"कान्हा - माई फ्रैंड"-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Kanha-My Friend

Friend Story: सौम्या बहुत ही शांत स्वभाव की बच्ची थी। वह जल्द ही किसी से घुलती मिलती नहीं थी। उसके माता पिता दोनों नौकरी करते थे। इसलिए सौम्या के लिए ज़्यादा समय नहीं निकाल पाते थे। उसकी मां अक्सर उसे सोसायटी के बच्चों के साथ खेलने को कहती थीं। परन्तु सौम्या उन बच्चों से भी एक दूरी बनाकर रखती थी। उनमें ज़्यादातर बच्चे या तो उससे उम्र में बहुत बड़े थे या फिर उम्र में बहुत छोटे। इसलिए उसका मन‌ नहीं लगता था।

जब भी कोई त्योहार आता तो सौम्या और बच्चों की तरह ज़्यादा उत्साहित नहीं होती थी। ना ही किसी उपहार से उसका मन प्रसन्न होता था। उसके माता पिता उसकी इस चुप्पी से बहुत चिंतित रहने लगे थे।

एक दिन उसके पिता ने इस बारे में अपनी मांँ, जो कि गांँव में रहती थीं, से बात की। सारी बात सुनने के बाद उन्होंने कहा कि इस बार छुट्टियों में सौम्या को कुछ दिनों के लिए गांँव भेज दें। शायद वातावरण बदलने से उसका मन बहल जाए।

“सौम्या, इस बार क्यों ना छुट्टियों में दादी माँ‌ के पास गाँव चलें!” उसके पिता ने उसे दुलार करते हुए कहा।

“सच में पापा! दादी माँ के साथ मुझे बहुत मज़ा आता है। पर…आप मुझे वहाँ किसी से भी दोस्ती करने को मत कहना पापा। मैं किसी को फ्रेंड नहीं बनाना चाहती।” सौम्या बोली।

“अच्छा ठीक है, नहीं कहूंँगा।”


सौम्या यूंँ तो अपनी दादी मांँ को बहुत प्यार करती थी। पर अपने दिल की बात कहने से संकोच करती थी। एक दिन उसकी दादी उसे अपने घर में बने बड़े से मंदिर में ले गयीं। वहांँ उन्होंने कान्हा की मूर्ति स्थापित कर रखी थी। उस मूर्ति को देखते ही सौम्या के चेहरे पर मुस्कान आ गई।

“दादी मांँ, ये कौन से भगवान हैं?” सौम्या ने पूछा।

“ये हमारे कान्हा हैं। हमारे कृष्ण कन्हैया। और मेरे सबसे अच्छे सखा। पता है सौम्या, मैं जब बहुत परेशान होती हूँ और मेरा किसी से बात करने का मन नहीं करता तो मैं अपने सखा कृष्णा के पास आकर बैठ जाती हूँ। अपनी सारी समस्या उन्हें सुनाती हूँ।‌ और फिर मेरा मन‌ हल्का हो जाता है। और मुझे उस समस्या से निपटने के लिए कान्हा मार्गदर्शन भी करते हैं।” दादी मांँ ने सौम्या के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा।

“सच में दादी मांँ! क्या कान्हा मेरे दोस्त बनेंगे? क्या वो मेरे साथ बात करेंगे?” सौम्या ने मूर्ति की तरफ देखते हुए कहा।

“बिल्कुल! आओ मैं तुम्हें तुम्हारे नन्हें कान्हा से मिलवाऊंँ। मैं उन्हें लड्डू गोपाल कहती हूँ।” दादी मांँ ने ये कह एक डिब्बा खोला और एक छोटे से बाल गोपाल की मूर्ति निकाली।

“सौम्या, जब मैं छोटी सी थी, तब मेरी मांँ ने मुझे ये बाल गोपाल दिए थे। मैं रोज़ इन्हें नहलाती, इनके कपड़े बदलती, इन्हें खाना खिलाती, झूल झुलाती और रात को सुलाती भी थी। ये मेरे परम मित्र थे। दिन भर की सारी बातें करती थी मैं इनसे।” दादी मांँ ने कान्हा की मूर्ति को सौम्या के हाथों में थमाते हुए कहा,
“आज से ये तुम्हारे परम मित्र हैं। इनका पूरा ध्यान रखना। मेरे लड्डू गोपाल की तरफ से तुम्हारी कोई शिकायत नहीं आनी चाहिए। समझी।”

“जी दादी माँ, आज से कान्हा का पूरा ख्याल मैं रखूँगी। और इन्हें अपना बेस्ट फ्रेंड बनाऊँगी।” सौम्या खुशी से उछलते हुए बोली।

सौम्या अपने जीवन के पहले सच्चे दोस्त को पा खुशी से फूली ना समाई। उसने अपनी दादी माँ से कान्हा की देखभाल कैसे करनी है, सब कुछ सीख लिया। दादी माँ भी खुश थीं कि उनके लड्डू गोपाल सुरक्षित हाथों में जा रहे हैं। उन्हें विश्वास था कि मुरली मनोहर के आशीर्वाद से सौम्या के अंदर दबा संकोच जल्द खत्म हो जाएगा और वह भी सब बच्चों की तरह खेलना कूदना शुरू कर देगी।

सौम्या ने अपने कमरे में एक छोटा सा मंदिर बनवाया। उसमें उसने स्वयं अपने हाथों से सारी सजावट की और अपने प्रिय सखा का पालना तैयार किया। उसमें उसने लड्डू गोपाल को स्थापित कर दिया। नित नियम से वह उन्हें दूध से नहलाती, कपड़े बदलती और खाना खिलाती।

स्कूल से आकर, अपने स्कूल की सारी बातें अपने प्रिय सखा से करती। धीरे – धीरे उसका अकेलापन कम होने लगा। वह अब अंतर्मुखी नहीं रही। उसके अंदर का चंचल स्वभाव बाहर आने लगा।

राखी वाले दिन वह बहुत उदास हो जाती थी। क्योंकि उसकी स्कूल की अधिकतर सखियों के बड़े या छोटे भाई थे जिन्हें वह राखी बांधती थीं। पर सौम्या अक्सर‌ चुपचाप ही रहती थी। पर इस बार उसने अपने कान्हा को राखी बांधने का फैसला किया। अपने लड्डू गोपाल के लिए खुद बहुत सुंदर और बहन के ममत्व के धागों से बुनी खूबसूरत सी राखी बनाईं।

रक्षाबंधन वाले दिन उसने पूजा करने के बाद अपने कान्हा को राखी बांधी और बोली, “सखा, आज से मेरी रक्षा तुम करोगे। मेरे सारे दुख दर्द तुम दूर करोगे।‌ तुम मेरे सखा ही नहीं, मेरे भाई भी हो।”

सौम्या के माता पिता ये देख बहुत खुश हुए। उनकी बेटी एक दोस्त, एक साथी के लिए हमेशा रोती थी। आज उसने कान्हा में अपने दोस्त को ही नहीं अपितु अपने‌ भाई को भी ढूंढ लिया।

कान्हा के जन्मदिन पर सौम्या ने अपने घर के आंगन में बहुत खूबसूरत सी झांकी तैयार की। इसमें सोसायटी के सभी बच्चों ने उसका साथ दिया। और फिर एक सुंदर से पालने पर उसने अपने लड्डू गोपाल को बैठा दिया और सोसायटी के सभी लोग उसके कान्हा को झूला झूलाने आए। सौम्या ने अपनी दादी मांँ का भेजा प्रसाद सबको बांटा और सबने उसे असीम प्यार और आशीर्वाद दिया।

आज सौम्या अपनी गली के बच्चों में बहुत लोकप्रिय है। उसके अनगिनत दोस्त हैं। वह अकेलेपन के उस दौर से बाहर निकल आई थी। पर आज भी वह नियमित रूप से अपने सबसे पहले सखा, अपने लड्डू गोपाल के लिए सब कुछ वैसे ही करती है जैसे पहले करती थी। कान्हा के साथ आज भी वो अपने स्कूल की, अध्यापकों की, सहेलियों की, सबकी बातें साझा करती थी। आज भी कान्हा ही उसके सबसे अच्छे सखा थे।

मित्रता हमारे अंदर छिपी समस्त भावनाओं को, चाहे वो अच्छी हो या बुरी, बाहर निकाल, हमें एक सही दिशा प्रदान करती है। और जब मित्रता स्वयं भगवान रूपी ऊर्जा से हो जाए तो व्यक्ति का व्यक्तित्व अपने आप निखर जाता है।