एक बार महर्षि व्यास हस्तिनापुर पधारे तो गांधारी ने श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा की। गांधारी के सेवाभाव को देखकर महर्षि व्यास अत्यंत प्रसन्न हुए और लौटते समय उन्होंने वर दिया‒ “गांधारी! शीघ्र ही तुम्हें सौ पुत्रों की प्राप्ति होगी। वे धृतराष्ट्र के समान परम बलशाली, पराक्रमी और वीर होंगे। इसके अतिरिक्त तुम्हें एक पुत्री भी प्राप्त होगी।” कुछ दिनों के बाद गांधारी गर्भवती हो गई। वह प्रसन्नतापूर्वक वर के सिद्ध होने की प्रतीक्षा करने लगी।
दो वर्ष बीत गए, परंतु गांधारी को कोई संतान नहीं हुई। इसी बीच कुंती ने वन में युधिष्ठिर को जन्म दे दिया था। तब क्रोध और ईर्ष्या के वशीभूत होकर गांधारी ने अपने उदर पर प्रहार किया, जिससे लोहे के समान एक कठोर और विशाल मांस का पिंड निकला।
अभी गांधारी आश्चर्यचकित होकर उसे देख रही थी कि वहां महर्षि व्यास आ पहुंचे। वे तपोबल द्वारा सब कुछ जान चुके थे। उन्होंने उस मांस-पिंड को जैसे ही शीतल जल से धोया, वह एक सौ एक टुकड़ों में विभाजित हो गया। उन्होंने घी से भरे एक सौ एक घड़ों में मांस-पिंड का एक-एक टुकड़ा डाल दिया। फिर उन घड़ों को गुप्त स्थान पर रखवाकर दो वर्ष तक उन्हें न खोलने की चेतावनी दी।
निर्धारित समयावधि के बाद जब पहले घड़े को खोला गया तो उसमें से एक बालक उत्पन्न हुआ। उस बालक के उत्पन्न होते ही भयंकर अपशकुन होने लगे। विद्वान ब्राह्मणों ने धृतराष्ट्र और गांधारी को उस बालक का परित्याग करने की सलाह दी। उन्होंने भविष्यवाणी की कि ‘यह बालक उनके वंश का संहारक होगा।’ परंतु मोहवश वे उसका परित्याग नहीं कर सके। यही बालक दुर्योधन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। तत्पश्चात् अन्य घड़ों को खोला गया।
इस प्रकार गांधारी को सौ पुत्रों और एक पुत्री की प्राप्ति हुई।