daraar bharane ki daraar by Mannu Bhandari
daraar bharane ki daraar by Mannu Bhandari

चेहरे पर अनायास उभर आए अपराध-भाव को पीछे ठेलते हुए मैंने एकाएक बड़ों की तरह उनकी पीठ पर हाथ रखकर उन्हें दीवान पर बैठाया। पर फिर मुझे खुद अपना व्यवहार ओवर-ऐक्टिंग की तरह बनावटी लगा। अतिरिक्त सहानुभूति में नक़लीपन की बू आ ही जाती है। फिर अभी तो पूरी बात भी नहीं मालूम, मैंने जल्दी से अपना हाथ हटा लिया।
श्रुति दी क्रीम रंग की साड़ी पहनकर आई थीं, जिससे उनका चेहरा और भी पीला-पीला लग रहा था। कमरे के अँधेरे ने भी उसके चेहरे की उदासी को और घना कर दिया था। मैंने आज तक कभी उन्हें इतना उदास और बेजान नहीं देखा था। जैसे बहुत धुलने के कारण कपड़े का रंग बदरंग हो जाता, वैसे ही शायद बहुत रोने के कारण उनकी आँखें बड़ी बुझी-बुझी और फीकी-फीकी लग रही थीं।

मैं एकटक उसके चेहरे की ओर देखने लगी। धीरे से पूछा, ‘क्या बात हो गई श्रुति दी?’ वे ज़मीन पर नजर गड़ाए रहीं। लगा, जैसे बात करने के लिए शब्द टटोल रही हैं। फिर एकाएक मेरी ओर देखकर बोलीं, ‘समझ में नहीं आता, क्या बताऊँ? फोन करने के बाद बड़ी देर तक पछताती रही कि बेकार ही तुझे परेशान किया। यों भी इस सबमें तू कर ही क्या सकेगी, कोई भी क्या कर सकता है? इतना ही तो होगा कि कहकर मैं हलकी हो जाऊँगी। पर अपने को हलका करने के लिए तुझ पर बोझ लाद दूँ, यह भी कोई बात हुई भला?’ और एक गहरी, सर्द-सी आह उसके मुँह से निकल गई। आँखें भी नम-सी हो गईं।

क्षणांश के लिए मन में फिर अपना सोना कौंच गया। मुझे यों निश्चित सोता देखकर ही तो यह बात इनके मन में नहीं आई! बड़ी तत्परता से बोली ‘आप कैसी बात करती हैं? मुझे क्या परेशानी होगी भला? आपकी परेशानी कुछ भी बँटा सकी तो मुझे बहुत खुशी होगी। जबसे आपका फ़ोन आया है, तबसे किसी भी बात में मेरा मन नहीं लग रहा है। आँखें मूंद लेटे-लेटे मैं बराबर आपकी ही बात सोच रही हूँ। (मेरी इस बात पर विश्वास हो जाएगा इन्हें?) आखिर बात क्या हुई? आप परेशान क्यों हैं?’कई दिनों से तुझे सब-कुछ बता देनी चाहती थी, पर हर बार जब्त कर जाती। लेकिन अब अकेले-अकेले मुझसे भी सब सहा नहीं जाता। फिर अब तो तुझसे यों भी बहुत मदद लेनी होगी। मेरा साथ देगी न?’ और बड़ी बेबस-सी होकर उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया। कोरों में जमे हुए आँसू गालों पर लुढ़क आए। उनके आँसुओं ने मुझे भीतर तक बेध दिया। उनकी बेबसी ने मुझे एकाएक बड़ा बना दिया। बड़े स्नेह से उनके हाथों को सहलाते हुए मैंने कहा, ‘आप इतनी समझदार होकर ऐसे परेशान हो रही हैं। आखिर बात तो बताइए। कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकलेगा ही। यों रो-रोकर तो आप अपनी सेहत ही बिगाड़ लेंगी। दो दिन में ही शक्ल कैसी बना ली है!’
मुझे खुद ही लगा कि बहुत ही घिसी-पिटी बात मैंने कही है फिर भी कहने के बुजर्गाना अंदाज़ पर मुझे भीतर-ही-भीतर बड़ा संतोष हुआ। मैं खुद अपने को काफ़ी मैच्योर समझने लगी।
‘नंदी, लगता है, अब कोई निर्णय मुझे लेना ही पड़ेगा, बल्कि यों कहूँ कि मैंने ले लिया है। स्थिति को ज़बरदस्ती खींचने में कोई सार नहीं।’

वे बात को खींच-खींचकर कह रही थीं और चाहे उन्होंने संबोधित मुझे ही किया हो, पर मुझे लग रहा था जैसे वे अपने किसी लिए हुए निर्णय को बार-बार दोहराकर दृढ़ता को तौल रही हैं।

‘पर कैसा निर्णय? किस स्थिति को खींचने की बात आप कह रहे हैं?’

एकाएक सीधी नज़रों से उन्होंने मुझे देखा। कुछ इस भाव से जैसे मेरी इस अबोधता पर उन्हें विश्वास नहीं हो रहा हो।
‘मेरे यहाँ दो साल से तू बराबर आ-जा रही है। क्या कभी भी तुझे किसी बात का संदेह नहीं हुआ? मेरे और विभु के संबंध क्या कभी तुझे एब्जॉर्मल नहीं लगे?’
उनकी नज़रें अभी मुझ पर टिकी थीं। मेरे चेहरे पर फैले विस्मय में ही मेरा नकारात्मक उत्तर लिखा था। खयाल आया, ज़रूर मुझे बच्ची और निहायत मूर्ख समझ रही होंगी। हो सकता है, अब वे अपनी कोई बात ही न बताएँ। जिसकी दृष्टि ही इतनी सतही हो, उसे अपना हमराज़ बनाकर होगा ही क्या! अनायास मन में एक हल्की-सी निराशा छाने लगी। पर शायद वे इस तरह सोच ही नहीं रही थी। ‘सोचती हूँ, अब अपने लिए एक अलग घर की व्यवस्था कर ही लूँ। दो कमरे का एक ठीक-ठाक-सा मकान मिल जाए तो काम चला जाएगा।’ फिर बेहद मिन्नत-भरे स्वर में बोली, ‘तू मेरे लिए एक मकान ढूँढ देगी, नंदी?’

‘पर क्यों? विभु दा से झगड़ा हो गया है? अरे, ऐसे झगड़े तो होते ही रहते हैं। उन सबसे कहीं घर तोड़ा जाता है?’ मैं बेहद उत्सुक हो उठी थी और सामने ऐसी उलझन लग रही थी, जिसका कोई सिर-पैर नज़र नहीं आ रहा था। साथ ही यह भी ख़याल आ रहा था कि जिन बातों से घर तोड़ा जाता है, इस बात का ज्ञान मुझे है ही कहाँ?

‘झगड़ा!’ उसके स्वर में अजीब-सी तिक्तता भर गई। ‘झगड़ा क्या होगा नंदी, हमारा कभी मेल ही नहीं था। भीतर से कुछ न होकर भी बाहर से निभाए जा रहे थे। पर अब लगने लगा है कि आखिर घर बनाए रखने की ही ऐसी कौनसी मजबूरी है?’
उनकी नम आँखें ज़मीन पर गड़ी हुई थीं और मेरी आँखों के सामने विभु दा की आकृति ही तैर रही थी। बड़ी आत्मीयता-भरा एक खुलापन था उसके व्यवहार में, यों तो बहुत ही कम मिलते थे घर में, पर जब मिलते तो अपनेपन से। तो यह सब केवल बनावटी था? बड़ी तकलीफ हो रही थी मुझे विश्वास करने में।
‘बहुत दिनों के संघर्ष और द्वंद्व के बाद आखिर मैंने अंतिम रूप से निर्णय ले ही लिया कि मैं अब अलग ही रहूँगी! और सच कहती हूँ नंदी, निर्णय लेने के बाद से ही जैसे मैं हलकी हो गई हूँ, एक तनाव से मुक्त हो गई हूँ।’पर आँसू थे कि फिर ढुलक आए।मुझे उनकी किसी भी बात पर जैसे विश्वास नहीं हो रहा था।
‘यह सब आप क्या कह रही हैं श्रुति दी? इतना बड़ा कारण भी तो होना चाहिए। आप अलग रह सकेंगी? विभु दा राज़ी होंगे इसके लिए?

‘नहीं होंगे तो हो जाएँगे। पर इस बार मैं मकान तय करके ही उनसे बात करूँगी। बस, तू मुझे मकान ढुँढ़वा दे। मकान के लिए यहाँ जैसी भाग-दौड़ करनी होती है, वह मुझसे नहीं होगी। नंदी, अब तो मैं बहुत-बहुत थक गई हूँ!’और सचमुच ही वे निढाल-सी होकर गोल तकिए के सहारे लेट गईं और दोनों हाथ आँखों पर रख लिए।
जाने कैसी-कैसी ममता उमड़ आई उन पर। मैं उसके पास सरककर बहुत धीरे-धीरे उसके बाल सहलाने लगी। श्रुति दी की जिंदगी के इतने बड़े निर्णय की गवाह मैं हूँ। नई जिंदगी की शुरुआत करने का भार मुझ पर है। बच्चों की तरह निर्भर कर रही हैं ये मुझ पर, कितना विश्वास है इनको! मुझे अपने को इस विश्वास के लायक बनाना ही होगा, घर में तो यह हाल है कि एक गिलास पानी भी कोई पिलाए तो प्यास मिटे।
एकाएक ख़याल आया, इनके पीने के लिए कुछ ठंडा मँगवाऊँ। संयोग से मैं उठती, उसके पहले ही पर्दे के पीछे से छोटी बहन ने आवाज़ दी, ‘दीदी, यह ले लीजिए।’ आवाज़ के साथ श्रुति दी उठकर बैठ गईं।
‘आप लेटी रहिए, यहाँ कोई नहीं आएगा, मैंने पहले ही सबको मना कर रखा है।’ अब तो कम-से-कम श्रुति दी समझ ही लेंगी कि बिना जाने ही उनकी बात को मैंने पूरी गंभीरता से लिया है। उन्हें तसल्ली हो जानी चाहिए कि उन्होंने किसी गलत व्यक्ति को अपना विश्वास नहीं दिया है?

मैंने बीच की टेबल पर ट्रे रखी, एक प्लेट में कटा हुआ तरबूज था और दो गिलासों में स्क्वैश। चलो, ये लोग कभी-कभी तो अकल से काम कर लेती हैं।
‘मैं कुछ नहीं लूंगी। मेरी ज़रा भी इच्छा नहीं हो रही है।’
पर मैंने ज़बरदस्ती करके उन्हें खाने पर मजबूर किया, ठीक वैसे ही जैसे कभी-कभी नाराज़ होने पर माँ मुझे करती हैं। मैंने सोच लिया था कि नहीं खाएँगी तो डाँट लगाऊँगी-‘खाना-पीना छोड़ने से कहीं समस्याएँ पीछा छोड़ती हैं, पर उन्होंने एक-दो बार कहने से ही खा लिया।

खा-पीकर वे थोड़ी स्वस्थ लगीं तो पहली बार ख्याल आया कि शायद उन्होंने सवेरे से ही कुछ नहीं खाया है। मन हुआ, इसी पर डाँट दूँ, मेरा हौसला धीरे-धीरे बढ़ रहा था और दोनों के बीच आज तक लिहाज़ की जो दूरी रही थी, वह अपने-आप सिमट रही थी, पर फिर चुप ही रही, अभी तो बहुत मौके आएँगे।
वे फिर शुरू से अपने और विभु दा के बारे में बताने लगीं। वे कुछ इस ढंग से बता रही थीं मानो एक बार अपना अतीत दोहराकर, अपने निर्णय को जस्टीफ़ाई कर रही हों, पता नहीं मेरे सामने या अपने खुद के सामने! उनकी आवाज़ में कटुता घुलती जा रही थी और आँखों में अवसाद-भरा आक्रोश।

और मेरे सामने उनकी जिंदगी के वे पहलू खुलते रहे, जिनका अनुमान भी मैं दो साल तक उसके साथ रहकर नहीं लगा सकी थी। पर अब इस नए संदर्भ में रह-रहकर मेरे मन में उनके जब-तब कहे हुए वाक्य , हँसते-खिलखिलाते हुए एकदम उदास हो जाना, पहनने-ओढ़ने या सजने-सँवरने के प्रति एक अरुचि, बात-बात में वापस लौट जाने की बात जैसे इन सबके अर्थ स्पष्ट होने लगे। एक बार उसके बहुत हँसने पर मैंने टोका था तो हँसते हुए ही जवाब दिया था जानती है नंदी, वही आदमी बहुत हँसता है, जिसके भीतर गहरे घाव होते हैं। तब भी मुझे कभी ख़याल नहीं आया, सचमुच मैं तो महामूर्ख हूँ। निहायत ही बच्ची…तभी तो इतने सारे संकेतों से भी असली बात का अनुमान तक नहीं लगा सकी।
साथ ही मन की भीतरी परतों पर कहीं हलका-सा संतोष भी कौंधा-जिन श्रुति दी को हमेशा अपने से बड़ा और श्रेष्ठ समझती आ रही हूँ वे भीतर से कहीं इतनी दयनीय, इतनी पराजित हैं, इनकी असली स्थिति तो केवल दया के लायक है। पर तभी मन की इस टुच्ची बात को मैंने भीतर-ही-भीतर दबोच दिया।
सारी बात सुनाकर जैसे अपने निर्णय पर मेरा समर्थन पाने के लिए उन्होंने पूछा, ‘अब तू ही बता नंदी, इस सबके बाद मैंने यह निर्णय लिया तो क्या गलत किया?’मन में पहला उत्तर तो यही उभरा-‘गलत! आप इतने दिन रह भी लीं, मैं होती तो कभी की अलग हो गई होती।’ पर इस बचकाने और अदूरदर्शितापूर्ण उत्तर को पीछे ठेलकर बड़े सधे हुए स्वर में मैंने कहा : ‘गलत-सही की बात तो मैं नहीं कहूँगी श्रुति दी, पर फिर भी इतना ज़रूर कहूँगी कि इस स्थिति में भी घर तोड़ना न इतना आसान है, न उचित। निर्णय लेना आसान है, पर उसे अमल में लाना बहुत मुश्किल होगा।’
मुझे खुद अपनी बात बड़ी संतुलित और विवेकपूर्ण लगी। स्थिति में भीतर तक इन्वॉल्व हो पाने का नया आत्मविश्वास जागा। उसी से भरी-भरी मैं बोली, ‘आप कुछ दिन सब्र करें, थोड़ा धीरज रखें। मैं एक बार विभु दा से बात करूंगी, उसके बाद ही आप कुछ करेंगी।उन्होंने मेरी ओर इस तरह देखा मानो विश्वास नहीं हो रहा। फिर एक लंबी साँस छोड़कर बड़े हताश-स्वर में बोलीं, ‘क्या होगा बात करके? तुझे यह निर्णय आज का लग रहा है, पर जानती नहीं, इसके पीछे कितने अनखाए दिन और अनसोई रातें हैं। बहसों के लंबे-लंबे दौर हैं। जब कहीं भी कुछ बाकी नहीं रहा, तभी तो यह निर्णय लिया।

और उनका स्वर फिर कहीं गहरे में डूब गया। एकाएक वे फूटकर रो उठीं। उनका रोना मुझे भीतर तक मथ गया। मैंने उनका सिर अपनी गोदी में लिया और दुलार से उसके बाल सहलाने लगी। मैं चुप करा रही थी, पर खुद मुझे रोना आ रहा था।
आठ बजे के करीब मैंने उनसे खाने के लिए ज़िद की, पर इस बार वे नहीं मानीं। तब टैक्सी करके मैं खुद घर तक छोड़ने गई। वे मना करती रहीं, पर मैंने भीतर-ही-भीतर जैसे तय कर लिया था कि जब तक स्थिति सँभलती नहीं, उनकी हर बात का भार मुझ पर ही रहेगा।
खाने के बाद रोज़ की तरह भाई-बहन ताश खेलने के लिए बुलाने लगे, मना करने पर ज़िद करने लगे, तो मुझे गुस्सा आ गया…इन्हें क्या कभी समझ नहीं आएगी? दुनिया में कहीं कुछ हो जाय, इन्हें अपने खेल से मतलब! पर फिर दया आई, बेचारे बच्चे हैं, ये बात की गंभीरता को कैसे समझ सकते हैं?
रात में सोई तो लगा, पता नहीं मुझे सब-कुछ बताकर श्रुति दी हल्की हुईं या नहीं, पर मैं सचमुच बहुत बोझिल हो उठी, कितनी बड़ी जिम्मेदारी है मुझ पर! विभु दा से छह बजे गरियाहाट क्वालिटी में मिलने की बात हुई। उन्होंने कहा, ‘यदि वहाँ भीड़ होगी तो लेक्स चले चलेंगे।’ वे स्वयं बात करने को उत्सुक लगे।
आगे होकर विभु दा को बात करने का आमंत्रण दे तो दिया है, पर अब बात क्या करूँगी। कहीं उन्होंने यही कहकर झिड़क दिया कि यह हमारा निहायत ही निजी मामला है, तुम बीच में पड़नेवाली कौन होती हो, तब? पर नहीं, इतने रूड वे हैं नहीं। सारे दिन मैं मन-ही-मन तर्क गढ़ती रही। क्या-क्या कहकर मैं श्रुति दी का केस रखूँगी…कैसे-कैसे उन्हें कन्विंस करूँगी? कभी किसी विषय पर बहुत खुलकर उनसे बात करने का मौका नहीं मिला, फिर भी मैंने तय कर लिया कि मैं कतई संकोच नहीं करूँगी।
विभु दा से बात करते ही लग गया कि वे मेरी और श्रुति दी के बीच हुई सारी बात जानते हैं, तो श्रुति दी ने सब-कुछ बता दिया? जाने क्यों मुझे अच्छा नहीं लगा, फिर भी मैं विभु दा की बात ध्यान से सुनती रही।

यह समस्या का दूसरा पहलू था। अपनी दलीलों और तर्कों को भरसक कुशलता से पेश करने के बावजूद उन्हें कहीं अपने पक्ष की कमज़ोरी का अहसास था, वे बार-बार यही कह रहे थे कि श्रुति व्यर्थ की ज़िद किए बैठी है, तुम समझाओ। नंदिता, वह तुम पर बहुत भरोसा करती है, तुम पर बहुत निर्भर भी कर रही है।
विभु दा के स्वर में याचना का स्पर्श जैसे-जैसे बढ़ता जा रहा था, अपनी नज़रों में मेरा महत्त्व भी उतना ही बढ़ता जा रहा था।अब मेरे बोलने की बारी थी। एक-से-एक जोरदार तर्क और चुस्त वाक्य मेरे दिमाग में आए चले जा रहे थे। मैं कभी बहुत ज्यादा नहीं बोलती, पर आज स्वयं अपनी तर्क-शक्ति पर चमत्कृत थी। निश्चित रूप से विभु दा पर मेरी बातों का प्रभाव और मेरा रौब पड़ रहा था।
दस बज गए, पर हम किसी भी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाए और अब घर पहुँचना बहुत ज़रूरी लग रहा था। विभु दा मुझे घर तक छोड़ने आए। दरवाजे पर खड़े-खड़े भी करीब बीस-पच्चीस मिनट तक और बातें होती रहीं।
ऊपर पहुँची तो माँ ने आड़े हाथों लिया, ‘कहाँ थी तू अब तक? समय का भी कुछ ख़याल है, ग्यारह बज रहे हैं।
माँ पर गुस्सा आने लगा। वे समझती क्यों नहीं, कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी मुझ पर है। क्या समझेंगी-उनके लिए तो घर में क्या सब्जी बनेगी इस बात का फैसला और किसी की जिंदगी का सबसे महत्त्वपूर्ण फैसला एक-सी अहमियत रखता है।

मैं कपड़े बदलकर लेट गई तो माँ का खीज-भरा स्वर सुनाई दिया, ‘खाना तो खा ले!’

‘मुझे भूख नहीं!’

‘यह रोज़-रोज़ तेरी भूख कहाँ चली जाती है?’

सचमुच जैसे मेरी भूख ही मर गई है। रात में नींद भी तो नहीं आती ठीक से! सारे समय आँखों के सामने श्रुति दी का सूखा-मुरझाया चेहरा, सूजी-सूजी फीकी निस्तेज-सी आँखें ही घूमती रहतीं। जिंदगी के सबसे मधुर अध्याय ने कैसी कटुता भर दी है उसके जीवन में! जीवन का सारा रस ही जैसे निचुड़ गया!
माँ आजकल रात-दिन मेरी शादी को लेकर ही परेशान रहती हैं। न जाने कहाँ-कहाँ बात चला रखी है। कहीं ऐसा ही मेरे साथ भी हो जाए, तो? मन में जाने कैसा कैसा भय सामने लगा।
‘नहीं मुझे अभी अपनी बात नहीं, केवल श्रुति दी की बात ही सोचनी है।’ यह कहकर ही मैंने व्यर्थ के भय को धकेल दिया।दूसरे दिन नहाकर निकली तो कमरे में श्रुति दी मेरा इंतज़ार कर रही थीं। लगा, जैसे रात इन्होंने मुझसे मिलने की प्रतीक्षा में काटी है। मैंने सारे पर्दे खींचे और उसके पास आ बैठी।मैं विभु दा से हुई बातें बता रही थी और उसके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आ-जा रहे थे। कभी वे भभक-सी पड़तीं और उनकी आँखें पनीली हो जातीं। फिर बड़े भीगे से स्वर में बोलीं, ‘तुझे परेशान कर डाला न नंदी! तू भी क्या सोचती होगी कि कहाँ फँस गई। पर क्या बताऊँ, घंटे भर भी तुझसे बात कर लेती हूँ, तो थोड़ा जी हलका हो जाता है, वरना मन सारे समय घुमड़ता रहता है। सवेरे चार बजे से ही इंतज़ार कर रही थी कि कब दिन निकले और तेरे पास जाऊँ।’

और एकाएक मुझे खयाल आया हो सकता है उधर विभु दा ने अभी से मुझसे मिलने के लिए प्रतीक्षा करना शुरू कर दिया हो? लाइब्रेरीवाला जब किताबें लेने आया, तो पहली बार मुझे खयाल आया कि यह सब करते-करते पंद्रह दिन हो गए हैं। इन दिनों में मुझे अपना ज़रा भी तो होश नहीं रहा। वही लंबी-लंबी बहसें और तर्क, पर बात है कि जहाँ-की-तहाँ अटकी हुई है।अब मैंने महसूस कर लिया है कि यह दो व्यक्तित्व, दो अहं का झगड़ा है और ये लोग घर तोड़ने को तैयार हैं, अपना अहं नहीं तोड़ेंगे। यों गलती विभु दा की है, पर महसूस करते हुए भी वे मानने को तैयार नहीं हैं। मुझे खुद लगने लगा है कि अब श्रुति दी को अलग हो ही जाना चाहिए। और इसीलिए जब उन्होंने मुझसे कहा, ‘तू यह बहसबाज़ी छोड़ नंदी और मेरे लिए मकान तलाश कर दे। तर्क-वितर्क करते हुए कितना समय तो बीत गया, तो मैं मान गई। हालाँकि मन में पराजय की हल्की-सी कचोट ज़रूर थी।
‘विभु यह सोचते हैं कि मैं अलग नहीं रह सकती। स्वभाव से मैं बहुत डिपेंडेंट हूँ, ठीक है, हर आदमी किसी-न-किसी पर डिपेंड करता है, मैं भी करती हूँ। पर विभु पर नहीं। उन पर निर्भर करूँगी तो कितनी बड़ी कीमत माँगेंगे वे, उतना सब देने की सामर्थ्य नहीं है मुझमें।’ फिर एक क्षण रुकी, ‘खाने के लिए अपनी नौकरी पर निर्भर करती हूँ, और जीने के लिए अपनी कला पर!’ फिर मेरी ओर देखकर बोलीं, ‘तेरे पास ही घर मिल गया तो संकट-मुसीबत के समय तुझ पर निर्भर करूँगी, विभु इस सबमें आते ही कहाँ हैं?’
पता नहीं यह सब कहकर वे मुझे आश्वस्त कर रही थीं या अपने-आपको! मैंने तय कर लिया कि अब मैं मकान दिलवाकर ही रहूँगी। विभु दा श्रुति दी को, इनकी कला को कुचलकर रख देना चाहते हैं, यह सब नहीं होगा।रोज़ सवेरे आठ बजे से ग्यारह बजे तक हम मकान देखते, एक दिन में दलाल हमको दस-बारह घर दिखा देता, लौटते तो टैक्सी का बिल मैं ही देती, श्रुति दी बहुत बिगड़तीं, एक-दो बार तो उन्होंने मुझे डाँटा भी, पर वे इतनी पस्त हो चुकी थीं कि उनसे डाँटा भी नहीं जाता था।