पहचान—गृहलक्ष्मी की कहानियां: Hindi Kahani

Hindi Kahani: कैसी हो ताई सा….. घर में घुसते ही कला ने अपने ससुराल के पड़ोस में रहने वाली ताई सा सावित्री देवी जी को प्रणाम किया। सावित्री देवी छोटी उम्र में ही विधवा हो गई थी,वो अपने घर में अकेली रहती थी ,उनके कोई आस औलाद नहीं थी, पर उन्होंने गांव के हर बच्चे को अपनी औलाद मान लिया था।
हर किसी के सुख-दुख में वह साथ देती, गांव मानिकपुर में वो हर किसी के लिए एक प्रेरणा स्रोत थी। गांव की हर बच्ची को वह सिलाई कढ़ाई बुनाई की शिक्षा देती, उन्हें अपने पैरों पर खड़ा करने की यथासंभव कोशिश करती।

मानिकपुर एक छोटा सा राजस्थान का गांव है, जहां कला कभी दुल्हन बनकर आई थी, ये ब्याह का सुंदर सा जोड़ा पहन ,हाथों भर-भर चूड़ियां,पैरों में महावर ,हाथों में मेहंदी, नाक में ये बड़ी नथ कि पूरा चांद ही उसमें से छांक रहा हो,मांग में माथे से लेकर पीछे सिर तक जो सिंदूर भरा था ,मानो किसी छोटी सी गुड़िया को ही सजा कर दुल्हन बना दिया हो।उम्र ही क्या थी कला की तेरह चौदह बरस की रही होगी,जब उसको ब्याह दिया गया था। जल्द ही दो बच्चों की मां भी बन ग‌ई।
बेचारी छोटी सी ही उम्र में जिम्मेदारियों से घिर ग‌ई, शायद ससुराल का दूसरा नाम ही जिम्मेदारी होता है,पर कला ने धीरे धीरे सब सीख लिया। हर रीति हर रिवाज वो दिल से करती पर ससुराल वालों को फिर भी कहीं ना कहीं कोई कमी लगती उसे ताना देते, उलाहना देते, क्योंकि कला एक गरीब घर की बेटी थी और दहेज में कुछ खास सौगात संग में ना लाई थी।
पर कला को हर कदम पर हिम्मत अपने पति से मिलती, वह उसे बेहद प्यार करता , हर मुश्किल में उसके साथ खड़ा होता, जब कभी कला ससुराल वालो के व्यवहार को लेकर उदास होती तो उसे समझाता कि बावली तू क्यों फिक्र करे है मैं हूं ना तेरे साथ, सब संभाल लूंगा। कला को भी उसके साथ से बहुत हिम्मत मिलती, वह अपने पति से कहती कि यह मेरी मांग में जो सिंदूर है वो एक सुहागन की निशानी ही नहीं, मेरी तकदीर है,आपका प्रेम ही मेरी ताकत है,जो मुझे अपने हक की हर लड़ाई लड़ने के लिए मजबूत करता है।
एक दिन कला करवा चौथ से ठीक पहले अपने पति के साथ शहर जाने के लिए तैयार हुई, बहुत खुश थी शहर जाने के लिए, बहुत उत्साहित थी, उसने शहर जाने की खातिर बहुत सुंदर सा लहंगा चोली पहना, राजस्थानी जूतियां पहन तैयार हो जब बाहर आई तो उसके पति ने कहा कला आज तो बहुत चोखी दिखाई देती है, पर आज तूने यह मांग में सिंदूर काहे नहीं भरा। चल कोई ना ऐसे ही चल घनी देर हो रही है।
इतना सुनकर कला परेशान हो जाती है, अपने पति से कहती है बस दो मिनट ठहरो आप,मैं अभी सिंदूर लगाकर आती हूं, किसी ने घर में देख लिया तो मुझे लाख बातें सुनायेंगे और सुनो जी मुझे भी बिना सिंदूर भरे अपना सिंगार अधूरा लागे हैं। कहकर कला अंदर कमरे की तरफ दौड़ कर जाती है और मांग में सिंदूर भरती है जल्दबाजी में उसके सिंदूर की डिब्बी गिर जाती है, उसका मन अनहोनी से भर जाता है, वह अपने पति से कहती है आज नहीं कल चलेंगे, आज मेरा मन अच्छा नहीं है। इस पर उसका पति कहता है क्या सोच विचार में लगी है ,ये शगुन अपशगुन कुछ नहीं होवे बस अपने अपने मन के वहम भर है,वो हाथ पकड़ कर कला को बाहर ले आता है और शहर जाने के लिए निकल जाता है।
कला के मन की शंकाएं आज सही साबित हो जाती हैं, रास्ते में उनका एक्सीडेंट हो जाता है, कला को भी काफी चोटें आई ,लेकिन सबसे बड़ी चोट उसके दिल को लगी ,उसकी मांग का सिंदूर आज मिट चुका था, उसका जीवन साथी उसे यूं मंझदार में छोड़कर जा चुका था‌। कला टूट कर बिखर गई, ससुराल वालों ने उसका साथ ना दिया, हर इल्जाम उसके सिर रख दिया,उसका जीना मुश्किल कर दिया,कला ने अपने को संभाला, और अपने बच्चों की खातिर वो जिंदगी को नया मुकाम देने के लिए शहर चली गई।
कला आज बहुत दिनों बाद अपने ससुराल मानिकपुर वापस आई थी। कला को देखते ही सावित्री ताई सा बहुत खुश हो गई, आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया, कैसी है मेरी छोरी, कितने दिन बाद देख रही हूंँ, मुझे तो लगा कि शहर जयपुर जाकर अपनी ताई सा को बिल्कुल ही भूल गई तू छोरी। मैं म्हारे मन में सोचा करती कि अब तो तू शायद मेरे मरने के बाद ही आवेगी मेरा चेहरा देखने की खातिर।
सावित्री देवी अपनी बात पूरी भी ना कर पावे थी कि कला ने उनके मुंँह पर हाथ रखते हुए कहा मरे आपके दुश्मन ताई सा ,आप तो हमेशा बस हमें सही राय दिखाती रहना, आपके आशीर्वाद की छत्रछाया हम पर यूंँ ही बनी रहवे,बस ईश्वर से यूंँ ही चाहते हैं।
चल चल छोरी अब ज्यादा बात ना बना तू, बता अब दोनों बालक बच्चे कैसे हैं तेरे, छोरी तो अब घनी बड़ी हो गई होगी, छौरा भी अब तो चार-पांच बरस का हो लिया होगा। स्कूल जावन लागा होगा।
जरा यूंँ तो बता कि तू क्यों ना लाई बालकण ने, देख लेती तो कलेजे को ठंडक पड़ जाती, और बता तेरा काम कैसा चल रहा है, गुजर बसर तो तेरी अच्छे से हो रही है ना छोरी।
सब भला चंगा चल रहा है ताई सा, बस यूंँ समझ लें ईश्वर के साथ साथ तेरा ही आशीर्वाद है जिसने किस्मत को धता बताते हुए, आज कामयाबी की दहलीज पर लाकर खड़ा कर दिया है थारी छोरी को।
मैं आज ताई सा इसलिए ही आई हूंँ कि तू अब से हमारे साथ ही रहेगी यूं तुझे अकेले रहने की अब कोई जरूरत ना है ताई सा। अब तेरी बेटी कला अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी है, अब किसी की दया की मोहताज नहीं तेरी बेटी ताई सा।
तुझे याद है ना ताई सा, यदि तू ना होती तो जै तेरी लाडो कब की मर गई होती ,याद है ना तुझे जब मेरे पति का असमय ही देहांत हो गया था,गोदी में छ: महीने का छौरा था, और मेरी छोरी कुल पांच बरस की थी ,मैं तो किस्मत को कोस रही थी ,साथ-साथ मेरे ससुराल वाले मुझे कोस रहे थे ,वे अपने बेटे की मौत का जिम्मेदार मुझे मानते थे, क्योंकि उस एक्सीडेंट में उनका बेटा सर पर चोट लगने की वजह से खत्म हो चुका था और मैं अभागन बच ग‌ई थी।
मैं तो जिंदा लाश बन गई थी, पढ़ी-लिखी ज्यादा ना थी, हर तरफ मुझे सिर्फ अंधेरा ही नजर आता था,उस अंधेरे में बस एक ही रोशनी की किरण नजर आई और वो तू थी ताई सा, जिसने मुझे रास्ता दिखाया, मुझसे मेरी पहचान कराई ,मेरे हुनर से मुझे मिलवाया, हर एक से लड़ी मेरी खातिर।
सच कहूंँ ताई सा, तेरी सिखाई सिलाई कढ़ाई में मुझे पारंगत तो तूने पहले ही कर दिया था,पर अपनी बेटी कला का उसके अंदर छिपी कला से परिचय तूने ही करवाया । एक हिम्मत दी, एक स्तंभ बनकर खड़ी हुई, जिसके बल पर आज मैं जयपुर में एक छोटा सा बुटीक खोलने जा रही हूंँ। जिसकी नीव मैंने तेरे दिए आशीर्वाद स्वरूप उन कुछ रूपयो और तेरी सिखाई कढ़ाई, सिलाई की बदौलत ही डाली है ।

मैं तो अंधेरे को ही अपनी किस्मत मान चुकी थी ताई सा, पर तेरी प्रेरणा से ही आज अपना वजूद पाया है ।बस अब तू चल मेरे साथ ताई सा।उस वक्त मैं मजबूर थी, अपना ही आसरा ठिकाना न था ,पर आज तेरी यह बेटी तेरे आशीर्वाद से अपने पैरों पर खड़ी है और फिर तू भी तो यहां गांव में अकेली ही रहती है, अब तेरी ज्यादा काम करने की उम्र भी ना रही ताई सा।
अब तू चल मेरे साथ, चलकर कर तेरी बेटी के सावित्री कला बुटीक को संभालना, तेरी बेटी को आज भी तेरी जरूरत है ताई सा। सावित्री कला बुटीक नाम सुनते ही सावित्री देवी का हृदय भर आया, उन्होंने कला को अपने गले से लगा लिया ।आज किस्मत को पीछे छोड़ दोनों अनाथ सनाथ हो चुकी थी, बेटी को माँ की छत्रछाया मिल गई और मां को बेटी और उसका खुशहाल परिवार।