Hindi Story: मैंने घर में सबको मना कर दिया था कि जब श्रुति दी आएँ तो उस समय कमरे में कोई नहीं आएगा। छोटे भाई-बहनों को इस बात की कतई तमीज़ नहीं है। कोई भी मेरे पास आएगा, तो आनेवाले के आस-पास वे इस प्रकार मँडराएँगे, गोया वह उन लोगों से ही मिलने आया हो।
फिर खिड़की-दरवाज़ों के मोटे-मोटे पर्दे खींच दिए, जिससे कमरे में ठंडक और नीम-अँधेरा-सा हो गया। इस माहौल में वे अधिक आश्वस्त होकर अपनी निजी बात कह सकेगी! दोपहर में जबसे उनका फोन आया है, मैं एक अजीब-सी मानसिक उलझन में हूँ। अक्सर हँसती-खिलखिलाती रहनेवाली श्रुति दी के भर्राए और रुंधे-से स्वर ने मुझे बहुत परेशान कर दिया है। साथ ही उनकी इस बात से ‘नंदी, यहाँ तेरे सिवाय मेरा है ही कौन, जिसे मैं अपनी बात कह सकूँ, जिसके साथ अपने को शेयर कर सकूँ, मेरे मन में एक गर्वभरी तृप्ति की भावना भी तैर गई।
वे उम्र में मुझसे बड़ी हैं, करीब सात-आठ साल और एक नामी चित्रकार हैं। उसके चित्रों की कई प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं, अख़बारों में उन पर रिब्यू आ चुके हैं। कलाकारों के बीच उनका सम्मान है। उसके मिलने-जुलनेवालों की भी कोई कमी नहीं, बल्कि वे उन सबसे कभी-कभी बहुत परेशान तक हो उठती हैं। इस सबके बावजूद मैं, केवल मैं उन्हें ऐसी लगी कि वे अपना निहायत निजी दुःख मेरे साथ शेयर करें, मुझे विश्वास में लेकर, आगे होकर अपनी बात बताने आएँ।
एकाएक मैं अपने को बहुत बड़ा-बड़ा और ज़िम्मेदार-सा महसूस करने लगी। कौनसा दुःख पड़ा है श्रुति दी पर! आर्थिक कष्ट, अगर यही बात है तब तो कोई चिंता नहीं। मैंने जल्दी से अपनी पास-बुक देखी। चार हज़ार से कुछ ज्यादा ही थे। जरूरत पड़ने पर मैं पाई-पाई निकालकर दे दूँगी। इससे भी काम नहीं चला तो माँ से माँग लूँगी। घर में अपने रौब के बारे में पूरी तरह आश्वस्त हूँ।
पर नहीं, बात पैसे की नहीं होगी! विभु दा स्वयं अच्छी पोस्ट पर हैं, वे खुद कमाती हैं। फिर पैसे के लिए इतनी परेशान होने वाले जीवों में से वे हैं भी नहीं। इस स्तर पर निहायत फक्कड़ और मौजी। जहाँ स्टाफ में और सब साड़ी और जेवरों का रौब पटक-पटककर ढेर किए देती हैं, वहाँ वे बिना संकोच के कुछ भी पहनकर आ जाती हैं? हम तो गाजर-मूली को ही फल समझकर खा लेते हैं। निहायत स्नॉब लोगों के बीच भी ऐसी घोषणाएँ करते उन्हें कभी झिझक नहीं हुई। तब? कलकत्ता उन्हें बिल्कुल रास नहीं आया। दो सालों से ऊपर ही हो गए, पर इस बात से वे अभी भी जब-तब दु:खी होती रहती हैं कि वे कहाँ आ फँसी! कितनी ही बार उन्होंने कहा, ‘नंदी, मन होता है कि बोरिया-बिस्तर बाँधकर वापस लौट जाऊँ। यह भी कोई शहर है टुच्चे लोगों का। सब स्वार्थी और तिकड़मी!’ और उनकी आँखों में एक गहरे अवसाद की छाया तैर जाती। जब मुझे हमेशा लगता है कि यह गम न छोड़े हुए आत्मीय लोगों का है, न यहाँ के टुच्चे लोगों का…जैसे उसकी जड़ें कहीं और हैं… पर कभी उन जड़ों तक पहुँचने का साहस नहीं हुआ। सारी मित्रता के बावजूद उम्र के अंतर की एक दीवार-सी हमेशा ही मैंने महसूस की है। आज वे स्वयं उस दीवार को तोड़कर अपना अंतरंग मेरे सामने उँडेलने आ रही हैं। जैसे भी हो, मुझे अपने को इस लायक बनाना ही है कि मैं उसके दु:ख को समझ और बँटा सकूँ।
समय से कोई बीस मिनट पहले ही वे अचानक कमरे का पर्दा उठाकर कमरे में दाखिल हो गईं। पढ़ने में मन नहीं लगा तो किताब को यों ही छाती पर टिकाकर मैंने आँखें मँद ली थीं। उनकी आवाज़ से ही मेरी आँख खुली। मैं हडबड़ाकर उठी। मन-ही-मन अपने को कोसा। वे क्या सोचेंगी कि उसके ऐसे संकट की बात जानने के बाद भी मैं मस्त पड़ी सो रही थी। जिसे कोई बात छूती ही नहीं, उसे कैसे कोई अपना दु:ख बताएगा?