श्रीकृष्ण की सुप्रभा नामक एक मौसी थी, जिसका विवाह चेदि देश के दमघोष के साथ हुआ था। विवाह के उपरांत सुप्रभा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम शिशुपाल रखा गया।
साधारण बालकों की अपेक्षा शिशुपाल की चार भुजाएं और तीन नेत्र थे। उसका विचित्र रूप देखकर सुप्रभा और राजा दमघोष ने भयभीत होकर उसे त्यागने का निश्चय कर लिया।
तभी एक आकाशवाणी हुई-“राजन ! तुम्हारा यह पुत्र आगे चलकर बहुत वीर और पराक्रमी होगा। इसका वध ऐसे व्यक्ति के हाथों होगा, जिसकी गोद में जाते ही इसकी दो अतिरिक्त भुजाएं और एक नेत्र अदृश्य हो जाएंगे।”
शिशुपाल के जन्म के विषय में सुनकर अनेक देशों के राजा उसे देखने आए और बारी-बारी से उसे गोद में लिया, परंतु शिशुपाल के शरीर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।
इसी प्रकार एक दिन भगवान श्रीकृष्ण अपनी मौसी से मिलने चेदि देश में आए। उन्होंने स्नेहवश जैसे ही शिशुपाल को गोद में उठाया, वैसे ही उसकी दो भुजाएं और एक नेत्र अदृश्य हो गए। अब स्पष्ट हो चुका था कि श्रीकृष्ण ही वह व्यक्ति हैं, जिनके हाथों शिशुपाल का वध निश्चित है।
सुप्रभा ने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे शिशुपाल को जीवन प्रदान करें। श्रीकृष्ण ने उसे आश्वासन दिया कि वे शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा कर देंगे, परंतु जब शिशुपाल के अपराधों की संख्या सौ से ऊपर हो जाएगी तो उसे कोई नहीं बचा सकेगा।
शिशुपाल के युवा होने पर चेदि नरेश ने उसका विवाह राजा भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी के साथ तय कर दिया। निश्चित समय पर शिशुपाल बारात लेकर विदर्भ देश पहुंचा, परंतु विवाह से पूर्व श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया। शिशुपाल ने श्रीकृष्ण को युद्ध के लिए ललकारा, परंतु उन्होंने उसे पराजित कर जीवित छोड़ दिया। शिशुपाल बचपन से ही श्रीकृष्ण से ईर्ष्या करता था। इस घटना से वह उनका कट्टर शत्रु बन गया।
राजा युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में अन्य राजाओं के साथ शिशुपाल को भी आमंत्रित किया था। राजसूय यज्ञ समाप्त होने पर प्रश्न उठा कि उपस्थित सभासदों में से किसकी प्रथम पूजा की जाए। सभी ने एक स्वर में श्रीकृष्ण के नाम का समर्थन किया। भीष्म, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य ने भी इसका अनुमोदन किया।
व्यक्तिगत द्वेष के कारण शिशुपाल को यह निर्णय अनुचित लगा। उसने भरी सभा में श्रीकृष्ण को अपमानजनक शब्द कहे। दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण अप्रत्यक्ष रूप से उसका उत्साह बढ़ा रहे थे। इसलिए उत्तेजना में भरकर वह मर्यादा की सीमाएं तोड़ने लगा। भीष्म और द्रोणाचार्य ने उसे समझाने का प्रयास किया, परंतु उसने उन्हें भी अपमानित कर डाला।
श्रीकृष्ण शांतिपूर्वक बैठे शिशुपाल की धृष्टता देख रहे थे, किंतु जब उसने भीष्म और द्रोणाचार्य के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया तो वे गरजते हुए बोले- “शिशुपाल ! मैंने तुम्हारी माता को वचन दिया था कि मैं तुम्हारे सौ अपराध क्षमा कर दूंगा, परंतु तुम्हारे अपराधों की सीमा इससे कहीं ऊपर जा चुकी है। अब तुम्हारा अंतिम समय आ गया है। यदि बच सकते हो तो बचो।”
यह कहकर उन्होंने सुदर्शन चक्र धारण कर लिया और उसे शिशुपाल की ओर चला दिया। शिशुपाल सूखे पत्ते की तरह कांपने लगा। उसने इधर-उधर सहायता के लिए देखा, परंतु श्रीकृष्ण के विरोधी की कौन सहायता करता।
शिशुपाल सभा छोड़कर भागने लगा, परंतु सुदर्शन चक्र ने पल-भर में उसका मस्तक काटकर धड़ से अलग कर दिया।