daraar bharane ki daraar by Mannu Bhandari
daraar bharane ki daraar by Mannu Bhandari

रेस्तराँ का या टैक्सी का बिल देखकर मुझे कभी कष्ट नहीं होता, बल्कि एक उपलब्धि की ही भावना होती। मिली हुई ज़िम्मेदारी को सफलापूर्वक निभाने का संतोष होता। आखिर एक मकान ठीक हो गया, घर लौटे तो श्रुति दी दीवान पर निर्जीव-सी लेट गईं, जैसे किसी तरह एक लंबी यंत्रणापूर्ण यात्रा के छोर तक पहुँची हैं, एक थकान और अवसाद-भरी निश्चिंतता।
बहुत करने पर भी उस दिन उन्होंने कुछ खाया-पिया नहीं, चलते समय बोलीं, ‘बस नंदी, अब शाम को तू ही मकान-मालिक के पास जाकर किराया दे देना। कुछ कम कर दे तो बहुत अच्छा, वरना यही सही। अब मुझसे तो कुछ भी नहीं होगा।’ और भरसक अपने आँसुओं को पीती-सी वे चली गईं। शाम को दलाल ने बताया कि मकान-मालिक बंबई गया है और दो-तीन दिन बाद लौटेगा, तभी बात होगी। श्रुति दी को सूचना दी तो बड़े थके-से स्वर में बोलीं, ‘ठीक है नंदी, जब हो जाए तो मुझे बता देना। मैंने तो सब-कुछ तेरे हाथों में छोड़ दिया है।’

पता नहीं श्रुति दी ने ये दो दिन कैसे काटे, पर मुझे सचमुच समय गुज़ारना भारी पड़ गया। मैं अपनी जिंदगी से कटकर इन लोगों के साथ कुछ इस प्रकार जा मिली थी कि अब अपना कुछ भी करने में मन ही नहीं लगता था।
कितना अच्छा होता, यदि इस घर को बचा पाती। तब केवल श्रुति दी ही नहीं, विभु दा भी कृतज्ञ होते मेरे प्रति।
मैंने लिलुआवाले दादा को राजी कर लिया कि वे एक दिन आकर श्रुति दी का सामान शिफ्ट करवा देंगे। सामान ही कितना होगा।

रसोई का ज़रूरी सामान मैं एक ही दिन में लेके-मार्केट से ख़रीद दूंगी। बाकी फिर धीरे-धीरे जम जाएगा। चाहती तो यही हूँ कि सब-कुछ जमा कर ही उन्हें यहाँ लाऊँ। उन्हें कुछ भी न करना पड़े, किसी तरह की कोई परेशानी न उठानी पड़े।तीसरे दिन सवेरे मैं चाय पीकर उठी ही थी कि श्रुति दी आईं।
‘अरे, आप?’ मुझे श्रुति दी बहुत दुबली दिखाई दीं। उसके हाथ में एक पैकेट था। ‘विभु भी आए हैं, उसके कहने के साथ ही विभु दा अंदर घुसे। उसके हाथ में जलजोग का एक डिब्बा था। मेरी ओर बढ़ाते हुए बोले, ‘बड़ी मुश्किल से तुम्हारी श्रुति दी का दिमाग ठीक हुआ है। लो इस खुशी में यह मिठाई खाओ।’
मैं अवाक्-सी कभी श्रुति दी का मुँह देखती, कभी उनका! ‘एक तुम बेवकूफ़? एक यह बेवकूफ।’ और उन्होंने डिब्बा खोलकर मेरी ओर बढ़ा दिया।मैंने श्रुति दी की ओर देखा, बहुत फीकी-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर थी, मुझे देखते-ही-देखते उन्होंने नज़र फेर ली। लगा जैसे वे मुझसे कतरा रही हैं।‘देखो नंदिता, श्रुति तुम्हारे लिए क्या लाई है!’ और उन्होंने जल्दी से पैकेट उठाकर खोल दिया। टसर सिल्क की हाथ से पेंट की हुई सुंदर-सी साड़ी थी।‘कल सारे दिन और सारी रात यही बनी है।’ उन्होंने पूरी साड़ी खोलकर दीवार पर फैला दी।‘क्या लाजवाब बनी है! पहनोगी तो बस सारे कलकत्ता में तुम्हीं तुम चमकोगी।’
मैं साड़ी की प्रशंसा करना चाहती हूँ, इस सारी बात पर प्रसन्नता व्यक्त करना चाहती हूँ, पर मुँह से एक शब्द तक नहीं निकलता। जाने क्यों मैं अपने को बहुत अपमानित-सा महसूस कर रही हूँ। पर उन्हें शायद मेरे मनोभावों को जानने की फुर्सत नहीं। वे आपस में ही पूर्ण हैं। मैं तो जैसे कहीं रही ही नहीं।

‘चलो श्रुति, जल्दी करो।’ और उन्होंने पीठ पर हाथ रखकर श्रुति दी को उठाया।
यह सारी अदा ही मुझे निहायत चीप और छिछोरी लग रही है : अपने सारे खुलेपन के बावजूद विभू दा मुझे नंबरी चालाक और घाघ लग रहे हैं। मेरा मन वितृष्णा से भर उठा।

‘इनके दिमाग की गर्मी शांत करने के लिए इन्हें आज दीघा ले जा रहा हूँ। लौटकर मिलेंगे, हाँ!’
बड़ी मुश्किल से मेरे मुँह से निकला, ‘चलिए, अच्छा हुआ।’
विभु दा विजेता की तरह श्रुति दी को लेकर धड़धड़ सीढ़ियाँ उतर गए। अपने को एक तरह ठेलती हुई मैं भी पीछे-पीछे नीचे आई। टैक्सी खड़ी थी। मीटर पर नज़र गई तो अनायास वे सारे आँकड़े आँखों के सामने तैर गए, जो मकान ढूँढ़ने के दौरान मीटर पर चढ़े थे।
भीतर बैठकर श्रुति दी ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर दबाया, उस स्पर्श में कृतज्ञता, स्नेह, आत्मीयता सब-कुछ था, पर मैं जैसे कहीं से सुन्न हो गई थी।
पीछे धूल और धुएँ का गुबार छोड़ती हुई टैक्सी आगे बढ़ गई। जाने क्यों मुझे लग रहा था, जैसे कोई मुझे बुरी तरह चीट कर गया है।
बड़े थके-थके क़दमों से मैं ऊपर आई। दीवान पर साड़ी फैली पड़ी थी। और मुझे लग रहा था, जैसे बच्चे को पहले तो कोई बहुत बड़ा आश्वासन दे और फिर एक-दो टॉफी से बहलाकर चलता बने।