Akhiri Khat Story: नारायणी देवी एक छोटे से गांँव में अपने बेटे अमर के साथ रहती। पति की मृत्यु के बाद उसने बहुत मेहनत कर अपने बेटे को पढ़ाया था। उसे सनातन की पढ़ाई के बाद उच्च शिक्षा के लिए शहर भी भेजा था। उसका बेटा शहर जाने को तैयार नहीं था।
“माँ क्यों अपने से दूर कर रही हो? यहाँ कौन देखेगा तुमको?”
“लल्ला मेरी चिंता ना कर! तू पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन जा। बस मेरा जीवन सफल हो जाएगा।”
“पर माँ यहांँ आप अकेले कैसे करोगे। मैं हर समय शहर से गाँव नहीं आ पाऊँगा।”
“यहाँ सब गाँववासी हैं ना मेरे साथ। तू मेरी चिंता मत कर। तू बस पढ़ लिख कर बड़ा अफसर बन जा। मेरा जीवन सफल हो जाएगा।”
“ठीक है माँ, जैसे तेरी मर्ज़ी।”
ये कह नारायणी देवी के बेटे ने उससे विदा ली। और चल पड़ा अपने सपनों को खोजने।
शहर से हर माह उसका बेटा उसके लिए ख़त लिखता था। नारायणी देवी बहुत चाव से उसका ख़त पढ़ती थी। हालांकि वह केवल पांँचवीं कक्षा तक ही पढ़ीं थीं, किन्तु उनके बेटे ने उन्हें इतना पढ़ना-लिखना तो सिखा ही दिया था कि वह ख़त पढ़ सकतीं थीं। कभी – कभी वह अपनी गाँव की सहेलियों को भी ख़त पढ़कर सुनाती थीं। सब ऐसा होनहार बेटा होने पर मन ही मन उससे ईर्ष्या भी करती थीं।
हर माह की पहली तारीख को जब डाकिया आवाज़ लगाते हुए आता तो वह अपने घर के दरवाज़े पर उसकी प्रतीक्षा करती रहतीं।
“लो माई तुम्हारे लल्ला का ख़त आ गया। अब जी भर कर पढ़ लो।” डाकिया हँसते हुए कहता।
जब उसके बेटे ने कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया था तब वो उसे पढ़कर बहुत रोईं थीं। फिर उन्होंने पूरे मोहल्ले को लड्डू बांटे थे। डाकिया भी उनकी इस खुशी में शामिल हुआ था।
“आज मेरी मेहनत सफल हो गयी। मेरा लल्ला अब बड़ा अफसर बनेगा। खूब कमाएगा।”
“फिर तो तेरी किस्मत खुल जाएगी नारायणी! पैसों में खेलेगी तू भी। भगवान ऐसी औलाद सबको दे।” गाँव की औरतों ने ईर्ष्या भाव से कहा।
“अरे! मुझे क्या ज़रूरत पैसों की। लल्ला अपना कमाए और खाए। बस मैं तो उसे तरक्की करते देखना चाहती हूँ।” नारायणी देवी बोलीं।
बेटे ने पढ़-लिख कर शहर में ही नौकरी करने की सोची। हालांकि उसने नारायणी देवी को भी अपने पास बुलाना चाहा। पर नारायणी देवी ने मना कर दिया। बोलीं, “मैं भली, मेरा गांव भला।”
बेटा हर माह मनी आर्डर से पैसे भेजता और साथ ही ख़त भी। नारायणी देवी को मनी आर्डर से ज़्यादा ख़त का इंतज़ार रहता।
“ला डाकिया बाबू, मेरे लल्ला का ख़त दे।”
“माई साथ में ये मनी आर्डर भी तो है!” डाकिया बोला।
“ओहो! रख दें उधर और बता कहाँ नाम लिखूँ। जल्दी कर लल्ला का हालचाल पढ़ने दे।” नारायणी देवी उत्सुक होते हुए बोलीं।
धीरे-धीरे ख़त कम होने लगे। जिसपर नारायणी देवी डाकिये से लड़ जाती।
“क्यों रे! तू आजकल सही से काम नहीं करता। मेरे लल्ला का ख़त खो देता है तू।”
“अरे! माई! मैं क्यों ऐसा करूंँगा? आज तक कभी हुआ है ऐसा? अब तुम्हारा बेटा केवल मनी आर्डर ही भेजता है तो मैं वही दूंँगा ना।” डाकिया हर बार बोलता।
बहुत महीने बीत गए। अब नारायणी देवी के बेटे का केवल मनी आर्डर आता था। नारायणी देवी की आंँखों में मनी आर्डर लेते समय आंँसू निकल आते थे। डाकिया भी उनकी वेदना को भली-भांति समझ रहा था। पर वो कर ही क्या सकता था।
“आजकल के बच्चे माँ के दर्द को समझ ही नहीं सकते। वो बेचारी अपने बेटे के हाथों से लिखे ख़त का इंतज़ार करती रहती है और बेटा ख़त नहीं केवल पैसा भेजता है। उसकी माँ को पैसे नहीं उसके हाथों से लिखे दो मीठे बोलों का इंतज़ार रहता है।” डाकिया अपने साथी से कहता हुआ दूसरे गाँव की तरफ चल दिया।
पर हर माह नारायणी देवी उसी उत्साह से डाकिए का इंतज़ार करती। पर ख़त ना आने पर मायूस हो कर रह जाती। उनकी आंँखों में ख़त के इंतज़ार की वेदना साफ झलकती थी। वो अपने बेटे की सलामती जानने के लिए झटपटा रही थीं। पर उनके बेटे को उनका कोई ख्याल नहीं था।
“माई क्यों परेशान होती हो? ठीक ही होगा तुम्हारा बेटा। क्यों उसके ख़त के इंतज़ार में घुली जा रही हो?” डाकिया बोला।
“तू नहीं समझेगा, एक माँ का दिल अपने बच्चे की सलामती जानना चाहता है बस। इतना हक तो है मुझे?” नारायणी देवी ने उदास स्वर में कहा।
एक सुबह डाकिया खुशी से चिल्लाते हुए आ रहा था।
“माई, देखो ख़त आ गया। ख़त आ गया।”
पर आज नारायणी देवी डाकिए का इंतज़ार करती दरवाज़े पर नहीं खड़ी थी। उसने घर में झांककर देखा तो उसके होश उड़ गए। नारायणी देवी फर्श पर गिरी पड़ी थीं।
डाकिये ने आस-पास के लोगों को आवाज़ लगाई। वैद्य ने आकर देखा। उसने नम आंँखों से बताया कि अब नारायणी देवी इस संसार में नहीं रहीं। सबकी आंँखें नम हो गईं।
डाकिया उनके पास आकर रोते हुए बोला,”माई, ये ख़त जिसका आप कब से इंतज़ार कर रहीं थीं, वो तो पढ़ लेते।”
डाकिए ने ख़त खोला और पढ़ना शुरू किया,
“मांँ,
मैं सकुशल हूंँ। आशा करता हूंँ आपको समय से मनी आर्डर मिल जाता होगा। आपको बताना चाहता था कि मैंने शादी कर ली है। और अब नयी नौकरी के सिलसिले में मैं दूसरे शहर में बस गया हूंँ। पता भेजकर क्या करुंँ, आप तो आएंँगी नहीं। आपको हर माह मनी आर्डर मिलता रहेगा।
प्रणाम”
ये पढ़कर सब हैरान हो गए। तभी एक बुजुर्ग की निगाह मेज पर पड़े ख़त पर गयी। उसने ख़त खोल कर डाकिए को पढ़ने को दिया। ख़त नारायणी देवी ने लिखा था।
“गांँव के साथियों, आपका धन्यवाद, जो मुझे इतना प्यार दिया। आप सब से विनती है कि मेरी मृत्यु की खबर मेरे बेटे को ना दी जाए। और हर माह जो मनी आर्डर मेरा बेटा भेजता है, उसे गांँव के सरपंच गांँव की भलाई के लिए इस्तेमाल करें।
सबको आशीर्वाद
नारायणी”
इस खत ने गांँववासियों को भावविभोर कर दिया। नारायणी देवी मरने के बाद भी गांँव के प्रति अपने कर्तव्य को नहीं भूलीं। और उनका बेटा, जीते-जी अपनी बूढ़ी मांँ के प्रति अपने कर्तव्य को भूल गया।
