारों से अजान देने वालों की ऊँची आवाज़ें तैरती हुई आने लगीं। वे मुसलमानों को शाम की नमाज के लिए बुला रहे थे।
जैसे ही व्यापारी और ऊँटवाले नमाज के लिए सजदे में झुके, मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक ओर खिसक गया।
इन व्यापारियों के पास कुछ है, जिसके लिए ये खुदा को धन्यवाद दें। शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं। थोड़ी देर बाद रात का खाना खाएँगे । ऐ मेरे वफ़ादार गधे, हम दोनों भूखे हैं। अगर अल्लाह यह चाहता है कि हम उसे धन्यवाद दें तो मेरे लिए पुलाव की एक प्लेट और तेरे एक गट्ठर तिपतिया घास भेज दे। हमें न तो शाम का खाना मिला है और न रात का खाना मिलने की कोई उम्मीद दिखाई दे रही है। ‘
उसने गधे को सड़क के किनारे एक पेड़ से बाँध दिया और पास ही एक पत्थर का तकिया लगाकर नंगी ज़मीन पर लेट गया। ऊपर आकाश में सितारों का चमकता हुआ जाल फैला हुआ था। सितारों के हर झुंड को वह पहचानता था। इन दस सालों में उसने न जाने कितनी बार इसी प्रकार आकाश को देखा था। रात के दुआ के पवित्र घंटे उसे संसार के सबसे बड़े दौलतमंद से भी बड़ा दौलतमंद बना देते थे। धनसंपन्न लोग भले ही सोने के थाल में भोजन करें, लेकिन वे अपनी रातें छत के नीचे बिताने के लिए मजबूर होते हैं और नीले आकाश पर जगमगाते तारों और कुहरे भरी रात के सन्नाटे में संसार के सौंदर्य को देखने से वंचित रह जाते हैं। इस बीच शहर के उस परकोटे के पीछे, जिस पर तोपें लगी थीं, सराय और कहवाख़ानों में बड़े-बड़े कड़ाहों के नीचे आग जल चुकी थी। कसाईखाने की ओर ले जाई जानेवाली भेड़ों ने दर्दभरी आवाज़ में मिमियाना शुरू कर दिया था। अनुभवी मुल्ला नसरुद्दीन ने रात भर आराम करने के लिए हवा के रुख के विपरीत स्थान खोजा था ताकि खाने की ललचाने वाली महक रात में उसे परेशान न करे और वह निश्चितता से सोता रहे। उसे बुखारा के रिवाजों की पूरी-पूरी जानकारी थी । इसलिए उसने शहर के फाटक पर टैक्स चुकाने के लिए अपनी रकम का अंतिम
भाग बचा रखा था।
बहुत देर तक वह करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद नहीं आई। नींद न आने का कारण भूख नहीं थी, वे कड़वे विचार थे, जो उसे सता रहे थे।
छोटी-सी काली दाढ़ी वाले इस चालाक और खुशमिजाज आदमी को अपने वतन से सबसे अधिक प्यार था। फटा पैबंद लगा कोट, तेल से भरा कुलाह और फटे जूते पहने वह बुखारा से जितना अधिक दूर होता, उसकी याद उसे उतनी ही अधिक सताया करती थी। परदेस में उसे बुखारा की उन तंग गलियों की याद आती, जो इतनी पतली थीं कि अराबा (एक प्रकार की गाड़ी भी) दोनों ओर बनी कच्ची दीवारों को रगड़कर ही निकल पाती थी। उसे ऊँची-ऊँची मीनारों की याद आती, जिसके रोग़नदार ईंटों वाले गुंबदों पर सूरज निकलते और डूबते समय लाल रोशनी ठिठककर रुक जाती थी। उन पुराने और पवित्र वृक्षों की याद आती, जिनकी डालियों पर सारस के काले और भारी घोंसले झूलते रहते थे।
नहरों के किनारे के कहवाखाने, जिन पर चिनार के पेड़ों की छाया थी, नानबाइयों की भट्टी जैसी तपती दुकानों से निकलता हुआ धुआँ और खाने की खुशबू तथा बाज़ारों के तरह-तरह के शोर-गुल याद आते। अपने वतन की पहाड़ियाँ याद आतीं। झरने याद आते। खेत, चरागाह, गाँव और रेगिस्तान याद आते ।
बगदाद या दमिश्क में वह अपने देशवासियों को उनकी पोशाक और कुलाह देखकर पहचान लेता था। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगता था और गला भर आता था। जाने के समय की तुलना में वापस आते समय उसे अपना देश और अधिक दुखी दिखाई दिया। पुराने अमीर की मौत बहुत पहले हो चुकी थी। नए अमीर ने पिछले आठ वर्षों में बुखारा को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मुल्ला नसरुद्दीन ने टूटे हुए पुल, नहरों के धूप से चटकते सूखे तले, गेहूँ और जौ के धूप जले ऊबड़-खाबड़ त देखे । ये खेत घास और कँटीली झाड़ियों के कारण बर्बाद हो रहे थे। बिना पानी के बाग मुरझा रहे थे। किसानों के पास न तो मवेशी थे और न रोटी। सड़कों पर क़तार बाँधे फ़क़ीर उन लोगों से भीख माँगा करते थे, जो खुद भूखे थे।
नए अमीर ने हर गाँव में सिपाहियों की टुकड़ियाँ भेज रखी थीं और गाँववालों को हुक्म दे रखा था कि उन सिपाहियों के खाने-पीने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होगी। उसने बहुत-सी मस्जिदों की नींव डाली और फिर गाँववालों से कहा कि वे उन्हें पूरा करें। नया अमीर बहुत ही धार्मिक था। बुखारा के पास ही शेख बहाउद्दीन का पवित्र मजार था। नया अमीर साल में दो बार वहाँ जियारत करने ज़रूर जाता था। पहले से लगे हुए चार टैक्सों में उसने तीन नए टैक्स और बढ़ा दिए थे। व्यापार पर टैक्स बढ़ा दिया था। कानूनी टैक्सों में भी वृद्धि कर दी थी। इस तरह उसने ढेर सारी नापाक दौलत जमा कर ली थी। दस्तकारियाँ ख़त्म होती जा रही थीं।
व्यापार घटता चला जा रहा था।
मुल्ला नसरुद्दीन की वापसी के समय उसके वतन में बेहद उदासी छाई हुई थी।
