भीष्मक नामक एक प्रतापी राजा विदर्भ देश के अधिपति थे। उनके रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश, रुक्ममाली नामक पांच वीर पुत्र और रुक्मिणी नामक एक अत्यंत सुंदर कन्या थी।
एक बार रुक्मिणी अपनी सखियों के साथ राज-उद्यान में विचरण कर रही थीं। तब उनकी एक सखी भगवान श्रीकृष्ण के रूप-सौंदर्य और पराक्रम का वर्णन करते हुए बोली‒”राजकुमारी! आजकल संपूर्ण संसार में द्वारिका के श्रीकृष्ण की जय-जयकार हो रही है। विद्वान पुरुष कहते हैं। कि वे साक्षात् परब्रह्म हैं। उनके समान वीर और पराक्रमी संसार में दूसरा कोई नहीं है। उन्होंने बचपन में ही पूतना, वत्सासुर, बकासुर, अघासुर और तृणावर्त्त जैसे दैत्यों का संहार कर दिया था। कंस जैसे परम शक्तिशाली और दुराचारी राजा को चुटकियों में मसल दिया था। जरासंध भी सत्रह बार उनके हाथों पराजित हो चुका है। उनके रूप-सौंदर्य का कोई अंत नहीं है। ब्रज की गोपियां उन पर इतनी मोहित थीं कि उन्होंने स्वयं को उनके चरणों में अर्पित कर दिया था। न जाने किस नारी को उनकी धर्मपत्नी बनने का सौभाग्य प्राप्त होगा।”
रुक्मिणी पहले भी भगवान श्रीकृष्ण के विषय में बहुत कुछ सुन चुकी थीं। अब सखी द्वारा उनके बारे में जानकर उन्होंने मन-ही-मन उन्हें पति-रूप में पाने का निश्चय कर लिया।
रुक्मिणी विवाह योग्य हो चुकी थीं, अतः भीष्मक को उनके विवाह ही चिंता सताने लगी। भीष्मक का ज्येष्ठ पुत्र रुक्मी रुक्मिणी का विवाह अपने मित्र शिशुपाल के साथ करना चाहता था। उसने पिता से इस विषय में बात की। वे भी इसके लिए तैयार हो गए। जब रुक्मिणी ने यह सुना तो वे अत्यंत दुःखी हो “गईं। अंत में बहुत सोच-विचार करने के बाद उन्होंने एक विश्वासपात्र ब्राह्मण द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के पास अपने विवाह का प्रस्ताव भेजा।
श्रीकृष्ण स्वयं रुक्मिणी से विवाह करना चाहते थे, अतः वे अकेले ही विदर्भ देश जा पहुंचे।
इधर बलराम को सारी घटना पता चली तो वे एक विशाल चतुरंगिणी सेना लेकर श्रीकृष्ण के पास जा पहुंचे।
राजा भीष्मक रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल के साथ करने की तैयारी कर रहे थे। नगर के राजपथ, चौराहे आदि सजा दिए गए थे। नागरिक सुंदर-सुंदर वस्त्रों, आभूषणों, पुष्प-मालाओं आदि से सुशोभित थे।
जैसे राजा भीष्मक अपनी पुत्री के विवाह से संबंधित मंगल-कर्म करवा रहे थे, वैसे ही चेदि नरेश राजा दमघोष ने भी अपने पुत्र शिशुपाल के विवाह-संबंधी कर्म सम्पन्न करवाएं। फिर वे स्वर्ण-निर्मित रथों और हाथियों पर सवार होकर विदर्भ देश जा पहुंचे। बारात में शाल्व, जरासंध, दतवक्त्र, विदूरथ और पौण्ड्रक आदि शिशुपाल के अनेक मित्र आए थे। उनके साथ उनकी विशाल सेनाएं भी सुशोभित थीं।
रुक्मिणी बड़ी अधीरता से श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थीं। जब उन्हें सूचना मिली कि श्रीकृष्ण विदर्भ पहुंच चुके हैं तो वे बारंबार माता पार्वती को धन्यवाद देने लगीं।
दूसरे दिन प्रातः रुक्मिणी सुंदर वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर देवी के मंदिर की ओर चलीं। सैनिक उनकी रक्षा में नियुक्त थे। यद्यपि वे गिरिजा देवी के दर्शन करने जा रही थीं, तथापि हृदय में वे भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही थीं। माता पार्वती की विधिपूर्वक पूजा-आराधना करने के पश्चात् वे धीरे-धीरे कदम उठाती हुईं अपने रथ की ओर चल पड़ीं।
जैसे ही वे अपने रथ पर चढ़ने लगीं, उन्हें भगवान श्रीकृष्ण आते दिखाई दिए। उन्होंने समस्त शत्रुओं के देखते-ही-देखते रुक्मिणी को उठाया और रथ पर बिठाकर भ्राता बलराम सहित द्वारिका की ओर चल पड़े।
यह देखकर उपस्थित राजाओं के खून में उबाल आ गया। उन्होंने म्यानों में से तलवारें निकाल लीं और श्रीकृष्ण से लोहा लेने जा पहुंचे। जब श्रीकृष्ण और बलराम ने देखा कि शत्रु-सेना आक्रमण करने के लिए दौड़ी आ रही हैं तो धनुष धारण कर वे उनके सामने आ डटे और अपने बाणों से शत्रुओं के रथ और अस्त्र-शस्त्र छिन्न-भिन्न करने लगे। शत्रु-सेना में हाहाकार मच गया और वह युद्धभूमि से भाग गई। जरासंध आदि समस्त राजा भी युद्ध में पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए।
श्रीकृष्ण रुक्मिणी को साथ लेकर द्वारिका लौट आए। उनके विवाह की तैयारियां पहले ही हो चुकी थीं। तब उनका विधिवत् विवाह संपन्न हुआ।