sahi chunaav - mahabharat story
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महाभारत का युद्ध निश्चित हो चुका था। पांडव और कौरव‒दोनों पक्ष भगवान श्रीकृष्ण को अपनी ओर करना चाहते थे। इसलिए कौरवों की ओर से दुर्योधन और पांडवों की ओर से अर्जुन श्रीकृष्ण को आमंत्रित करने के लिए एक साथ उनके पास पहुंचे।

उन्हें एक साथ आया देख श्रीकृष्ण बोले-“पार्थ ! आप दोनों मुझे युद्ध के लिए आमंत्रित करने आए हो, लेकिन आपके एक साथ आने से मैं धर्म-संकट में फंस गया हूं। आप दोनों ही मुझे समान रूप से प्रिय हैं। इसलिए मैं आपमें से किसी को भी निराश नहीं कर सकता, परंतु पहले मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं जिस ओर से युद्ध करूंगा, मेरी सेना उसके विपरीत पक्ष की ओर से युद्ध करेगी अर्थात् एक को मैं मिलूंगा और दूसरे को मेरी सेना। दूसरी बात, युद्ध में मैं अस्त्र नहीं उठाऊंगा। अब आप दोनों को जो उचित लगे, मांग लें।”

दुर्योधन ने सोचा- ‘श्रीकृष्ण ने युद्ध में अस्त्र न उठाने का निश्चय किया है, फिर इनसे कैसा भय? इसके विपरीत नारायणी सेना अधिक शक्तिशाली और विशाल है। उसकी सहायता से हम सरलता से पांडवों को हरा देंगे।’ अतः दुर्योधन नारायणी सेना मांगकर चला गया।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण को चुना। श्रीकृष्ण ने जब इसका कारण पूछा तो अर्जुन बोले-“केशव ! आप साक्षात् धर्म हैं। जहां आप होंगे, वहीं धर्म होगा और जहां धर्म होगा, विजय भी उसकी होगी। इसलिए आप मेरा सारथी बनना स्वीकार करें। मैं अपने जीवन की बागडोर आपके हाथों में सौंपता हूं। कृपया मेरी इच्छा पूर्ण कर मुझे कृतार्थ करें।”

श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार कर लिया और महाभारत युद्ध में अर्जुन की अनेक बार रक्षा की।

इस प्रकार दुर्योधन ने अपनी कुबुद्धि के कारण साक्षात् भगवान को ठुकराकर उनकी नारायणी सेना का वरण किया। जबकि अर्जुन ने उन्हें अर्थात् धर्म के रक्षक को चुना। यही कारण है कि इस धर्मयुद्ध में पांडवों की विजय हुई।